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अध्याय 21: श्रीमद् राजचंद्रभाई

16 अगस्त 2023

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में जिनके पवित्र सस्मरण लिखना आरंभ करता हूं, उन स्वर्गीय राजचद्र की आज जन्मतिथि है । कार्तिक पूर्णिमा संवत् १९७९ को उनका जन्म हुआ था ।

मेरे जीवन पर श्रीमद्राजचद्र भाई का ऐसा स्थायी प्रभाव पडा है कि मै उसका वर्णन नही कर सकता । उनके विषय मे मेरे गहरे विचार है । मैं कितने ही वर्षो से भारत में धार्मिक पुरुषो की शोध मे हू, परंतु मैने ऐसा धार्मिक पुरुष भारत मे अबतक नही देखा, जो श्रीमद् राजचद्रभाई के साथ प्रतिस्पर्धा कर सके । उनमे ज्ञान, वैराग्य और भक्ति थी, ढोग, पक्षपात या राग-द्वेष न थे । उनमे एक ऐसी महान शक्ति थी, जिसके द्वारा वह प्राप्त हुए प्रसग का पूर्ण लाभ उठा सकते थे। उनके लेख अग्रेज तत्व-ज्ञानियो की अपेक्षा भी विलक्षण, भावनामय और आत्मदर्शी है। यूरोप के . तत्वज्ञानियो मे मै टाल्स्टाय को पहली श्रेणी का और रस्किन को दूसरी श्रेणी का विद्वान् समझता हू, परतु श्रीमद् राजचद्रभाई का अनुभव इन दोनो से भी बढा-चढा था । इन महापुरुषो के जीवन के लेखो को अवकाश के समय पढेगे तो आप पर उनका बहुत अच्छा प्रभाव पडेगा । वह प्राय कहा करते थे कि मैं किसी बाड़े का नही हू और न किसी बाड़े मे रहना ही चाहता हू। यह सब तो उपधर्म - मर्यादित -- है और धर्म तो असीम है कि जिसकी व्याख्या हो ही नही सकती । वह अपने जवाहरात के धधे से विरक्त होते कि तुरत पुस्तक हाथ में लेते । यदि उनकी इच्छा होती तो उनमे ऐसी शक्ति थी कि वही एक अच्छे प्रतिभाशाली बैरिस्टर, जज या वाइसराय हो सकते थे । यह अतिशयोक्ति नही, कितु मेरे मन पर उनकी छाप है । इनकी विचक्षणता दूसरे पर अपनी छाप लगा देती थी ।

 जिनका पुण्य स्मरण करने के लिए हम लोग आये हुए है, उनके हम लोग पुजारी है। मै भी उनका पुजारी हू । वह दयाधर्म  की मूर्ति थे । उन्होने दयाधर्म समझा था और उसे अपने जीवन में उतारा था। मैने यह बहुत बार कहा और लिखा कि मैने अपने जीवन में बहुतो से बहुत कुछ ग्रहण किया है । पर सबसे अधिक यदि मैने किसीके जीवन मे से ग्रहण किया हो तो वह कविश्री ( श्रीमद्राजचद्र) के जीवन मे से ग्रहण किया हैं । दया-धर्म भी मैने उन्हीके जीवन मे से सीखा है ।

बहुत से प्रसगो मे तो हमे जड होकर वैसी ही प्रवृत्ति करनी चाहिए। शुद्ध जड और चैतन्य मे भेद नही के बराबर है । सारा जगत जड रूप ही दीख पडता है । आत्मा तो कभी क्वचित् ही प्रकाशित होता है । ऐसा व्यवहार अलौकिक पुरुषो का होता है और यह मैने देखा है कि ऐसा व्यवहार श्रीमद्राजचद्रभाई का था ।

वह बहुत बार कहा करते थे कि मेरे शरीर मे चारो ओर से कोई बरछी भोक दे तो मैं उसे सह सकता हू, पर जगत मे जो झूठ, पाखड, अत्याचार चल रहा है, धर्म के नाम से जो अधर्म हो रहा उसकी बरछी मुझसे सही नही जाती । अत्याचारो से उन्हे अकुलाते मैने बहुत बार देखा है । वह सारे जगत को अपने कुटुब के जैसा समझते थे । अपने भाई या बहन की मौत से जितना दुख हमे होता है उतना ही दुख उन्हे ससार मे दु ख और मृत्यु देखकर होता था ।

राजचद्रभाई का शरीर जो इतनी छोटी उम्र मे छूट गया, इसका कारण भी मुझे यही जान पडता है । यह ठीक है कि उनके शरीर में दर्द घर किये हुए था, पर जगत के ताप का जो दर्द उन्हे था, वह उनके लिए असह्य था । उनके देह मे केवल शारीरिक दर्द ही होता तो उसे उन्होने अवश्य जीत लिया होता, पर उन्हे तो जान पड़ा कि ऐसे विषम काल मे आत्म-दर्शन कैसे हो सकता है । यह दया-धर्म की निशानी है । '

श्रीमद्राजचद्र को मै 'रायचद्रभाई' अथवा 'कवि' कहकर प्रेम और मानपूर्वक सबोधन करता था । उनके सस्मरण लिखकर उनका रहस्य मुमुक्षुओ के समक्ष रखना मुझे अच्छा लगता है मुमुक्षु शब्द का मैने यहा जान-बूझकर प्रयोग किया है। सब प्रकार के पाठकों के लिए यह प्रयास नही ।

मेरे ऊपर तीन पुरुषो ने गहरी छाप डाली है टाल्स्टाय, रस्किन और रायचद्रभाई । टाल्स्टाय ने अपनी पुस्तको द्वारा और उनके साथ थोडे पत्र व्यवहार से, रस्किन ने अपनी एक ही पुस्तक 'अनटु दिसलास्ट' से, जिसका गुजराती नाम मैने 'सर्वोदय' रखा है और रायचद्रभाई ने अपने साथ गाढ परिचय से । जब मुझे हिदू-धर्म मे शंका पैदा हुईं उस समय उसके निवारण करने में मदद करनेवाले रायचद्रभाई थे । सन् १८९३ मे दक्षिण अफ्रीका में मै क्रिश्चियन सज्जनो के विशेष संपर्क में आया। उनका जीवन स्वच्छ था । वे चुस्त धर्मात्मा थे । अन्य धर्मियो को क्रिश्चियन होने के लिए समझाना उनका मुख्य व्यवसाय था । यद्यपि मेरा और उनका सबध व्यावहारिक कार्य को लेकर ही हुआ था तो भी उन्होने मेरी आत्मा के कल्याण के लिए चिता करना शुरू कर दिया । उस समय मै अपना एक ही कर्त्तव्य समझ सका कि जबतक मै हिदू-धर्म के रहस्य को पूरी तौर से न जान लू और उससे मेरी आत्मा को सतोष न हो जाय तबतक मुझे अपना कुलधर्म कभी न छोडना चाहिए । इसलिए मैने हिदू-धर्म और । अन्य धर्मों की पुस्तके पढना शुरू कर दी । क्रिश्चियन और मुसल- मानी पुस्तके पढी । विलायत के अग्रेज मित्रो के साथ पत्र-व्यवहार किया । उनके समक्ष अपनी शकाए रखी तथा हिदुस्तान मे जिन के ऊपर मुझे कुछ भी श्रद्धा थी पत्र-व्यवहार किया। उनमे रायचंद्र भाई मुख्य थे । उनके साथ तो मेरा अच्छा सबध हो चुका था ।

प्रतिमा भी था । इसलिए जो मिल सके उनसे लेने का मैने विचार किया । उसका फल यह हुआ कि मुझे शांति मिली। हिदू- धर्म मे मुझे जो चाहिए वह मिल सकता है, ऐसा मन को विश्वास हुआ । मेरी इस स्थिति के जवाबदार रायचंद्रभाई हुए । इससे मेरा उनके प्रति कितना अधिक मान होना चाहिए, इसका पाठक कुछ अनुमान कर सकते है ।

इतना होने पर भी मैने उन्हे धर्मगुरु नही माना । धर्मगुरु की तो मैं खोज किया ही करता हु । और अबतक मुझे सबके विषय मे यही जवाब मिला है कि ये नही । ऐसा सपूर्ण गुरु प्राप्त करने के लिए तो अधिकार चाहिए। वह में कहा से लाऊ ?

रायचद्रभाई के साथ मेरी भेट जुलाई सन् १८९१ मे उस दिन हुई जब मै विलायत से बबई वापस आया । इन दिनो समुद्र मे तूफान आया करता है, इस कारण जहाज रात को देरी से पहुचा । मै डाक्टर - बैरिस्टर —— और अब रगून के प्रख्यात झवेरी प्राण- जीवनदास मेहता के घर उतरा था । रायचद्रभाई उनके बड़े भाई के जमाई होते थे । डाक्टरसाहब ने ही परिचय कराया । उनके दूसरे बड़े भाई झवेरी रेवाशकर जगजीवनदास की पहचान भी उसी दिन हुई । डाक्टरसाहब ने रायचद्रभाई का 'कवि' कहकर परिचय कराया और कहा, "कवि होते हुए भी आप हमारे साथ व्यापार मे है । आप ज्ञानी और शतावधानी है।” किसीने सूचना की कि मैं उन्हे कुछ शब्द सुनाऊ और वे शब्द चाहे किसी भी भाषा के हो, जिस क्रम से मै बोलूगा उसी क्रम से वे दुहरा जावेगे। मुझे यह सुनकर आश्चर्य हुआ । मैं तो उस समय विलायत से लौटा था। मुझे भाषा - ज्ञान का भी अभिमान था । मुझे विलायत की हवा भी कुछ कम न लगी थी । उन दिनो विलायत से आया मानो आ- काश से उतरा । मैने अपना समस्त ज्ञान उलट दिया । और अलग- अलग भाषाओ के शब्द पहले तो मैंने लिख लिये, क्योकि मुझे वह क्रम कहा याद रहनेवाला था और बाद मे उन शब्दो को मै बाच गया। उसी क्रम से रायचंद्रभाई ने धीरे से एक के बाद एक सब शब्द कह सुनाये । मै सतुष्ट हुआ, चकित हुआ और कवि की स्मरण- शक्ति के विषय मे मेरा उच्च विचार हुआ । विलायत की हवा कम पडने के लिए कहा जा सकता है कि यह सुदर अनुभव हुआ ।

कवी को अग्रेजी का ज्ञान बिल्कुल न था । उस समय उनकी उमर पच्चीस से अधिक न थी । गुजराती पाठशाला मे भी उन्होने थोडाही अभ्यास किया था। फिर भी इतनी शक्ति, इतना ज्ञान और आस-पास से इतना उनका मान। इससे मै मोहित हुआ । स्मरण- शक्ति पाठशाला मे नही बिकती और ज्ञान भी पाठशाला के बाहर, यदि इच्छा हो -- जिज्ञासा हो-तो मिलता तथा मान पाने के लिए विलायत अथवा कही भी नही जाना पडता, परतु गुण को मान चाहिए तो मिलता है - यह पदार्थ पाठ मुझे बबई उतरते ही मिला ।

कवि के साथ यह परिचय बहुत आगे बढा । स्मरण शक्ति 'लोगो की तीव्र होती है, इसमे आश्चर्य की कुछ बात नही । शास्त्र ज्ञान भी बहुतो मे पाया जाता है, परतु यदि वे लोग सस्कारी न हो तो उनके पास फूटी कौडी भी नही मिलती । जहा सस्कार अच्छे होते है वही स्मरण शक्ति और शास्त्र ज्ञान सबंध शोभित होता है और जगत को शोभित करता है । कवि सस्कारी ज्ञानी थे ।

अपूर्व अवसर एवो क्या रे आवशे, क्या रे ईशुं बाह्यतर निर्ग्रथ जो । 

सर्व संबंध बधन तीक्ष्ण छेदीने, विचरशु कब महत्पूरबने पथ जो ॥

 सर्व भाव थी ओदासीन्य वृत्ति करो, मात्र देश ते सयम हेतु होय जो ॥ 

अन्य कारणे अन्य कशु कल्पे नहि,

देहे पण किचित् मूर्छा नव जोय जो ॥ अपूर्व ॥

रायचद्रभाई की १८ वर्ष की उमर के निकले हुए अपूर्व उद्गारो की ये पहली दो कडिया है ।

जो वैराग्य इन कडियो मे छलक रहा है, वह मेने उनके दो वर्ष के गाढ परिचय से प्रत्येक क्षण में देखा है । उनके लेखो की एक असाधारणता यह है कि उन्होने स्वय जो अनुभव किया वही लिखा है । उसमे कही भी कृत्रिमता नही । दूसरे के ऊपर छाप डालने के लिए उन्होने एक लाइन भी लिखी हो, यह मैने नही देखा । उनके पास हमेशा कोई-न-कोई धर्म - पुस्तक और एक कोरी कापी पडी ही रहती थी । इस कापी मे वह अपने मन मे जो विचार आते उन्हें लिख लेते थे । ये विचार कभी गद्य में और कभी पद्य होते थे । इसी तरह 'अपूर्व अवसर' आदि पद भी लिखा हुआ होना चाहिए ।

खाते, बैठते, सोते और प्रत्येक क्रिया करते हुए उनमे वैराग्य तो होता ही था। किसी समय उन्हे इस जगत् के किसी भी वैभव पर मोह हुआ हो, यह मैने नही देखा ।

उनका रहन-सहन में आदरपूर्वक परतु सूक्ष्मता से देखता था। भोजन मे जो मिले वह उसीसे सतुष्ट रहते थे। उनकी पोशाक मादी थी । कुर्ता, अगरखा, खेस, सिल्क का दुपट्टा और धोती, यही उनकी पोशाक थी तथा ये भी कुछ बहुत साफ या इस्तरी किये हुए रहते हो, यह मुझे याद नही । जमीन पर बैठना और कुरसी पर बैठना, उन्हें दोनो ही समान थे। सामान्य रीति से दुकान मे वह गद्दी पर बैठते थे ।

उनकी चाल धीमी थी और देखनेवाला समझ सकता था कि चलते हुए भी वह अपने विचार मे मग्न है । आखो मे उनके चमत्कार था। वह अत्यत तेजस्वी थे । विह्वलता जरा भी न थी । आखो मे एकाग्रता चित्रित थी । चेहरा गोलाकार, होठ पतले, नाक न नोक- दार न चपटी, शरीर दुर्बल, कद मध्यम, वर्ण श्याम और देखने मे वे शातिमूर्ति थे । उनके कठ मे इतना अधिक माधुर्यं था कि उन्हे सुननेवाले थकते न थे । उनका चेहरा हँसमुख और प्रफुल्लित था । उसके ऊपर अतरानद की छाया थी । भाषा उनकी इतनी परिपूर्ण थी कि उन्हे अपने विचार प्रकट करते समय कभी कोई शब्द ढूढना डा हो, यह मुझे याद नही । पत्र लिखने बैठते तो शायद ही शब्द बदलते हुए मैने उन्हे देखा होगा । फिर भी पढनेवाले को यह न मालूम होता था कि कही विचार अपूर्ण है अथवा वाक्य-रचना त्रुटिपूर्ण है, अथवा शब्दो के चुनाव में कमी है ।

यह वर्णन सयमी के विषय मे सभव है । बाह्याडबर से मनुष्य वीतरागी नही हो सकता । वीतरागता आत्मा की प्रसादी है । यह अनेक जन्मो के प्रयत्नो से मिल सकती है, ऐसा हर मनुष्य अनुभव कर सकता है । रागो को निकालने का प्रयत्न करनेवाला जानता है कि राग-रहित होना कितना कठिन है । यह राग-रहित दशा कवि की स्वाभाविक थी, ऐसी मेरे ऊपर छाप पडी थी ।

मोक्ष की प्रथम सीढी वीतरागता है। जबतक जगत की एक भी वस्तु मे मन रमा है तबतक मोक्ष की बात कैसे अच्छी लग सकती है, अथवा अच्छी लगती भी हो तो केवल कानो को ही, ठीक वैसे ही जैसे कि हमे अर्थ के समझे बिना किसी सगीत का केवल स्वर ही अच्छा लगता है । ऐसी केवल कर्णप्रिय क्रीडा मे से मोक्ष का अनुसरण करनेवाले आचरण के आने में बहुत समय बीत जाता है। आंतर वैराग्य के बिना मोक्ष की लगन नही होती। ऐसे वैराग्य की लगन कवि में थी ।

...

वणिक  तेहनुं नाम जेह जूठं नव बोले, 

वणिक तेहनुं  नाम, तोल ओछु नव तोले,

वणिक तेहनु  नाम बापे बोल्युं तेपाले, 

वणिक तेहनु नाम व्याजसहित धन वाले,

 विवेक तोल ए वणिकनुं सुलतान तोल ए शाव छे, 

बेपार चूके जो वाणीओ दुःख दावानल थाय छे ।

- सामल भट्ट

सामान्य मान्यता ऐसी है कि व्यवहार अथवा व्यापार और परमार्थ अथवा धर्म ये दोनो अलग-अलग विरोधी वस्तुएं है । व्यापार मे धर्म को घुसेडना पागलपन है । ऐसा करने से दोनों बिगड जाते है | यह मान्यता यदि मिथ्या न हो तो अपने भाग्य में केवल निराशा ही लिखी है, क्योकि ऐसी एक भी वस्तु नही, ऐसा एक भी व्यवहार नही जिससे हम धर्म को अलग रख सके ।

धार्मिक मनुष्य का धर्म उसके प्रत्येक कार्य में झलकना ही चाहिए, यह रायचद्रभाई ने अपने जीवन मे बताया था। धर्म कुछ एकादशी के दिन ही, पर्यूषण मे ही, ईद के दिन ही, या रविवार के दिन ही पालना चाहिए, अथवा उसका पालन मंदिरो मे, देरा- सरो मे और मस्जिदो मे ही होता है और दूकान या दरबार मे नही होता, ऐसा कोई नियम नही । इतना ही नही, परंतु यह कहना धर्म को न समझने के बराबर है, यह रायचंद्रभाई कहते, मानते और अपने आचार मे बताते थे।

उनका व्यापार हीरे-जवाहरात का था । वह श्री रेवाशंकर जगजीवन झवेरी के साझी थे । साथ मे वे कपडे की दूकान भी चलाते थे । अपने व्यवहार मे संपूर्ण प्रकार से वह प्रामाणिकता बताते थे, ऐसी उन्होने मेरे ऊपर छाप डाली थी । वे जब सौदा करते तो मैं कभी अनायास ही उपस्थित रहता । उनकी बात स्पष्ट और एक ही होती थी । चालाकी सरीखी कोई वस्तु उनमे नही देखता था। दूसरे की चालाकी वह तुरत ताड़ जाते थे । वह उन्हे असह्य मालूम होती थी । ऐसे समय उनकी भृकुटि भी चढ़ जाती और आखो मे लाली आ जाती, यह मै देखता था ।

धर्म-कुशल लोग व्यवहारकुशल नही होते, इस वहम को राय- चंदभाई ने मिथ्या सिद्ध करके बताया था । अपने व्यापार मे वह पूरी सावधानी और होशियारी बताते थे । हीरे-जवाहरात की परीक्षा वह बहुत बारीकी से कर सकते थे । यद्यपि अग्रेजी का ज्ञान उन्हें न था, फिर भी पेरिस वगैरह के अपने आढ़तियों की चिट्ठियो और तारो के मर्म को वह फौरन समझ जाते थे और उनकी कला समझने में उन्हें देर न लगती। उनके जो तर्क होते थे, वे अधिकाश सच्चे ही निकलते थे ।

इतनी सावधानी और होशियारी होने पर भी वह व्यापार की उद्विग्नता अथवा चिता न रखते थे। दुकान मे बैठे हुए भी जब अपना काम समाप्त हो जाता तो उनके पास पड़ी हुई धार्मिक पुस्तक अथवा कापी, जिसमे वह अपने उद्गार लिखते थे, खुल जाती थी । मेरे जैसे जिज्ञासु तो उनके पास रोज आते ही रहते थे और उनके साथ धर्म-चर्चा करने में हिचकते न थे । 'व्यापार के समय व्यापार और धर्म के समय मे धर्म' अर्थात् एक समय मे एक ही काम होना चाहिए, इस सामान्य लोगो के सुदर नियम का कवि पालन न करते थे । वह शतावधानी होकर इसका पालन न करे तो यह हो सकता है, परंतु यदि और लोग उसका उल्लघन करने भी लगे तो जैसे दो घोडो पर सवारी करनेवाला गिरता है, वैसे ही वे अवश्य गिरते । सपूर्ण धार्मिक और वीतरागी पुरुष भी जिस क्रिया को जिस समय करता हो, उसमे ही लीन हो जाय, यह योग्य है । इतना ही नही, बल्कि उसे यही शोभा देता है । यह उसके योग hat fशानी है । इसमे धर्म है । व्यापार अथवा इसी तरह की जो कोई अन्य क्रिया करना हो तो उसमे भी पूर्ण एकाग्रता होनी ही चाहिए । अतरग में आत्मचितन तो मुमुक्षु मे उसके श्वास की तरह सतत चलना ही चाहिए। उससे वह एक क्षण भी वचित नही रहता । परतु इस तरह आत्मचितन करते हुए भी जो कुछ वह बाह्य कार्य करता हो वह उसमे ही तन्मय रहता है ।

यह ही कहना चाहता कि कवि ऐसा न करते थे । ऊपर मैं कह चुका हू कि अपने व्यापार मे वह पूरी सावधानी रखते थे । ऐसा होने पर भी मेरे ऊपर ऐसी छाप जरूर पडी है कि कवि ने अपने शरीर से आवश्यकता से अधिक काम लिया है । यह योग की अपूर्णता तो नही हो सकती है यद्यपि कर्तव्य करते हुए शरीर तक भी समर्पण कर देना यह नीति है, परंतु शक्ति से अधिक बोझ उठा कर उसे कर्तव्य समझना यह राग है। ऐसा अत्यत सूक्ष्म राग कवि था, यह मुझे अनुभव हुआ है ।

बहुत बार परमार्थ दृष्टि से मनुष्य शक्ति से अधिक काम लेता है और बाद मे उसे पूरा करने मे उसे कष्ट सहना पडता है । इसे हम गुण समझते है और इसकी प्रशंसा करते है । परतु परमार्थ अर्थात् धर्म-दृष्टि से देखने से इस तरह किये हुए काम मे सूक्ष्म मूर्छा का होना बहुत संभव है ।

यदि हम इस जगत् में केवल निमित्तमात्र ही है, यदि यह शरीर हमे भाडे मिला है, और उस मार्ग से हमे तुरत मोक्ष साधन करना चाहिए, यही परम कर्तव्य है, तो इस मार्ग मे जो विघ्न आते हो उनका त्याग अवश्य ही करना चाहिए । यही पारमार्थिक दृष्टि है, दूसरी नही ।

जो दलीले मैने ऊपर दी है, उन्हें ही किसी दूसरे प्रकार से रायचदभाई अपनी चमत्कारिक भाषा मे मुझे सुना गये थे। ऐसा होने पर भी उन्होने ऐसी-वैसी उपाधिया उठाई कि जिसके फल- स्वरूप उन्हे सख्त बीमारी भोगनी पडी ।

रायचदभाई को परोपकार के कारण मोह ने क्षण भर के लिए घेर लिया था, यदि मेरी यह मान्यता ठीक हो तो 'प्रकृति याति • भूतानि निग्रह. कि करिष्यति' यह श्लोकार्थ यहा ठीक बैठता है और इसका अर्थ भी इतना ही है । कोई इच्छापूर्वक बर्ताव करने के लिए उपर्युक्त कृष्ण-वचन का उपयोग करते है, परंतु वह तो सर्वथा दुरुपयोग है। रायचदभाई की प्रकृति उन्हें बलात्कार गहरे पानी मे ले गई। ऐसे कार्य को दोषरूप से भी लगभग सपूर्ण आत्माओ मे ही माना जा सकता है। हम सामान्य मनुष्य तो परो- पकारी कार्य के पीछे अवश्य पागल बन जाते है, तभी उसे कदाचित् पूरा कर पाते है ।

यह भी मान्यता देखी जाती है कि धार्मिक मनुष्य इतने भोले होते है कि उन्हें सबकोई ठग सकता है। उन्हें दुनिया की बातो की कुछ भी खबर नही पड़ती। यदि यह बात ठीक है तो कृष्णचद्र और रामचंद्र दोनों अवतारो को केवल ससारी मनुष्यो मे ही गिनना चाहिए । कवि कहते थे कि जिसे शुद्ध ज्ञान है उसका ठगा जाना असभव होना चाहिए। मनुष्य धार्मिक अर्थात् नीतिमान् होने पर भी कदाचित् ज्ञानी न हो, परंतु मोक्ष के लिए नीति और अनुभव ज्ञान का सुसंगम होना चाहिए। जिसे अनुभव -ज्ञान हो गया है, उसके पास पाखड निभ ही नही सकता । सत्य के पास असत्य नही निभ   सकता। अहिंसा के सान्निध्य मे हिंसा बद हो जाती है। जहा सरलता प्रकाशित होती है वहा छल-रूपी अधकार नष्ट हो जाता है । ज्ञानवान और धर्मवान यदि कपटी को देखे तो उसे फौरन पहचान लेता है और उसका हृदय दया से आर्द्र हो जाता है । जिसने आत्मा को प्रत्यक्ष देख लिया है वह दूसरे को पहचाने बिना कैसे रह सकता है । कोई-कोई धर्म के नाम पर उन्हे ठग भी लेते थे । ऐसे उदाहरण नियम की अपूर्णता सिद्ध नही करते, परतु ये शुद्ध ज्ञान की ही दुर्लभता सिद्ध करते है ।

इस तरह के अपवाद होते हुए भी व्यवहार कुशलता और धर्मपरायणता का सुदर मेल जितना मैने कवि मे देखा है उतना किसी दूसरे मे देखने मे नही आया ।

...

रायचदभाई के धर्म का विचार करने से पहले यह जानना आवश्यक है कि धर्म का उन्होने क्या स्वरूप समझाया था ।

धर्म का अर्थ मततातर नही । धर्म का अर्थ शास्त्रो के नाम से कही जानेवाली पुस्तको को पढ जाना, कठस्थ कर लेना अथवा उनमे जो कुछ कहा है, उसे मानना भी नही है ।

धर्म आत्मा का गुण है और वह मनुष्य जाति मे दृश्य अथवा अदृश्य रूप से मौजूद है । धर्म से हम मनुष्य जीवन का कर्तव्य समझ सकते है । धर्म द्वारा हम दूसरे जीवों के साथ अपना सच्चा सबध पहचान सकते है । यह स्पष्ट है कि जबतक हम अपनेको न पहचान ले तबतक यह सब कभी भी नही हो सकता । इसलिए धर्म वह साधन है, जिसके द्वारा हम अपने-आपको स्वयं पहचान सकते है ।

यह साधन हमे जहां कही मिले, वही से प्राप्त करना चाहिए । फिर भले ही वह भारतवर्ष मे मिले, चाहे यूरोप से आये या अरब- स्तान से आये । इन साधनो का सामान्य स्वरूप समस्त धर्म - शास्त्रों मे एक ही सा है । इस बात को वह कह सकता है जिसने भिन्न- free शास्त्र का अभ्यास किया है। ऐसा कोई भी शास्त्र ही कहता कि असत्य बोलना चाहिए, अथवा असत्य आचरण करना चाहिए । हिसा करना किसी भी शास्त्र मे नही बताया । समस्त शास्त्रो का दोहन करते हुए शकराचार्य ने कहा है, "ब्रह्म सत्य जगन्मिथ्या ।" उसी बात को कुरानशरीफ में दूसरी तरह कहा है कि ईश्वर एक ही है और वही है, उसके बिना और दूसरा कुछ नही । बाइबिल मे कहा है कि मै और मेरा पिता एक ही हैं । ये सब एक ही वस्तु के रूपातर है। परंतु इस एक ही सत्य के स्पष्ट करने मे अपूर्ण मनुष्यो ने अपने भिन्न-भिन्न दृष्टि - बिदुओ को काम लाकर हमारे लिए मोह - जाल रच दिया है। उसमे से हमें बाहर निकलना है । हम अपूर्ण है और अपने से कम अपूर्ण की मदद लेकर आगे बढते है और अंत मे न जाने अमुक हृदय तक जाकर ऐसा मान लेते है कि आगे रास्ता ही नही है, परतु वास्तव में ऐसी बात नही है । अमुक हद के बाद शास्त्र मदद नही करते, परंतु अनु- भव मदद करता है । इसलिए रायचदभाई ने कहा है :

"ए पद श्रीसर्वज्ञे दीठं ध्यानमां, कहीं शक्या नहीं ते पव श्रीभगवंत जो एह परमपद प्राप्तिनुं कर्यु ध्यानमें, गजावयर पण हाल मनोरय रूप जो..."

इसलिए अत मे तो आत्मा को मोक्ष देनेवाली आत्मा ही है ।

इस शुद्ध सत्य का निरूपण रायचदभाई ने अनेक प्रकारों से अपने लेखो में किया है। रायचदभाई ने बहुत-सी धर्म-पुस्तकों का अच्छा अभ्यास किया था । उन्हे संस्कृत और मागधी भाषा को समझने में जरा भी मुश्किल न पडती थी । उन्होने वेदांत का अभ्यास किया था । इसी प्रकार भागवत और गीताजी का भी उन्होने अभ्यास किया था । जैन -पुस्तके तो जितनी भी उनके हाथ

आती, वह बच जाते थे। उनके बाचने और ग्रहण करने की शक्ति अगाध थी । पुस्तक का एक बार का बांचन उन पुस्तकों के रहस्य जानने के लिए उन्हें काफी था । कुरान, जदेअवस्ता आदि पुस्तके भी वह अनुवाद के जरिए पढ गये थे ।

वह मुझसे कहते थे कि उनका पक्षपात जैन धर्म की ओर था। उनकी मान्यता थी कि जिनागम मे आत्मज्ञान की पराकाष्ठा है, मुझे उनका यह विचार बता देना आवश्यक है ।

परतु रायचदभाई का दूसरे धर्मो के प्रति अनादर न था, बल्कि  वेदांत के प्रति पक्षपात भी था । वेदाती को तो कवि वेदाती ही मालूम पडते थे। मेरे साथ चर्चा करते समय मुझे उन्होने कभी भी यह नही कहा कि मुझे मोक्ष प्राप्ति के लिए किसी खास धर्म अवलंबन लेना चाहिए। मुझे अपना ही आचार-विचार पालने के लिए उन्होने कहा । मुझे कौन-सी पुस्तक बाचनी चाहिए, यह प्रश्न उठने पर उन्होने मेरी वृत्ति और मेरे बचपन के सस्कार देखकर मुझे गीताजी बांचने के लिए उत्तेजित किया और दूसरी पुस्तको मे पचीकरण, मणिरत्नमाला, योगवासिष्ठ का वैराग्य प्रकरण, काव्य - दोहन पहला भाग, और अपनी मोक्षमाला बाचने के लिए कहा ।

रायचदभाई बहुत बार कहा करते थे कि भिन्न-भिन्न धर्म तो एक तरह के बाड़े है और उनमे मनुष्य घिर जाता है । जिसने मोक्ष प्राप्ति ही पुरुषार्थ मान लिया है, उसे अपने माथे पर किसी भी धर्म का तिलक लगाने की आवश्यकता नही।

सूरत आवे त्यमतुं रहे, ज्यम त्यम करिने हरीने लहे' ......

अर्थात् ——जैसे सूत निकलता है वैसे ही तू रह ! जैसे बने तैसे हरि को प्राप्त कर ।

जैसे अखा का यह सूत्र था वैसे ही रायचंदभाई का भी था । धार्मिक झगडो से वे हमेशा ऊबे रहते थे । उनमे वह शायद ही कभी पड़ते थे । वह समस्त धर्मों की खूबिया पूरी तरह से देखते और उन्हे उन धर्मावलबियो के सामने रखते थे । दक्षिण अफ्रीका के पत्र - व्यवहार मे भी मैने यही वस्तु उनसे प्राप्त की ।

मै स्वयं तो यह माननेवाला हूं कि धर्म उस धर्म के भक्तों दृष्टि से संपूर्ण है, और दूसरो की दृष्टि से अपूर्ण है । स्वतत्र रूप से विचार करने से सब धर्म पूर्णापूर्ण है । अमुक हद के बाद सब शास्त्र बधन रूप मालूम पडते है । परतु यह तो गुणातीत की अवस्था हुई । रायचंदभाई की दृष्टि से विचार करते है तो किसीको अपना धर्म छोड़ने की आवश्यकता नही । सब अपने-अपने धर्म मे रहकर अपनी स्वतंत्रता मोक्ष प्राप्त कर सकते है, क्योकि मोक्ष प्राप्त करने का अर्थ सर्वांश से राग-द्वेष रहित होना ही है । "

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रचनाएँ
देश सेवकों के संस्मरण
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देश सेवकों के संस्कार कई भारतीय स्वतंत्रता सेनानियों के जीवन और कार्य के बारे में निबंधों का एक संग्रह है। निबंध स्वतंत्रता सेनानियों के साथ प्रभाकर की व्यक्तिगत बातचीत और उनके जीवन और कार्य पर उनके शोध पर आधारित हैं। देश सेवकों के संस्कार में निबंधों को कालानुक्रमिक रूप से व्यवस्थित किया गया है, जो भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के शुरुआती दिनों से शुरू होकर महात्मा गांधी की हत्या तक समाप्त होता है। निबंधों में असहयोग आंदोलन, भारत छोड़ो आंदोलन और नमक सत्याग्रह सहित कई विषयों को शामिल किया गया है। देश सेवकों के संस्कार में प्रत्येक निबंध भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन पर एक अद्वितीय और व्यक्तिगत दृष्टिकोण प्रदान करता है। प्रभाकर के निबंध केवल ऐतिहासिक वृत्तांत नहीं हैं, बल्कि साहित्य की कृतियाँ भी हैं जो उस समय की भावना और स्वतंत्रता सेनानियों द्वारा किए गए बलिदानों को दर्शाती हैं। देश सेवकों के संस्कार भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन पर साहित्य में एक महत्वपूर्ण और मूल्यवान रचना है।
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यह मानना मश्किल है कि बी अम्मा का देहात हो गया है। अम्मा की उस राजसी मूर्ति को या सार्वजनिक सभाओं में उन- की बुलंद आवाज को कौन नही जानता । बुढापा होते हुए भी उन- में एक नवयुवक की शक्ति थी । खिलाफत और

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अध्याय 4: धर्मानंद कौसंबी

15 अगस्त 2023
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शायद आपने उनका नाम नही सुना होगा । इसलिए शायद आप दुख मानना नही चाहेगे । वैसे किसी मृत्यु पर हमे दुख मानना चाहिए भी नही, लेकिन इसान का स्वभाव है कि वह अपने स्नेही या पूज्य के मरने पर दुख मानता ही है।

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अध्याय 5: कस्तूरबा गांधी

15 अगस्त 2023
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तेरह वर्ष की उम्र मे मेरा विवाह हो गया। दो मासूम बच्चे अनजाने ससार-सागर में कूद पडे। हम दोनो एक-दूसरे से डरते थे, ऐसा खयाल आता है। एक-दूसरे से शरमाते तो थे ही । धीरे-धीरे हम एक-दूसरे को पहचानने लगे।

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अध्याय 6: मगनलाल खुशालचंद गांधी

15 अगस्त 2023
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मेरे चाचा के पोते मगनलाल खुशालचंद गांधी मेरे कामों मे मेरे साथ सन् १९०४ से ही थे । मगनलाल के पिता ने अपने सभी पुत्रो को देश के काम में दे दिया है। वह इस महीने के शुरू में सेठ जमनालालजी तथा दूसरे मित

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अध्याय 7: गोपालकृष्ण गोखले

15 अगस्त 2023
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गुरु के विषय मे शिष्य क्या लिखे । उसका लिखना एक प्रकार की धृष्टता मात्र है। सच्चा शिष्य वही है जो गुरु मे अपने- को लीन कर दे, अर्थात् वह टीकाकार हो ही नही सकता । जो भक्ति दोष देखती हो वह सच्ची भक्ति

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अध्याय 8: घोषालबाबू

15 अगस्त 2023
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ग्रेस के अधिवेशन को एक-दो दिन की देर थी । मैने निश्चय किया था कि काग्रेस के दफ्तर में यदि मेरी सेवा स्वीकार हो तो कुछ सेवा करके अनुभव प्राप्त करू । जिस दिन हम आये उसी दिन नहा-धोकर मै काग्रेस के दफ्तर

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अध्याय 9: अमृतलाल वि० ठक्कर

15 अगस्त 2023
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ठक्करबापा आगामी २७ नवबर को ७० वर्ष के हो जायगे । बापा हरिजनो के पिता है और आदिवासियो और उन सबके भी, जो लगभग हरिजनो की ही कोटि के है और जिनकी गणना अर्द्ध- सभ्य जातियों में की जाती है। दिल्ली के हरिजन

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अध्याय 10: द्रनाथ ठाकुर

15 अगस्त 2023
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लार्ड हार्डिज ने डाक्टर रवीद्रनाथ ठाकुर को एशिया के महाकवि की पदवी दी थी, पर अब रवीद्रबाबू न सिर्फ एशिया के बल्कि ससार भर के महाकवि गिने जा रहे है । उनके हाथ से भारतवर्ष की सबसे बडी सेवा यह हुई है कि

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अध्याय 11: लोकमान्य तिलक

16 अगस्त 2023
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लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक अब ससार मे नही है । यह विश्वास करना कठिन मालूम होता है कि वह ससार से उठ गये । हम लोगो के समय मे ऐसा दूसरा कोई नही, जिसका जनता पर लोकमान्य के जैसा प्रभाव हो । हजारो देशवासियो क

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अध्याय 12: अब्बास तैयबजी

16 अगस्त 2023
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सबसे पहले सन् १९१५ मे मै अब्बास तैयबजी से मिला था । जहा की मै गया, तैयबजी - परिवार का कोई-न-कोई स्त्री-पुरुष मुझसे आकर जरूर मिला । ऐसा मालूम पडता है, मानो इस महान् और चारो तरफ फैले हुए परिवार ने यह

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अध्याय 13: देशबंधु चित्तरंजन दास

16 अगस्त 2023
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देशबंधु दास एक महान् पुरुष थे। मैं गत छ वर्षो से उन्हें जानता हू । कुछ ही दिन पहले जब में दार्जिलिंग से उनसे विदा हुआ था तब मैने एक मित्र से कहा था कि जितनी ही घनिष्ठता उनसे बढती है उतना ही उनके प्र

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अध्याय 14: महादेव देसाई

16 अगस्त 2023
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महादेव की अकस्मात् मृत्यु हो गई । पहले जरा भी पता नही चला। रात अच्छी तरह सोये । नाश्ता किया। मेरे साथ टहले । सुशीला ' और जेल के डाक्टरो ने, जो कुछ कर सकते थे, किया लेकिन ईश्वर की मर्जी कुछ और थी ।

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अध्याय 15: सरोजिनी नायडू

16 अगस्त 2023
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सरोजिनी देवी आगामी वर्ष के लिए महासभा की सभा - नेत्री निर्वाचित हो गई । यह सम्मान उनको पिछले वर्ष ही दिया जानेवाला था । बडी योग्यता द्वारा उन्होने यह सम्मान प्राप्त किया है । उनकी असीम शक्ति के लिए और

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अध्याय 16: मोतीलाल नेहरू

16 अगस्त 2023
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महासभा का सभापतित्व अब फूलो का कोमल ताज नही रह गया है। फूल के दल तो दिनो-दिन गिरते जाते है और काटे उघड जाते है । अब इस काटो के ताज को कौन धारण करेगा ? बाप या बेटा ? सैकडो लडाइयो के लडाका पडित मोतीलाल

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अध्याय 17: वल्लभभाई पटेल

16 अगस्त 2023
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सरदार वल्लभभाई पटेल के साथ रहना मेरा बडा सौभाग्य 'था । उनकी अनुपम वीरता से मैं अच्छी तरह परिचित था, परतु पिछले १६ महीने मे जिस प्रकार रहा, वैसा सौभाग्य मुझे कभी नही मिला था । जिस प्रकार उन्होने मुझे स

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अध्याय 18: जमनालाल बजाज

16 अगस्त 2023
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सेठ जमनालाल बजाज को छीनकर काल ने हमारे बीच से एक शक्तिशाली व्यक्ति को छीन लिया है। जब-जब मैने धनवानो के लिए यह लिखा कि वे लोककल्याण की दृष्टि से अपने धन के ट्रस्टी बन जाय तब-तब मेरे सामने सदा ही इस वण

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अध्याय 19: सुभाषचंद्र बोस

16 अगस्त 2023
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नेताजी के जीवन से जो सबसे बड़ी शिक्षा ली जा सकती है वह है उनकी अपने अनुयायियो मे ऐक्यभावना की प्रेरणाविधि, जिससे कि वे सब साप्रदायिक तथा प्रातीय बधनो से मुक्त रह सके और एक समान उद्देश्य के लिए अपना रक

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अध्याय 20: मदनमोहन मालवीय

16 अगस्त 2023
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जब से १९१५ मे हिदुस्तान आया तब से मेरा मालवीयजी के साथ बहुत समागम है और में उन्हें अच्छी तरह जानता हू । मेरा उनके साथ गहरा परिचय रहता है । उन्हें मैं हिंदू-संसार के श्रेष्ठ व्यक्तियो मे मानता हूं । क

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अध्याय 21: श्रीमद् राजचंद्रभाई

16 अगस्त 2023
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में जिनके पवित्र सस्मरण लिखना आरंभ करता हूं, उन स्वर्गीय राजचद्र की आज जन्मतिथि है । कार्तिक पूर्णिमा संवत् १९७९ को उनका जन्म हुआ था । मेरे जीवन पर श्रीमद्राजचद्र भाई का ऐसा स्थायी प्रभाव पडा है कि

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अध्याय 22: आचार्य सुशील रुद्र

16 अगस्त 2023
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आचार्य सुशील रुद्र का देहात ३० जून, १९२५ को होगया । वह मेरे एक आदरणीय मित्र और खामोश समाज सेवी थे। उनकी मृत्यु से मुझे जो दुख हुआ है उसमे पाठक मेरा साथ दे | भारत की मुख्य बीमारी है राजनैतिक गुलामी |

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अध्याय 23: लाला लाजपतराय

16 अगस्त 2023
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लाला लाजपतराय को गिरफ्तार क्या किया, सरकार ने हमारे एक बड़े-से-बडे मुखिया को पकड़ लिया है। उसका नाम भारत के बच्चे-बच्चे की जबान पर है । अपने स्वार्थ-त्याग के कारण वह अपने देश भाइयो के हृदय में उच्च स्

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अध्याय 24: वासंती देवी

16 अगस्त 2023
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कुछ वर्ष पूर्व मैने स्वर्गीय रमाबाई रानडे के दर्शन का वर्णन किया था । मैने आदर्श विधवा के रूप मे उनका परिचय दिया था । इस समय मेरे भाग्य मे एक महान् वीर की विधवा के वैधव्य के आरभ का चित्र उपस्थित करना

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अध्याय 25: स्वामी श्रद्धानंद

16 अगस्त 2023
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जिसकी उम्मीद थी वह ही गुजरा। कोई छ महीने हुए स्वामी श्रद्धानदजी सत्याग्रहाश्रम में आकर दो-एक दिन ठहरे थे । बातचीत में उन्होने मुझसे कहा था कि उनके पास जब-तब ऐसे पत्र आया करते थे जिनमे उन्हें मार डालन

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अध्याय 26: श्रीनिवास शास्त्री

16 अगस्त 2023
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दक्षिण अफ्रीका - निवासी भारतीयो को यह सुनकर बडी तसल्ली होगी कि माननीय शास्त्री ने पहला भारतीय राजदूत बनकर अफ्रीका में रहना स्वीकार कर लिया है, बशर्ते कि सरकार वह स्थान ग्रहण करने के प्रस्ताव को आखिरी

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अध्याय 27: नारायण हेमचंद्र

16 अगस्त 2023
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स्वर्गीय नारायण हेमचन्द्र विलायत आये थे । मै सुन चुका था कि वह एक अच्छे लेखक है। नेशनल इडियन एसो - सिएशनवाली मिस मैंनिग के यहा उनसे मिला | मिस गजानती थी कि सबसे हिल-मिल जाना मैं नही जानता । जब कभी मै

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