लार्ड हार्डिज ने डाक्टर रवीद्रनाथ ठाकुर को एशिया के महाकवि की पदवी दी थी, पर अब रवीद्रबाबू न सिर्फ एशिया के बल्कि ससार भर के महाकवि गिने जा रहे है । उनके हाथ से भारतवर्ष की सबसे बडी सेवा यह हुई है कि उन्होने अपनी कविता द्वारा भारतवर्ष का सदेश ससार को सुनाया है । इसीसे रवीद्रबाबू को सच्चे हृदय से इस बात की चिता है कि भारतवासी भारत माता के नाम से कोई झूठा या सारहीन सदेशा ससार को + सुनावे | हमारे देश का नाम न डूबने पावे, इस बात की चिता करना रवीद्रबाबू के लिए स्वाभाविक ही है ।"
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शांतिनिकेतन मे आगमन मेरे लिए एक तीर्थ-यात्रा के समान था । बहुत दिनो से मेरी इच्छा वहा जाने की थी, लेकिन यह अवसर मलिकदा जाते समय ही मुझे मिल सका। मेरे लिए शातिनिकेतन नया नही है । १९१५ मे जब इसकी रूपरेखा बन रही थी तब मैं वही था । इसका मतलब यह नही कि अब इसका निर्माण क्रम रुक गया है। गुरुदेव खुद विकसित हो रहे है। वृद्धा- वस्था के कारण उनके मन के लचीलेपन मे कोई अंतर नही पड़ा है । इसलिए जबतक गुरुदेव की भावना की छाया उसके ऊपर है तबतक शातिनिकेतन की वृद्धि रुक नही सकती । वहा प्रत्येक मनुष्य की उनके प्रति जो श्रद्धा है वह ऊपर उठानेवाली है, क्योकि वह सहज है । मुझे तो इसने अवश्य ही ऊचा उठाया । कृतज्ञा छात्रो और अध्यापको ने उनको 'गुरुदेव' की जो उपाधि दे रखी है उससे शातिनिकेतन में उनकी स्थिति ठीक-ठीक व्यक्त होती है । यह स्थिति उनकी इसलिए है कि वह उस स्थान और वहा के समूह मे निमग्न हो गये है, अपनेको भूल गये है । मैने देखा कि वह अपनी प्रियतम कृति 'विश्व भारती' के लिए जी रहे है । वह चाहते है कि यह फूले-फले और अपने भविष्य के विषय मे निश्चित हो जाय । इस - के बारे में उन्होने मुझसे देर तक बातचीत की। लेकिन इतना भी उनके लिए काफी नही था, इसलिए जब हम विदा हो रहे थे तब उन्होने मुझे नीचे लिखा बहुमूल्य पत्र दिया
प्रिय महात्माजी,
आपने आज सुबह ही हमारे कार्य के 'विश्व भारती' - केद्र का विहगावलोकन किया है। मैं नही जानता कि आपने इसकी मर्यादा का क्या अदाज लगाया है। आप जानते है कि यद्यपि अपने वर्त मान रूप में यह सस्था राष्ट्रीय है, तथापि अत भावना की दृष्टि से यह एक सार्वदेशिक -- अंतर्राष्ट्रीय - सस्था है और अपने साधनो के अनुसार भरसक शेष जगत को भारत की संस्कृति का आतिथ्य प्रदान करती है ।
एक बडे गाढे अवसर पर आपने बिल्कुल टूटने से इसे बचाया और अपने पाव पर खडे होने मे इसकी सहायता की। आपके इस मित्रतापूर्ण कार्य के लिए हम आपके निकट सदा आभारी है ।
और अब शातिनिकेतन से आपके विदा होने के पहले मै आपसे जोरदार अपील करता हू कि यदि आप इसे एक राष्ट्रीय संपत्ति समझते है तो इस सस्था को अपने सरक्षण मे लेकर इसे स्थायित्व प्रदान करे । 'विश्व भारती' उस नौका के समान है, जो मेरे जीवन के सर्वोत्तम रत्नो से भरी हुई है और मुझे आशा है कि अपनी रक्षा के लिए अपने देशवासियों से यह विशेष देख-रेख पाने का दावा कर सकती है ।
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प्रेमपूर्वक — रवीद्रनाथ ठाकुर
इस सस्था को अपने सरक्षण मे लेनेवाला मै कौन होता हू चूकि यह एक ईमानदार आत्मा की कृति है, इसलिए ईश्वर का संरक्षण इसके साथ है । वह कोई दिखावे की चीज नही है । गुरुदेव स्वय सार्वदेशिक -- अतर्राष्ट्रीय - है, क्योकि वह सच्चे रूप मे राष्ट्रीय है । इसलिए उनकी सपूर्ण कृतिया सार्वदेशिक है और 'विश्व भारती' उन सबमे श्रेष्ठ है । मुझे इसमे किसी तरह का सदेह नही कि जहातक आर्थिक बोझ का संबध है इसके भविष्य बारे मे गुरुदेव को पूर्ण चिता से मुक्त कर देना चाहिए। उनकी हृदयग्राही अपील के जवाब मे जो कुछ सहायता करने लायक मै हू, करने का मैने उनको वचन दिया है । "
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यहा आप लोगो के लिए कोई अतिथि या महमान बन- कर नही आया हू । शातिनिकेतन तो मेरे लिए घर से भी अधिक है । जब १९१४ मे मै इग्लैण्ड से लौटनेवाला था तब यही तो मेरे दक्षिण अफ्रीकावाले कुटुब का प्रेमपूर्वक आतिथ्य हुआ था और यहा मुझे भी करीब एक महीने तक आश्रय मिला था । जब आप सब लोगो को अपने सामने एकत्र देखता हू तो उन दिनो की याद मेरे हृदय पर छा जाती है। मैं कितना चाहता हू कि यहा ज्यादा दिन ठहरू, पर अफसोस कि यह सभव नही । यहा कर्तव्य का प्रश्न है । उस दिन एक मित्र को एक पत्र में मैंने लिखा था कि शातिनिकेतन और मलिकंदा की यह यात्रा मेरे लिए तीर्थ-यात्रा है । सचमुच इस बार शातिनिकेतन मेरे लिए 'शाति का निकेतन' सिद्ध हुआ । मै यहा राजनीति की सब चिता और झझट छोडकर मात्र गुरुदेव के दर्शन और आशीर्वाद लेने आया हू । मैने अक्सर एक कुशल भिक्षुक होने का दावा किया है । लेकिन आज गुरुव का मुझे जो आशीर्वाद मिला है उससे बढकर दान मेरी झोली मे कभी किसीने नही डाला है। मैं जानता हू कि उनका आशीर्वाद तो मुझे हमेशा ही है। मगर आज मेरा खास सौभाग्य है कि उन्हीके हाथो रूबरू मुझे आशीर्वाद मिला और इस कारण मेरे हर्ष का पार नही ।
डा० रवीद्रनाथ टैगोर के निधन मे हमने न केवल अपने युग के सबसे बड़े कवि को ही, बल्कि एक उत्कट राष्ट्रवादी को, जो कि मानवता का पुजारी भी था, खो दिया है। शायद ही कोई ऐसी सार्वजनिक प्रवृत्ति होगी, जिसपर उनके शक्तिशाली व्यक्तित्व की छाप न पडी हो । शातिनिकेतन और श्रीनिकेतन के रूप में उन्होने समस्त राष्ट्र के लिए ही नही अपितु समस्त ससार के लिए विरासत छोडी है ।
गुरुदेव की देह खाक मे मिल चुकी है, लेकिन उनके अदर जो जोत थी, जो उजेला था, वह तो सूरज की तरह था, जो तबतक बना रहेगा जबतक धरती पर जानदार रहेगे । गुरुदेव ने जो रोशनी फैलाई वह आत्मा के लिए थी। सूरज की रोशनी जैसे हमारे शरीर को फायदा पहुचाती है, वैसे गुरुदेव की फैलाई रोशनी ने हमारी आत्मा को ऊपर उठाया है। वह एक कवि थे और प्रथम श्रेणी के साहित्यिक थे । उन्होने अपनी मातृभाषा मे लिखा और सारा बगाल उनकी कविता के झरने से काव्य - रस का गहरा पान कर सका। उनकी रचनाओ के अनुवाद बहुत-सी भाषाओं मे हो चुके है। वह अग्रेजी के भी बहुत बड़े लेखक थे और शायद बिना अग्रेजी जाने ही वह उस जबान के इतने बड़े लेखक बन गये थे । मदरसे की पढाई तो उन्होने की थी, लेकिन यूनिवर्सिटी की कोई टैगोर की क्या बात । उन्होने क्या नही साधा साहित्य का एक भी क्षेत्र उन्होने छोडा है ? और सबमे कमाल | ऐसी अलौकिक शक्तिवाला आदमी हमारे यहा तो है हीं नही, लेकिन दुनिया में भी होगा या नही, इसमे मुझे शक है।
गुरुदेव की देह खाक मे मिल चुकी है, लेकिन उनके अदर जो जोत थी, जो उजेला था, वह तो सूरज की तरह था, जो तबतक बना रहेगा जबतक धरती पर जानदार रहेगे । गुरुदेव ने जो रोशनी फैलाई वह आत्मा के लिए थी। सूरज की रोशनी जैसे हमारे शरीर को फायदा पहुचाती है, वैसे गुरुदेव की फैलाई रोशनी ने हमारी आत्मा को ऊपर उठाया है। वह एक कवि थे और प्रथम श्रेणी के साहित्यिक थे । उन्होने अपनी मातृभाषा मे लिखा और सारा बगाल उनकी कविता के झरने से काव्य - रस का गहरा पान कर सका। उनकी रचनाओ के अनुवाद बहुत-सी भाषाओं मे हो चुके है। वह अग्रेजी के भी बहुत बड़े लेखक थे और शायद बिना अग्रेजी जाने ही वह उस जबान के इतने बड़े लेखक बन गये थे । मदरसे की पढाई तो उन्होने की थी, लेकिन यूनिवर्सिटी की कोई डिग्री उन्होने नही ली थी।
वह तो बस गुरुदेव ही थे । हमारे एक वाइसराय ने उनको 'एशिया का कवि' कहा था। उससे पहले किसी को ऐसी पदवी नही मिली थी। वह समूची दुनिया के भी कवि थे । यही क्यो, वह तो ऋषि थे । हमारे लिए वह अपनी ' गीताजलि' छोड गये है, जिसने उनको सारी दुनिया में मशहूर कर दिया। तुलसी- दासजी हमारे लिए अपनी अमर रामायण छोड गये है । वेदव्यास- जी ने महाभारत के रूप मे हमारे लिए मानव जाति का इतिहास छोड़ा है। ये सब निरे कवि नही थे । ये तो गुरु थे । गुरुदेव ने भी सिर्फ कवि के नाते ही नही, ऋषि की हैसियत से भी लिखा है । लेकिन सिर्फ लिखना ही उनकी अकेली खासियत नही थी । वह एक कलाकार थे, नृत्यकार थे और गायक थे । बढिया से बढिया कला मे जो मिठास और पवित्रता होनी चाहिए, वह सब उनमे और उनकी चीजो मे थी। नई-नई चीजे पैदा करने की उनकी ताकत ने हमको शातिनिकेतन, श्रीनिकेतन और विश्व भारती जैसी सस्था दी है । अपनी इन सस्थाओ मे वह भावरूप से विराज- मान है, और ये अकेले बगाल को ही नही, बल्कि समूचे हिदुस्तान को उनकी विरासत के रूप में मिली है। शातिनिकेतन तो हम सबके लिए असल मे यात्रा का एक धाम ही बन गया है। गुरुदेव अपने जीतेजी इन सस्थाओ को वह रूप नही दे पाये, जो वह देना चाहते थे, जिसका वह सपना देखते थे। कौन है, जो ऐसा कर पाया हो ? आदमी के मनोरथ को पूरा करना तो भगवान के हाथ में है । फिर भी ये सस्थाए हमे उनकी कोशिशो की याद दिलावेगी और हमेशा हमको यह बताती रहेंगी कि गुरुदेव के मन मे अपने देश के लिए कितनी गहरी प्रीति थी और उन्होने उसकी कितनी- कितनी सेवाए की है । "