सबसे पहले सन् १९१५ मे मै अब्बास तैयबजी से मिला था । जहा की मै गया, तैयबजी - परिवार का कोई-न-कोई स्त्री-पुरुष मुझसे आकर जरूर मिला । ऐसा मालूम पडता है, मानो इस महान् और चारो तरफ फैले हुए परिवार ने यह नियम ही बना लिया था । हमारे बीच इस अटूट सबध का खास कारण क्या था ? सिवा इसके मुझे और कुछ मालूम नही कि जिस सुप्रतिष्ठित न्यायाधीश के कारण यह वंश प्रसिद्ध है उससे सन् १८९० मे मेरी मित्रता हो गई थी, जबकि मै दक्षिण अफ्रीका से हिदुस्तान वापस आया था और बिल्कुल अनजान व्यक्ति था । कुछ लोगो के विचार मे तो मै सभवत एक दुःसाहसी आदमी था, लेकिन बदरुद्दीन तैयबजी और कुछ अन्य व्यक्ति ऐसे भी थे, जिनका यह खयाल नही था ।
मगर मुझे तो बडौदा के अब्बास मिया के विषय पर ही आना चाहिए । जब हम एक-दूसरे से मिलते और मै उनके मुह की ओर देखता तो मुझे स्व ० जस्टिस बदरुद्दीन तैयबजी का स्मरण हो आता था । हमारी उस मुलाकात से हमारे बीच जन्म-भर के लिए मित्रता की गाठ बध गईं । मैने उन्हें हरिजनो का मित्र ही नही, बल्कि उन्ही का एक पाया । बहुत दिन पहले गोधरा मे, शाम को हरिजनो की बस्ती मे होनेवाले एक अस्पृश्यता विरोधी - सम्मेलन मे जब मैने उन्हे बुलाया तो दर्शको को बड़ा आश्चर्य हुआ, लेकिन अब्बास मिया ने हरिजनो के काम मे उसी उत्साह से भाग लिया, जैसे कोई कट्टर हिंदू ले सकता है । इतने पर भी वह कोई साधारण मुसलमान नही थे । इस्लाम के लिए उन्होने मुक्तहस्त से दान दिया और कई मुस्लिम सस्थाओ को वह सहायता देते रहते थे । मगर हरिजनो को मुसलमान बनाने जैसा कोई विचार उनके मन मे नही था। उनके इस्लाम मे भूमडल के तमाम महान् धर्मो के लिए गुजाइश थी । इसीलिए अस्पृश्यता - विरोधी आंदोलन में वह हिंदुओ की ही तरह उत्साहपूर्वक भाग लेते थे, और मैं जानता हू कि जबतक वह जिदा रहे तबतक उनका यह उत्साह बराबर वैसा ही बना रहा ।
असल बात यह है कि उन्होने आधे मन से कभी कोई काम नही किया । अब्बास तैयबजी अपने मन मे कोई बात छिपा कर नही रखते थे । पजाब की पुकार का उन्होने तत्क्षण जवाब दिया । उनकी आयु के और ऐसे व्यक्ति के लिए, जिसने जीवन में कभी कोई मुसीबत नही झेली, जेलो की सख्तिया बर्दाश्त करना कोई मजाक नही था । लेकिन उनकी श्रद्धा ने हरेक कठिनाई को विजय कर लिया । हँसते-हँसाते खेडा के किसानो की तरह ही सादा जीवन व्यतीत करते, उन्हीका - सा खाना खाते और सब मौसमो
उन्ही रद्दी सी गाडियो मे सफर करने की क्षमता से अनेक नौजवानो को उनके सामने शर्मिंदा होना पडा । ऐसी असुविधाओ के बारे मे, जिन्हे कि बचाया जा सकता हो, मैने उनको कभी शिकायत करते हुए नही सुना । "क्यो ? " का प्रश्न करना उनका काम नही था, वह तो काम करने और अपनेको झोक देने की बात जानते थे । हालाकि एक समय चीफ जज की हैसियत से उन्हे किसीको मृत्युदण्ड देने और अपनी आज्ञा-पालन कराने की सत्ता प्राप्त थी, फिर भी बिना किसी उम्र के अनुशासन पालन करने की आश्चर्यजनक क्षमता उन्होने प्रदर्शित की। वह मनुष्य जाति के विरले सेवको में से थे । भारत सेवक भी वह इसीलिए थे कि वह मनुष्य जाति के सेवक थे। ईश्वर को वह दरिद्र नारायण के रूप में मानते थे । उनका विश्वास था कि परमेश्वर दीन-दुखियो के बीच ही रहता है | अब्बास मिया का शरीर यद्यपि इस समय कब्र मे विश्राम कर रहा है, पर वह मरे नही है । उनका जीवन हम सबके लिए एक स्फूर्ति है, एक प्रेरणा है ।