डा० असारी जितने अच्छे मुसलमान है, उतने ही अच्छे भारतीय भी है । उनमे धर्मोन्माद की तो किसीने शंका ही नही की है। वर्षों तक वह एक साथ महासभा के सहमंत्री रहे है। एकता के लिए किये गये उनके प्रयत्नो को तो सब कोई जानते है और सच्ची बात तो यह है कि अगर बेलगाव मे, कानपुर मे श्रीमती सरोजिनी नायडू और गोहाटी मे श्रीयुत श्रीनिवास आयगार मार्ग मे न आते तो इनमे से किसी भी अधिवेशन के अध्यक्ष डा० असारी ही चुने जाते, क्योकि जब ये चुनाव हो रहे थे तब उनका नाम प्रत्येक आदमी की जबान पर था, परतु कुछ खास कारणो से डा० असारी का हक आगे बढा दिया गया और अब ज्ञात होता है कि विधि ने उनके चुनाव को इसीलिए आगे ढकेल दिया है कि वे ऐसे मौके पर आवें जब देश को उनकी सबसे अधिक जरूरत हो । अगर हिंदू-मुस्लिम एकता की कोई योजना दोनो पक्षो को ग्रहण करने योग्य मालूम हो तो नि. सदेह डा० अंसारी ही उसे महासभा के द्वारा कर ले जा सकते है । ... अकेली यही बात ( सर्व सम्मति से और हृदय से एक मुसलमान को अपना अध्यक्ष चुनना ) हिंदुओ की ओर से इस बात का साफ प्रमाण होगा कि हिंदू एकता को दिल से चाहते है, और राष्ट्रीय विचारोवाले मुसलमानों मे डा० अंसारी की अपेक्षा साधारणतया मुसलमान जनता मे अधिक आद्रित कोई नही है । इसलिए मेरे खयाल से तो यही अच्छा है कि अगले साल के लिए डा० असारी ही राष्ट्रीय महासभा के कर्णधार हो, क्योकि केवल किसी योजना को मजूर कर लेना ही हमारे लिए काफी नही है । दोनो पक्षो द्वारा उसे मजूर कराने की बनिस्बत उसे कार्य में परिणत करना शायद कही अधिक जरूरी है । और यदि हम मान ले कि दोनो पक्षो का समाधान करनेवाली एक योजना मजूर हो भी गई तो उसपर अमल करते समय बराबर सावधानी की आवश्यकता होगी । डा० असारी ही ऐसे काम के लिए सबसे अधिक योग्य पुरुष है । इसलिए में कि सभी प्रात एकमत से डा० असारी के नाम को ही उस सर्वोच्च सम्मान के लिए सूचित करेगे, जो कि राष्ट्रीय महासभा के आधीन है । "
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'हरिजन' मे उन सब महान पुरुषों की मृत्यु पर, जो इस संसार से सिधार जाते है, साधारणतया में लिखता नही हू । 'हरिजन' एक विशेष प्रवृत्ति से सबंध रखनेवाला पत्र है । आम तौर पर उन्ही व्यक्तियों के स्वर्गवास के विषय में इसमें लिखा जाता है जिनका कि हरिजन - कार्य के साथ विशेष रूप से संबंध होता है। श्री कमला नेहरू के स्वर्गवास पर मैने 'हरिजन' मे जो नहीं लिखा उसमे मुझे खास तौर पर अपने ऊपर पाबंदी लगानी पड़ी।
ऐसा करके मैने करीब-करीब अपने साथ जुल्म किया। मगर डा० अंसारी के स्वर्गवास पर मुझे कोई ऐसा आत्म-निग्रह करने की जरूरत नहीं । कारण यह है कि वे निस्संदेह हकीम अजमल खां की तरह ही हिंदू-मुस्लिम ऐक्य के एक प्रतिरूप थे । कडी- से कड़ी परीक्षा के समय भी वह अपने विश्वास से कभी डिगे नही । वह एक पक्के मुसलमान थे। हजरत मुहम्मदसाहब की जिन लोगों जरूरत के वक्त मदद की थी, वे उनके वशज थे और उन्हें इस. बात का गर्व था । इस्लाम के प्रति उनमें जो दृढता थी और उसका उन्हें जो प्रगाढ ज्ञान था उस दृढता और उस ज्ञान ने ही उन्हें हिंदू- मुस्लिम ऐक्य में विश्वास करनेवाला बना दिया था । अगर यह कहा जाय कि जितने उनके मुसलमान मित्र थे उतने ही हिंदू मित्र थे तो इसमें कोई अत्युक्ति न होगी । सारे हिदुस्तान के काबिल- से काबिल डाक्टरो में उनका नाम लिया जाता था। किसी भी कौम का गरीब आदमी उनसे सलाह लेने जाय, उसके लिए बेरोक- टोक उनका दरवाजा खुला रहता था। उन्होंने राजा-महाराजाओं और अमीर घरानो से जो कमाया वह अपने जरूरतमद दोस्तों दोनो हाथो से खर्च किया । कोई उनसे कुछ मांगने गया तो कभी ऐसा नही हुआ कि वह उनकी जेब खाली किये बगैर लोटा हो, और उन्होने जो दिया उसका कभी हिसाब नहीं रखा। सैकडों पुरुषों और स्त्रियो के लिए वह एक भारी सहारा थे। मुझे इसमें तनिक भी संदेह नही कि सचमुच वह अनेक लोगो को रोते-बिलखते छोड गये है । उनकी पत्नी बेगमसाहिबा तो ज्ञानपरायणा हैं, यद्यपि वह हमेशा बीमार - सी रहती है। वह इतनी बहादुर है और इस्लाम पर उनकी इतनी ऊची श्रद्धा है कि उन्होने अपने प्रिय पति की मृत्यु पर एक आसू भी नही गिराया। पर जिन अनेक व्यक्तियों की मैं याद करता हू वे ज्ञानी या फिलासफर नही हैं। ईश्वर मे तो उनका विश्वास हवाई हे, पर डा० अंसारी में उनका विश्वास जीवित विश्वास था । इसमें उनका कोई कसूर नही ।
डाक्टर-साह की मित्रता के उनके पास ऐसे अनेक प्रमाण थे कि ईश्वर मैं जब उन्हें छोड़ दिया तब डाक्टरसाहब भी उनकी मदद तभी तक कर सके, जबतक कि सिरजनहार ने उन्हें ऐसा करने दिया । जित काम को वह जीवित अवस्था मे पूरा नही कर सके, ईश्वर करे, वह उनकी मृत्यु के बाद पूरा हो जाय । "