हमारा यह मानव जीवन समाप्त हो सकता है पर हमारे काम जीवनभर में कभी खत्म नहीं हो सकते। जब भी किसी कार्य को मनुष्य करने लगता है, तब सोचता है कि अब इसके बाद वह फ्री हो जाएगा। परन्तु ऐसा कभी हो नहीं पाता। इसका कारण है कि पहला कार्य अभी सम्पन्न नहीं हो पाता कि नई जिम्मेदारी उसकी बाट जोह रही होती है। मनुष्य एक बार फिर नए उत्साह से अपने उद्देश्य को पूरा करने के लिए जुट जाता है। इस प्रकार कोल्हू का बैल बना हुआ वह काम के बोझ तले दबा पिसता रहता है। उसे अपनी मनचाही जिन्दगी जीने का कभी अवसर ही नहीं मिल पाता।
घर-परिवार, बच्चों, बन्धु-बान्धवों, धर्म, समाज, नौकरी-व्यवसाय आदि के दायित्व उसे चक्करघिन्नी की तरह उसे गोल-गोल घूमाते रहते हैं। वह चाहकर भी अपने विषय में सोच नहीं पाता। अपनी इच्छानुसार जिन्दगी जीने के लिए तो समय निकलना ही पड़ता है। आर्थिक स्थिति कितनी भी अच्छी हो परन्तु जीवन का वास्तविक आनन्द लेने के लिए अपना मानस तैयार करना पड़ता है। मनुष्य की जिजीविषा कितनी भी प्रबल क्यों न हो, उसके लिए यदि प्रयास न किया जाए तो उसका कोई लाभ नहीं होता। उसकी जिम्मेदारियाँ उसे सदा अपने जाल में फँसाए रखती हैं। वे उसे इतना समय भी नहीं देतीं कि वह अपनी इच्छाओं को मूर्त रूप दे सके।
एक दृष्टान्त पर विचार करते हैं। एक फकीर किसी नदी के किनारे बैठे थे। उन्हें वहाँ बैठे देखकर किसी ने उनसे पूछा- "बाबा, आप यहाँ क्या कर रहे हो?"
फकीर बोले- "प्रतीक्षा कर रहा हूँ कि इस नदी का सारा पानी बह जाए तो फिर मैं इसे पार करूँ।"
उस व्यक्ति ने कहा- "कैसी बात कर रहे हो आप बाबा, यदि इसका पूरा जल बहने या नदी के खाली होने की प्रतीक्षा का करते रहोगे तो आप नदी को कभी पार ही नहीं कर सकोगे।"
फकीर ने बोले- "यही तो मै तुम सब लोगों को समझाना चाहता हूँ कि तुम लोग सदा कहते रहते हो कि एक बार मेरी जिम्मेदारियाँ पूरी हो जाएँ तो मौज करूँगा, घूमूँ-फिरूँगा, सबसे मिलूँगा, सेवा के कार्य करूँगा।"
अब मनन का विषय यह है कि नदी तो प्रवहणशील है, उसका जल कभी समाप्त नहीं हो सकता। इसलिए नदी को ही पार करने के लिए कोई-न-कोई उपाय मनुष्य को सोचना होता है। उसके लिए चाहे नदी को तैरकर पार किया जाए, उस पर पुल बनाया जाए अथवा नौका द्वारा इसे पार किया जाए। ऐसा कोई भी सार्थक उपाय किया जा सकता है, जिससे नदी को बिना कठिनाई के सुविधा से पार किया जा सकता है।
इसी प्रकार मनुष्य जीवन के कार्य भी तब तक समाप्त नहीं होते, जब तक उसकी जीवनलीला समाप्त नहीं हो जाती। जब मनुष्य आयुप्राप्त हो जाता है, उस समय उसके शरीर में इतनी शक्ति नहीं बचती कि वह कहीं घूमे-फिरे, प्रकृति का आनन्द ले और मौज-मस्ती कर सके। इस अवस्था में वह अपने दायित्वों से पूरी तरह मुक्त हो जाता है और समय की उसके पास कोई नहीं होती। चाहे उसके पास कितना ही पैसा हो, यह उसका दुर्भाग्य है कि अपना बीता हुआ समय वह किसी तरह की जोड़-तोड़ करके भी नहीं खरीद सकता।
जिस समय शरीर स्वस्थ है, उस वक्त थोड़ा-सा समय निकालकर जीवन का आनन्द लिया जा सकता है। अपनी जिम्मेदारियों से भी मुँह न मोड़ते हुए दो-चार दिन के लिए घूमने-फिरने के लिए थोड़ा-सा समय निकल लेना चाहिए। इससे मनुष्य रिफ्रेश हो जाता है। उसके शरीर में एक नई ऊर्जा का संचार हो जाता है। उसके बाद मनुष्य नए उत्साह से अपने दायित्वों को पूर्ण करने में जुट जाता है।
चन्द्र प्रभा सूद
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