सरदार वल्लभभाई पटेल के साथ रहना मेरा बडा सौभाग्य 'था । उनकी अनुपम वीरता से मैं अच्छी तरह परिचित था, परतु पिछले १६ महीने मे जिस प्रकार रहा, वैसा सौभाग्य मुझे कभी नही मिला था । जिस प्रकार उन्होने मुझे स्नेह से ढक लिया, वह मुझे मेरी मा की याद दिलाता है। मैं यह कभी नही जानता था कि उनमे मा के गुण भी है । . बारदोली और खेडा के किसानों के लिए उनकी चिता में कभी नही भूल सकता । "
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सरदार वल्लभभाई हँसी मे कहा करते थे कि उनके हाथ की रेखाओ मे जेल की रेखा नही है । उन लोगो के लिए जेल है ही नही, जिनके मन मे जेल महल के समान है और जो जेल और महल कोई भेद नही समझते । जहा आज सरदार विराजे है, वहा हम सबको जाना है, पर बिना योग्यता प्राप्त किये जेल नही मिलती । सरदार वल्लभभाई की अमूल्य सेवाओ के हम पात्र थे या नही, इसे प्रमाणित करने का अवसर अब आ गया है। उन्हें गुजरात से आशा क्यो न हो ? उन्होने मजदूरो की सेवा मे कौन कमी रखी है ?
डाकवालों और रेलवे के नौकरो ने उनके पास बैठकर स्वराज्य का पाठ कौन कम पढा है ? अहमदाबाद का ऐसा कौन नागरिक है जो नही जानता कि उन्होने अपना सर्वस्व होम कर शहर की सेवा की है ? शहर में जब भीषण महामारी फैली थी, उन दिनो गरीबों की सेवा का इतजाम करनेवाला कौन था ? वल्लभभाई | अकाल पड़ने पर अकाल पीडितो की मदद के लिए दौड पडनेवाला कौन था ? वल्लभभाई । गुजरात में ऐतिहासिक बाढ आई, लाखों लोग घरबारविहीन बन गये, खेतो की फसल बह गई । उस समय सारे गुजरात का सकट टालने के लिए सैकडो स्वयसेवको को तैयार करनेवाला, लोगो के लिए एक करोड रुपये सरकार के खजाने से निकलवानेवाला कौन था ? वल्लभभाई ही । और वह भी वल्लभभाई ही थे, जिन्हें बारदोली की जीत के लिए ऋणी जनता ने सरदार कहकर पुकारा और जो संपूर्ण स्वराज्य की आखिरी लड़ाई के लिए जनता को तैयार कर रहे थे । वल्लभभाई तो अपने कर्तव्य का पालन करते हुए जेल पहुच गये । अब हमें क्या करना चाहिए ? इस सवाल का एक जवाब तो साफ ही है। हम हिम्मत न हारे, उलटे हममे से हरएक दुगुनी दृढता और दुगुनी हिम्मत के साथ सविनय - भग के लिए तैयार हो जाय और जेल की, या मौत मिले तो मौत की राह पकड़ ले। सरदार के जाने के बाद अब रहनुमा कौन होगा? इस तरह का नामर्दी से भरा हुआ सवाल कोई अपने मन मे न उठने दे । • जिसे सविनय -भग करना है, उसके पास आज बहुतेरे साधन पड़े हुए है और सरकार नये-नये साधन पैदा कर रही है । जैसे हमारे लिए यह जीवन-मरण का खेल है, वैसे ही सरकार के लिए भी है। मालूम होता है कि उसकी हस्ती का आधार ही स्वतंत्र स्वभाव के मनुष्यो को दबाने पर है, नही तो वह वल्लभभाई के समान शाति, रक्षा के लिए प्रसिद्ध आदमी को क्यों पकडती ?
सरदार के लिए सब समान है, एक नन्हा बालक भी इसे जाता है । उन्हे तो गरीब मात्र की सेवा करनी है। फिर भले ही भगी हो या ब्राह्मण, गुजराती हो या मद्रासी, राष्ट्र ने उनकी इस विशेषता को पहचाना और पहचानकर राष्ट्रपति बनाया ।"सरदार मेरे सगे भाई के समान है, तथापि इतना प्रमाण पत्र देते हुए मुझे जरा भी सकोच नही होता । "
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वल्लभभाई अरबी घोडे की तेजी से दौड़ रहे है । संस्कृत की किताब हाथ से छूटती ही नही । इसकी मुझे आशा नही थी ! - लिफाफो मे तो कोई उनकी बराबरी नही कर सकता । लिफाफे वह नापे बिना बनाते है और अदाज से काटते है, मगर बराबर के निकलते है और फिर भी ऐसा नही लगता कि इसमे बहुत समय लगता है । उनकी व्यवस्था आश्चर्यजनक है। जो कुछ करना हो उसे याद रखने के लिए छोडते ही नही । जैसे आया वैसे ही कर डाला । कातना जब से शुरू किया है, तब से बराबर समय पर कातते है । इस तरह सूत मे और गति में रोज सुधार होता जा रहा है । हाथ में लिया हुआ भूल जाने की बात तो शायद ही होती है । और जहा इतनी व्यवस्था हो, वहा घाधली तो हो ही कैसे ?
कई मुसलमान दोस्तो ने शिकायत की थी कि सरदार का रुख मुसलमानो के खिलाफ है। मैने कुछ दु ख से उनकी बात सुनी, मगर कोई सफाई पेश न की । उपवास शुरू होने के बाद मैने अपने ऊपर जो रोक-थाम लगाई हुई थी वह चली गई । इसलिए मैने टीकाकारों को कहा कि सरदार को मुझसे और पंडित नेहरू से अलग करके और मुझे और पंडित नेहरू को खामख्वाह आसमान पर चढाकर वे गलती करते है ।
इससे उनको फायदा नही पहुच सकता । सरदार के बात करने के ढग में एक तरह का अक्खडपन है, जिससे कभी-कभी लोगो का दिल दुख जाता है, अगरचे सरदार का इरादा किसीको दुखी बनाने का नही होता। उनका दिल बहुत बडा है । उसमें सबके लिए जगह है । सो मैने जो कहा, उसका मतलब यह था कि अपने जीवन भर के वफादार साथी को एक बेजा इलजाम से बरी कर दू । मुझे यह भी डर था कि सुननेवाले कही यह न समझ बैठे कि मैं सरदार को अपना 'जी हुजुर' मानता हू । सरदार को प्रेम से मेरा 'जी हुजूर' कहा जाता था । इसलिए मैने सरदार की तारीफ • करते समय कह दिया कि वह इतने शक्तिशाली और मन के मज़बूत है कि वह किसीके 'जी हुजूर' हो ही नही सकते । जब वह मेरे 'जी हुजूर' कहलाते थे तब वह ऐसा कहने देते थे, क्योकि जो कुछ मै कहता था वह अपने-आप उनके गले उतर जाता था । वे अपने क्षेत्र मे बहुत बड़े थे । अहमदाबाद म्युनिसिपैलिटी में उन्होने शासन चलाने मे बहुत काबलियत बताई थी। मगर वह इतने नम्र थे कि उन्होने अपनी राजनैतिक तालीम मेरे नीचे शुरू की। उन्होने उसका कारण मुझे बताया था कि जब मै हिदुस्तान में आया था उन दिनो जिस तरह का राज-काज हिदुस्तान में चलता था, उसमें हिस्सा लेने का उन्हें मन नही होता था। मगर अब जब सत्ता उनके गले आ पडी तब उन्होने देखा कि जिस अहिसा को वह आजतक सफलतापूर्वक चला सके अब वह नही चला सकते । मैने कहा है कि मैं समझ गया हू कि जिस चीज को मै और मेरे साथी अहिसा कहा करते थे वह सच्ची अहिंसा न थी । वह तो नकली चीज थी और उसका नाम है निष्क्रिय प्रतिरोध । हा, किनके हाथो में निष्क्रिय प्रतिरोध किसी काम की चीज है ? जरा सोचिये तो सही कि एक कमजोर आदमी जनता का प्रतिनिधि बने तो वह अपने मालिको की हँसी और बेइज्जती ही करवा सकता है। मै जानता हू कि सरदार कभी उन्हे सौपी हुई जिम्मेदारी को दगा नही दे सकते । वे उसका पतन बर्दाश्त नही कर सकते।'