पितृसत्तात्मक या पुरुषप्रधान समाज में पुरुष ने 'येन केन प्रकारेण' यानी साम, दाम, दण्ड, भेद का सहारा लेकर अपना प्रभुत्व स्थापित कर लिया है और वह स्वयम्भू बन बैठा है। स्त्री को उसने मात्र भोग्या मान लिया है। वह कन्धे-से-कन्धा मिलाकर चलने वाली अपनी सहधर्मिणी या सहयोगिनी स्त्री को पैर की जूती समझने की भूल कर बैठा है। अन्ततः उसे उपभोग या उपयोगिता की वस्तु मानने लगा। इसका सटीक उदाहरण है बाजारवाद। वहाँ स्त्री को एक कॉमोडिटी के रूप में प्रस्तुत किया जाता है। प्रायः विज्ञापनों में उसे अर्धनग्न दिखाकर अपने प्रोडक्ट को बेचने का प्रयास किया जाता है। ऐसी वस्तुओं के विज्ञापन में उसे दिखाया जाता है जहाँ उसके दिखाए जाने का कोई औचित्य ही प्रतीत नहीं होता।
पुरुष स्त्री को सदा लाचार, बेबस, बेचारी और असहाय ही देखना चाहता है, जिसके बिना मानो उसका गुजरा नहीं हो सकता। वह स्त्री उसे कदापि नहीं भाती जो साहसी हो, बौद्धिक रूप में उससे आगे हो, उसे मात देने की क्षमता रखती हो। इसीलिए उन्हें महिला बॉस फूटी आँख नहीं सुहाती। उनके अधीन काम करने में पुरुषों की ईगो हर्ट होती है यानी उनकी हेठी होती है। वे तो सोचते हैं कि स्त्री सहज सुलभ होती है, अतः अपने अधीनस्थ महिलाकर्मियों का यदा कदा शोषण करने को वे अपना अधिकार समझ लेते हैं। उनका विरोध करना सहन नहीं कर पाते।
यह भी शायद एक कारण हो सकता है स्त्रियों को दबाकर रखने का कि लम्बे समय तक हमारा देश मुगलों के अधीन रहा। सुन्दर स्त्री या लड़की को वे जबरदस्ती उठाकर ले जाते थे। इसलिए सुरक्षा की दृष्टि से उन पर कई पाबन्दियाँ लगाई गई होंगीं। परन्तु अब तो देश स्वतन्त्र है, ऐसी किसी हेकड़ी की गुँजाइश नहीं है। फिर भी स्त्री को उसका मनचाहा न देना तो अनुचित ही कहा जाएगा।
आज स्त्रियाँ राजनीति, फ़िल्म, व्यवसाय, नौकरी, खेल, विज्ञान, लेखन, पायलट, किसी तरह की गाड़ी चलाना यानी हर क्षेत्र में पुरुषों को मात देती हुई आगे बढ़ रही हैं। दूसरे शब्दों में कहें तो वे किसी भी क्षेत्र में पुरुषों से कम नहीं हैं। फिर भी वह अपने दम्भ में रहता है। वह स्त्री की बौद्धिकता को मन से स्वीकार नहीं करना चाहता। यदि वह उसके बौद्धिक गुण की प्रशंसा कर ले तो उसका मिथ्याभिमान आड़े आ जाता है। उसके झूठे अहं को ठेस लग जाती है।
पुरुष का यह दोगलापन ही कहा जा सकता है कि अपने मित्र के रूप में उसे एक आधुनिक नारी की तलाश रहती है जो मॉड हो, उसके साथ क्लब या पार्टी में जा सके। परन्तु जब पत्नी की बात आती है तो वह उसे घरेलू ही चाहिए होती है। वह स्वयं विवाहेतर सम्बन्ध चाहे बना ले पर उसकी पत्नी सीता या सावित्री ही होनी चाहिए। वह पत्नी से जब चाहे बेवफाई कर ले, उसे रोकने-टोकने वाला कोई नहीं होना चाहिए। कारण, वह खुदमुख्तार है, उस पर कोई अँगुली उठाने की धृष्टता कैसे कर सकता है? परन्तु यदि उसकी पत्नी से अज्ञानतावश भी कोई चूक हो जाए तो वह सहन नहीं कर पाता। स् समय उसकी अग्नि परीक्षा लेने के लिए कमर कसकर तैयार रहता है।
आजकल बहुत से युवा पुरुष इस बात को समझने लगे हैं कि स्त्रियों में योग्यता की कमी नहीं है। उन्हें तिरस्कृत करके, उन्हें नीचा दिखाकर काम नहीं चलेगा। उनके साथ कदम मिलाकर चलने में ही भलाई है। इसलिए वह उन्हें अपने सहयोगी के रूप में मानने लगा है। इसके साथ ही एकल परिवारों के चलते भी दोनों पति-पत्नी को मिलकर ही गृहस्थी की गाड़ी चलानी होती है। इसलिए चाहे मजबूरी से कहें या स्वेच्छा वे अब कुछ-कुछ समझौते करने लगे हैं।
यदि एक दूसरे को नीचा दिखाने का प्रयास किया जाता रहेगा तो सारा मूल्यवान समय बस उठा-पटक में ही व्यतीत होता रहेगा। ऐसे में कोई सकारात्मक कार्य नहीं हो सकेगा। इस उधेड़बुन के कारण किसी समस्या का कोई समाधान नहीं निकल सकेगा। स्त्री और पुरुष परस्पर सहयोग कर सकें तभी सफलता स्वयं दरवाजे तक चलकर आएगी।
चन्द्र प्रभा सूद
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