सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड को चलाने वाली सत्ता के विषय में हर इन्सान को जिज्ञासा रहती है। हमारे ग्रन्थ मानते हैं कि ईश्वर इस ब्रह्माण्ड का संचालन करता है। वही इसे बनाने और मिटाने वाला है। यानी जन्मदाता, पोषक और संहारक वही ईश्वर है। इसके विपरीत कुछ लोग इस ईश्वरीय सत्ता को चुनौती देते हुए उसके अस्तित्व को ही नकार देते हैं। वे मानते हैं कि ईश्वर नाम की कोई शक्ति नहीं है जो संसार को चलाती है। अलबत्ता 'कोई शक्ति सृष्टि को चलाती है' इसे मानने में उन्हें गुरेज नहीं होता।
संसार में मनुष्य जब जन्म लेता है तब से उसके मन में यह भाव बार-बार भरा जाता है कि उसे ईश्वर ने इस धरा पर भेजा है। इसलिए सदा उससे डरना चाहिए और उसकी पूजा-अर्चना करनी चाहिए। यानी ऐसा कहने और मानने वाले लोग परमपिता परमात्मा की सत्ता को स्वीकार करते हैं। अपने अच्छे-बुरे हर समय का उत्तरदायी उसे ही मानते हैं। अपने सभी कर्म उसे ही समर्पित करते हैं।
यदि उस ईश्वरीय सत्ता के अस्तित्व को हम स्वीकार कर लेते हैं तब कुछ ऐसे अनसुलझे प्रश्न मन को मथते रहते हैं। जैसे क्या ईश्वर है? यदि ईश्वर है तो उसका स्वरूप कैसा है? उसका रूप स्त्री का है या पुरुष का? किसने इस संसार की रचना की और क्यों की? इस संसार को चलाने वाला कौन है? यह संसार नष्ट क्यों हो जाता है?
हम कह सकते हैं कि ईश्वर है। जिस प्रकार लकड़ी को देखकर अग्नि का बोध नहीं होता, उसी तरह ब्रह्माण्ड को देखकर भी परमात्मा के होने का रहस्य समझ में नहीं आता। वह इस सृष्टि के कण-कण में विराजमान हैं। हर जीव में, प्रकृति की हर वस्तु में वह विद्यमान है। उसे मनुष्य इन भौतिक चर्म चक्षुओं से नहीं देख सकते। उसे देखने के लिए साधना करनी पड़ती है, तब वह दिखाई देता है।
उसका स्वरूप दिखाई नहीं देता। कुछ लोग उसे निराकार मानते हैं और कुछ उसे साकार मानकर, उसकी मूर्ति बनाकर उसकी पूजा करते हैं। वास्तव में सत्य यही है कि वह ईश्वर निराकार है और मात्र एक प्रकाशपुञ्ज है। उसे देख पाना बहुत ही कठिन कार्य है। सभी धर्मों का यही मानना है कि हर प्रकार की साधना के बाद उसका प्रकाश ही शेष रह जाता है।
वह न स्त्री है और न ही पुरुष। व्यक्ति की अपनी इच्छा है, वह चाहे जिस भी रूप में उसे माने। वैसे उसे जगज्जननी कहा जाता है। जैसे हर बच्चे का तार माँ से जुड़ा रहता है वैसे ही सभी जीवों का उस जगत माता से जुड़ाव होता है। भौतिक माता की तरह सभी उस माता से रूठते-मानते हैं, शिकवा-शिकायत करते हैँ, हर मनोकामना पूरी करने की प्रार्थना करते हैं। यानी यदि उसे माता मानकर उससे गुहार लगाएँ तो उसका फल शीघ्र मिलता है।
मन यह पहेली सुलझाना चाहता है कि इस सृष्टि की रचना करने की मालिक को क्या आवश्यकता थी? ऋग्वेद का नासदीय सूक्त इस विषय पर प्रकाश डालता है। जिस तरह कारण के बिना कोई कार्य नहीं हो सकता, उसी तरह यह संसार उस कारण के अस्तित्व का प्रमाण है। जब उसकी इच्छा हुई तब उसने इस सृष्टि की रचना की।
जब उस परमेश्वर ने सृष्टि को रचा तो उसका भरण-पोषण भी वही करता है। हर जीव को भेट भरने के लिए वह खाना देता है। वह हाथी जैसे विशालकाय और मच्छर जैसे छोटे सभी जीवों उनका भोज्य देता है। किसी को भी भूखा नही रखता। शेष जीव के अपने कृत कर्म होते हैं जिनके फलस्वरूप वह किसी भी प्रकार के कष्ट झेलने के लिए विवश होता है।
ईश्वर के स्वरूप के विषय वेदादि शास्त्र उसे 'नेति नेति' कहते हैँ। अर्थात ईश्वर यह भी नहीं हैं, यह भी नहीं है। सार रूप में मात्र इतना कह सकते हैं कि उसके रूप और गुणों का चित्रण इस मानव के वश की बात नहीं है। उस समय यह वाचाल वाणी बोलने नहीं सकती, हाथ कुछ लिख नहीं सकते। गूँगे के द्वारा खाए गए जैसे गुड़ की मिठास का वर्णन करना असम्भव होता है, उसी प्रकार मनुष्य की भी स्थिति होती है।
चन्द्र प्रभा सूद
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