शायद आपने उनका नाम नही सुना होगा । इसलिए शायद आप दुख मानना नही चाहेगे । वैसे किसी मृत्यु पर हमे दुख मानना चाहिए भी नही, लेकिन इसान का स्वभाव है कि वह अपने स्नेही या पूज्य के मरने पर दुख मानता ही है। हम लोग ऐसे बने है कि जो अपने काम की डुग्गी पिटवाता फिरता है और राज्य- कारण मे उछाले भरता है, उसको तो हम आसमान पर चढा देते है, लेकिन मूक काम करनेवालो को नही पूछते ।
बीज ऐसे ही एक मूक कार्यकर्त्ता थे । उनका जन्म गोवा मे हुआ था । जन्म से वह हिंदू थे, पर उनको ऐसा विश्वास बैठ गया था कि बौद्ध धर्मं मे अहिंसा, शील आदि जितने बढे - चढे है, उतने दूसरे धर्म मे, वेद-धर्म मे भी नही है । इसलिए उन्होने बौद्ध धर्म स्वीकार किया और बौद्ध शास्त्रो के अध्ययन में लग गये और उसमे इतने बडे विद्वान हो गये कि शायद ही हिदुस्तान मे उनकी बराबरी का और कोई हो । उन्होन गुजरात विद्यापीठ व काशी विद्यापीठ में पाली भाषा पढाई और अपनी अगाध विद्वत्ता का ज्ञान - दान किया था । उन्होने मेरे पास १०००) भेज दिये, जो उन्होने मुझको लिखा था दिये थे । उन्होंने मुझे लिखा था कि किसी - को पाली पढने के लिए लका भेज देना । लेकिन मैंने उनसे पूछा कि क्या लका जाकर पढने से किसीको बौद्ध धर्म प्राप्त हो जायगा ? मैने तो दुनिया मे बौद्धो से कहा है कि आपको अगर बौद्ध धर्म जानना है तो आप उसके जन्म-स्थान भारत में ही उसे पायेगे। जहापर वेद-धर्म से वह निकला है, वही आपको उसे खोजना है और शकराचार्य - जैसे अद्वितीय विद्वान्, जो प्रच्छन्न बुद्ध कहलाये, उनके ग्रंथो को भी आप समझेगे तब बौद्ध धर्म का गूढ रहस्य आप जान पायेगे ।
लेकिन कौसीजी की विद्वत्ता से मैं अपनी तुलना नही कर सकता। मैं तो इग्लैंड मे भोज खाकर बना हुआ बैरिस्टर हू । मेरे पास संस्कृत का ज्ञान जरा-सा है। अगर आज में महात्मा बना हू तो इसलिए नही कि अग्रेजी का बैरिस्टर हू, पर इसलिए कि मैने सेवा की है और वह सेवा, सत्य और अहिसा के द्वारा की है। इस सत्य और अहिसा की पूजा मे जो थोडी-सी सफलता मुझे मिलती चली गई उसीके कारण आज मेरी थोडी-बहुत पूछ है ।
कसबीजी की समझ में यह समा गया कि अब यह शरीर अधिक काम करने के योग्य नही रहा है तो उन्होने अन- शन करके प्राण त्याग करने की ठानी। टडनजी के कहने पर मैने उनका अनशन उनकी ( कौसबीजी की ) अनिच्छा से छुडवाया, पर उनका हाजमा बहुत खराब हो चुका था और कुछ भी खुराक ले ही नही सकते थे । तब दुबारा सेवाग्राम मे चालीस दिन तक केवल जल पर ही रहकर उन्होने शरीरात किया । बीमारी मे नाममात्र की सेवा और औषधि भी नही ली । जन्म- स्थान गोवा में जाने का मोह भी उन्होने तजा और अपने पुत्र आदि को अपने पास न आने की आज्ञा दी । मृत्यु के बाद के लिए कह गये, मेरा कोई स्मारक न बनाया जाय । शरीर को जलाने या दफनाने मे जो सस्ता पडे वह किया जाय और इस तरह उन्होने बुद्ध का नाम रटते रटते अतिम गहरी निद्रा ली, जो हरेक जन्मनेवाले को कभी-न-कभी लेनी ही है । मृत्यु हरेक का परम मित्र है, वह अपने कर्म के अनुसार आवेगा ही । भले ही कोई यह बता दे कि अमुक का जन्म अमुक समय होगा, पर मौत कब आवेगी, यह कोई भी आज तक नही बता पाया है । "
प्रोफेसर कौसबीजी जो बडे विद्वान थे और पाली भाषा मे अग्रगण्य माने जाते थे, वह सेवाग्राम आश्रम मे चल बसे । उनके बारे मे वहा के सचालक बलवर्तासिह का पत्र है, जिसमे कहा गया है कि ऐसी मृत्यु आज तक मैने नही देखी। यह तो बिल्कुल ऐसी, • हुई जैसी कबीरजी ने बताई है।
दास कबीर जतन सों ओढ़ी ।
ज्यो-की-त्यों धर दीनी चदरिया ||
इस तरह हम सभी लोग मृत्यु की मैत्री साध ले तो हिन्दुस्तान का भला ही होने वाला है ।