वेद हम मनुष्यों को निर्देश देते हैं - ‘मनुर्भव’ अर्थात मनुष्य बनो। आप कह सकते हैं कि हम अच्छे भले मनुष्य हैं, इन्सान हैं। हमारे पास दो आँखें, दो कान, दो हाथ, दो पैर, सुन्दर-सा चेहरा हैं और फिर यह इन्सानी शरीर भी है। हम किसी भी तरह से पशुओं की भाँति नहीं दिखाई देते हैं, हम उनसे सर्वथा अलग हैं। तब फिर वेद को हम मनुष्यों को यह आदेश देने की आवश्यकता क्यों पड़ गई?
वास्तव में मनुष्य बनना बहुत ही कठिन कार्य है। मनुष्य को कुमार्गगामी होने में समय नहीं लगता। वह चोर-डाकू, भ्रष्टाचारी, बलात्कारी, दूसरों का गला काटने वाला, क्रूर, निर्दयी, अत्याचारी, आततायी आदि बनने में भी समय नहीं लगता। बस मनुष्य बनने में ही उसे बहुत कष्ट होता है।
केवल मनुष्य का जन्म ले लेने से वह मनुष्य नहीं बन जाता। मनुष्य बनने के लिए उसमे दया, ममता, करुणा, सहृदयता, दूसरों की परवाह करना आदि मानवोचित गुण होने चाहिए। उसे देश, धर्म और समाज के नियमानुसार कार्य करना चाहिए। उसमें परोपकार की भवन उसमे प्रबल रूप से होनी चाहिए। यह आवश्यक नहीं कि वह साधु-सन्यासी बन जाए अथवा जंगलों में जाकर तपस्या करता रहे। इस संसार में रहते हुए उसे सबके साथ मिलकर चलना चाहिए।
इन गुणों के न होने से मनुष्य दानव बन जाता है। उसे दूसरों को कष्ट देने, मार-काट करने से रत्ती भर भी परहेज नहीं होता। उसमें क्रूरता, घृणा, लूटपाट करना, हिंसा करना आदि दानवीय अवगुण आ जाते हैं। वे लोग देश, धर्म और समाज विरोधी गतिविधियों में अधिक लिप्त रहते हैं। ऐसे मानव किसी की प्रशंसा के पात्र नहीं होते। सभी लोग इनसे घृणा करते हैं। इनसे अपना सम्बन्ध विच्छेद करने से परहेज नहीं करते।
मनुष्य को अपने विवेक पर सदा ही भरोसा रखना चाहिए। हर कार्य को अपनी विवेक की कसौटी पर कस करके ही उसे क्रियान्वित करना चाहिए। यदि वह ऐसा करने का आदी हो सके तो हर प्रकार की बुराइयों से स्वयं को सरलता से बचाने में समर्थ हो सकता है। अन्यथा मात्र बहाने बनाकर, टालमटोल करके स्वयं को बचने का वह असफल प्रयास करेगा। इससे कोई हल नहीं निकल सकता।
मनुष्य का यह जीवन उसे बहुत कठिनता से मिलता है। मनीषी कहते हैं कि चौरासी लाख योनियों में भटकने के पश्चात् ही मनुष्य को यह मानव का जन्म मिलता है। जब मनुष्य के बहुत से शुभकर्मों का उदय होता है तब कहीं जाकर उसे यह मानव का चोला मिलता है। कहा जाता है कि अशुभ कर्मों की तुलना में जब शुभ कर्म अधिक होते हैं तभी मानव के रूप में जीव जन्म लेता है। वहाँ भी अपने कर्मों के अनुसार उसे सुख-समृद्धि आदि मिलते हैं अन्यथा उसे अभावों में अपना जीवन व्यतीत करन पड़ता है।
ईश्वर ने केवल मनुष्य को ही बुद्धि का उपहार दिया है। उसे अपनी बुद्धि का सदैव सदुपयोग करना चाहिए। यही बुद्धि मनुष्य को सृष्टि के शेष अन्य सभी जीवों से पृथक करती है। इसी बुद्धि के चमत्कार से मनुष्य सृष्टि के सभी जीवों को अपने वश में कर सकता है। इसी की बदौलत वह महान बन जाता है। अपनी इस विलक्षण बुद्धि का जो लोग दुरूपयोग करते हैं, वे अपने इस अमूल्य जीवन को बरबाद करते हुए जन्म-मरण के चक्र में फंसे रहते हैं।
मनुष्य को अपने अन्तस से आने वाली अन्तरात्मा की आवाज भी सुनने की आदत बनानी चाहिए। जिस कार्य को करने में अन्तर्मन गवाही दे या मन में उत्साह हो, उसे यत्नपूर्वक करना चाहिए। जिस कार्य को करते समय मन में शंका हो अथवा मन उत्साहरहित हो उन कार्यों को नहीँ करना चाहिए।
इतनी कठिनाइयों के पश्चात मिले इस अमूल्य जीवन को यूँ ही व्यर्थ गँवा देना कोई समझदारी नहीं है। इस मानव जीवन का पूर्णरूपेण सदुपयोग कर लेना चाहिए। अपने जीवनकाल में ऐसे कार्य कर लेने चाहिए जिससे अगला जन्म भी मनुष्य का ही मिले। किसी भी जीव को सताना, हत्या करना आदि दुष्कर्म नहीं करने चाहिए। उसके स्थान पर समाज के हितार्थ परोपकार के कार्य करने चाहिए। तभी मानव जीवन की सार्थकता कही जा सकती है।
चन्द्र प्रभा सूद
Email : cprabas59@gmail.com
Blog : http//prabhavmanthan.blogpost.com/2015/5blogpost_29html
Twitter : http//tco/86whejp