मृत्यु एक अटल सत्य है। जो भी जीव इस मरणधर्मा संसार में जन्म लेता है उसकी मृत्यु निश्चित है। फिर भी इस मृत्यु से सभी डरते हैं। इसका कारण शायद यही है कि इस खूबसूरत दुनिया को छोड़कर कोई नहीं जाना चाहता। अथवा इसका अन्य कारण है कि पूरा जीवन हम अपनी इच्छा से, अपनी शर्तों से जीते हैं। जब मृत्यु का समय आता है या वह सामने खड़ी होती है तब मनुष्य को लगता है कि जिस काम के लिए उसने इस संसार में जन्म लिया था, उस कार्य को तो भूल गए।
संसार में आने से पहले माता के गर्भ में जीव अंधेरे और अकेलेपन से डरकर ईश्वर से वादा करता है कि मुझे इस अंधेरे से मुक्ति दो। संसार में जाकर तुम्हारा स्मरण करूँगा और मोक्ष प्राप्त करूँगा। इस संसार का आकर्षण मनुष्य को अपने जाल में फंसा लेता है। मनुष्य उस मकड़जाल में उलझकर इस दुनिया में मस्त होने लगता है। तब न उसे अपना किया हुआ वादा याद रहता है और न ही मौत। वह इस धरती पर स्वयं को तीसमारखाँ समझने की भूल कर बैठता है।
महाभारत के युद्ध में महान धनुर्धर अर्जुन अपने बन्धु-बन्धों को समक्ष देखकर भय के कारण शिथिल हो जाते हैं। तब योगेश्वर भगवान श्रीकृष्ण ने उन्हें गीता का उपदेश देकर यानी सांख्य योग के द्वारा इस शरीर और आत्मा के विषय में समझाया। उस ज्ञान को सुनकर और समझकर अर्जुन निर्भय बन गया था। उसका परिणाम कौरवों की पराजय और पाण्डवों की विजय के रूप में हम सबके समक्ष है। यह मृत्यु से न डरने का ही परिणाम कहा जा सकता है।
अपने अहं को जीवनभर पुष्ट करने वाला और किसी से न डरने वाले मनुष्य मृत्यु से शायद इसलिए डरता है कि उसने अपने प्राप्त किए गए समय का सदुपयोग नहीं किया होता। ईश्वर से जो उसने वादा किया होता है, वह भूल गया होता है। जब उसे अन्तकाल का सामना करना पड़ता है तब उसकी आँखों के सामने उसका सारा जीवन एक चलचित्र की भाँति घूम जाता है। उसे यह अहसास हो जाता है कि उसने वादा खिलाफी की है। अब सब कुछ सुधार ल्ने का उसका समय बीत गया है। उस समय एक पल की भी मोहलत उसे किसी भी शर्त पर नहीं मिल सकती।
मनुष्य अध्यात्म में रुचि ले और अपने सदग्रन्थों का अध्ययन करे। इसके साथ ही योगाभ्यास करे जिससे चित्त की वृत्तियों पर नियन्त्रण होता है। योगशास्त्र का कथन है-
योगश्च चित्तवृत्ति निरोध:।
इस प्रकार कर लेने से मनुष्य का आत्मिक बल बढ़ता है और वह निर्भय हो जाता है। तब वह किसी शस्त्र से नहीं डरता यानी उसके मन से मृत्यु का भय समाप्त हो जाता है। उसे भगवान कृष्ण की वाणी सदा स्मरण रहती है कि-
नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावकः।
न चैनं क्लेदयन्त्यापो न शोषयति मारुत:।।
अर्थात इस आत्मा को न शास्त्र काट सकते हैं, न अग्नि जला सकती है, न जल गीला कर सकता है और न वायु सुखा सकती है।
कहने का तात्पर्य यह है कि आत्मा पर इन भौतिक पदार्थों का कोई प्रभाव नहीं पड़ता। ये सभी पदार्थ केवल इस मरणधर्मा शरीर को प्रभावित करते हैं। इसलिए जो इस सत्य को जान लेता है वह निर्भय होकर संसार में विचरण करता है।
बहुत से महापुरुषों के बारे में हमने पढ़ा और सुना भी है कि उन्होंने देश, धर्म और समाज के लिए हँसते-हँसते अपने प्राणों की आहुति दे दी। इसका कारण है कि वे इस तत्त्व को जानते थे जानते थे कि यह शरीर नश्वर है। इसलिए उनके मन में मृत्यु का भय नहीं रह गया था। अतः मृत्यु से डरना अनावश्यक है। इस डर से मुक्त होकर जीवन व्यतीत करना चाहिए।
चन्द्र प्रभा सूद
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