स्वर्गीय नारायण हेमचन्द्र विलायत आये थे । मै सुन चुका था कि वह एक अच्छे लेखक है। नेशनल इडियन एसो - सिएशनवाली मिस मैंनिग के यहा उनसे मिला | मिस गजानती थी कि सबसे हिल-मिल जाना मैं नही जानता । जब कभी मैं उनके यहा जाता तब चुपचाप बैठा रहता । तभी बोलता, जब कोई बातचीत छेड़ता ।
उन्होने नारायण हेमचद्र से मेरा परिचय कराया । नारायण हेमचंद्र अग्रेजी नही जानते थे । उनका पहनावा विचित्र था । बेढगी पतलून पहने थे। उसपर था एक बादामी रम का मैला कुचैला-सा पारसी काट का बेडौल कोट । न नेकटाई, न कालर । सिर पर ऊन की गुथी हुई टोपी और नीचे लंबी दाढी ।
बदन इकहरा, कद नाटा कह सकते है । चेहरा गोल था, उसपर चेचक के दाग थे। नाक न नोकदार थी, न चपटी । हाथ दाढी पर फिरा करता था ।
वहा के लाल-गुलाल फैशनेबल लोगो मे नारायण हेमचद्र विचित्र मालूम होते थे । वह औरो से अलग छटक पडते थे । "आपका नाम तो मैंने बहुत सुना है । आपके कुछ लेख भी 'पढे है | आप मेरे घर चलिये न ?"
नारायण हेमचंद्र की आवाज जरा भर्राई हुई थी । उन्होने हँसते हुए जवाब दिया-
" आप कहा रहते है ?"
"स्टोर स्ट्रीट में ।”
"तब तो हम पडोसी है । मुझे अग्रेजी सीखना है। आप सिखा देगे ?"
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मैने जवाब दिया "यदि मैं किसी प्रकार भी आपकी सहा- यता कर सक तो मुझे बडी खुशी होगी। मै अपनी शक्ति भर कोशिश करूंगा। यदि आप चाहे तो मैं आपके यहा भी आ सकता हू ।" "जी नही, मै खुद ही आपके पास आऊगा । मेरे पास पाठ- माला भी है। उसे लेता आऊगा ।"
समय निश्चित हुआ । आगे चलकर हम दोनो में बडा स्नेह हो गया ।
नारायण हेमचद्र व्याकरण जरा भी नही जानते थे । 'घोडा' क्रिया और 'दौडा' सज्ञा बन जाती है। ऐसे मजेदार उदाहरण तो मुझे कई याद है । परतु नारायण हेमचंद्र ऐसे थे, जो मुझे भी हजम कर जाय । वह मेरे अल्प व्याकरण- ज्ञान से अपनेको भुला देनेवाले जीवन थे । व्याकरण न जानने पर वह किसी प्रकार लज्जित न होते थे ।
"मैं आपकी तरह किसी पाठशाला मे नही पढा हूँ । मुझे अपने विचार प्रकट करने मे कही व्याकरण की सहायता की जरूरत नही दिखाई दी। अच्छा, आप बगला जानते है ? में तो बगला भी जानता हु । मैं बगल में भी घूमा हू । महर्षि देवेंद्रनाथ टैगोर की पुस्तको का अनुवाद तो गुजराती जनता को मैने ही दिया है। अभी कई भाषाओ के सुदर ग्रंथो के अनुवाद करते है । अनुवाद करने मे भी शब्दार्थ पर नही चिपटा रहता । भावमात्र दे देने से मुझे सतोष हो जाता है । मेरे बाद दूसरे लोग चाहे भले ही सुदर वस्तु दिया करे । मैं तो बिना व्याकरण पढे मराठी भी जानता हू, हिंदी भी जानता हू और अब अग्रेजी भी जानने लग गया हू । मुझे तो सिर्फ शब्द - भडार की जरूरत है । आप यह न समझ ले कि अकेली अग्रेजी जान लेने भर से मुझे सतोप हो जायगा। मुझे तो फ्राम जाकर फ्रेंच भी सीख लेनी है। मै जानता हू कि फ्रेंच साहित्य बहुत विशाल है । यदि हो सका तो जर्मन जाकर जर्मन भाषा भी सीख लूगा। "
इस तरह नारायण हेमचद्र की वाग्धारा बे-रोक बहती रही । देश-देशातरो मे जाने व भिन्न-भिन्न भाषा सीखने का उन्हे अमीम शौक था ।
"तब तो आप अमेरिका भी जरूर ही जावेगे ।"
“भला इसमे भी कोई सदेह हो सकता है। इस नवीन दुनिया को देखे बिना कही वापस लौट सकता हू
" पर आपके पास इतना धन कहा है ?"
"मुझे धन की क्या जरूरत पडी है ? मुझे आपकी तरह तडक- भडक तो रखना है ही नहीं। मेरा खाना कितना और पहनना क्या मेरी पुस्तको से कुछ मिल जाता है और थोडा बहुत मित्र लोग दे दिया करते हैं, वह काफी है। मैं तो सर्वत्र तीसरे दर्जे मे ही सफर करता हू । अमेरिका तो डेक मे जाऊगा ।"
नारायण हेमचंद्र की सादगी बस उनकी अपनी थी । हृदय भी उनका वैसा ही निर्मल था । अभिमान छू तक नही गया था ।लेखक के नाते अपनी क्षमता पर उन्हे आवश्यकता से भी अधिक विश्वास था ।
हम रोज मिलते । हमारे बीच विचार तथा आचार-साम्य भी काफी था । दोनों अन्नाहारी थे । दोपहर को कई बार साथ ही भोजन करते । यह मेरा वह समय था, जब मैं प्रति सप्ताह सत्रह शिलिंग मे ही अपना गुजरा करता और खाना खुद पकाया करता था। कभी मैं उनके मकान पर जाता तो कभी वह मेरे मकान पर आते । मै अंग्रेजी ढंग का खाना पकाता था, उन्हें देशी ढंग के बिना संतोष नही होता था । उन्हें दाल जरूरी थी । मै गाजर इत्यादि का रसा बनाता । इसपर उन्हें मुझपर बड़ी दया आती । कही से वह मूग ढूढ लाये थे । एक दिन मेरे लिए मूग पकाकर लाये, जो मैने, ast of - पूर्वक खाये । फिर तो हमारा इस तरह का देने-लेने का व्यवहार बहुत बढ गया । मैं अपनी चीजो का नमूना उन्हे चखाता और वह मुझे चखाते ।
इस समय कार्डिनल मैनिंग का नाम सबकी जबान पर था । डाक के मजदूरों ने हड़ताल कर दी थी । जानबंर्स और कार्डिनल मैनिंग के प्रयत्नों से हड़ताल जल्दी बंद हो गई । कार्डिनल मैनिग सादगी के विषय में जो डिसरैलो ने लिखा था, वह मैने नारायण हेमचंद्र को सुनाया ।
"तब तो मुझे उस साधु पुरुष से जरूर मिलना चाहिए ।" "वह तो बहुत बड़े आदमी है । आपसे क्यो कर मिलेगे ?" "इसका रास्ता मै बता देता हूं। आप उन्हें मेरे नाम से एक पत्र लिखिये कि मैं एक लेखक हूं । आपके परोपकारी कार्यो पर आपको धन्यवाद देने के लिए प्रत्यक्ष मिलना चाहता हूं । उसमे यह भी लिख दीजिएगा कि में अग्रेजी नही जानता । इसलिए- अपना नाम लिखिए - बतौर दुभाषिए के मेरे साथ रहेगे ।"
मैने इस मजमून का पत्र लिख दिया । दो-तीन दिन मे कार्डि- नल मैनिंग का कार्डे आया । उन्होने मिलने का समय दे दिया था।
हम दोनो गये । मैने तो, जैसाकि रिवाज था, मुलाकाती कपड़े पहन लिये । नारायण हेमचंद्र तो ज्यो-के-त्यो, सनातन । वही और वही पतलून । मैने जरा मजाक किया, पर उन्होने उसे साफ हंसी में उड़ा दिया और बोले-
"तुम सब सुधारप्रिय लोग डरपोक हो । महापुरुष किसीकी पोशाक की तरफ नही देखते । वे तो उसके हृदय को देखते है ।"
कार्डिनल के महल मे हमने प्रवेश किया। मकान महल ही था । हम बैठे ही थे कि एक दुबले से ऊचे कदवाले वृद्ध पुरुष ने प्रवेश किया । हम दोनो से हाथ मिलाया । उन्होने नारायण हेम- चंद्र का स्वागत किया ।
"मैं आपका अधिक समय लेना नही चाहता । मैने आपकी कीर्ति सुन रखी थी । आपने हडताल में जो शुभ काम किया है, । उसके लिए आपका उपकार मानना था। ससार के साधु पुरुषो के दर्शन करने का मेरा अपना रिवाज है। इसलिए आपको आज यह कष्ट दिया है ।"
इन वाक्यो का तरजुमा करके उन्हें सुनाने के लिए हेमचंद्र ने मुझसे कहा ।
“आपके आगमन से मै बडा प्रसन्न हुआ हूं । मै आशा करता कि आपको यहां का निवास अनुकूल होगा और यहां के लोगो से आप अधिक परिचय करेगे । परमात्मा आपका भला करे । " यो कहकर कार्डिनल उठ खड़े हुए।
एक दिन नारायण हेमचंद्र मेरे यहां धोती और कुरता पहन- कर आये । भली मकान मालिकिन ने दरवाजा खोला और देखा तो डर गई । दौड़कर मेरे पास आई और बोली - " एक पागल - सा आदमी आपसे मिलना चाहता है ।" मै दरवाजे पर गया और नारायण हेमचंद्र को देखकर दंग रह गया । उनके चेहरे पर वही नित्य का हास्य चमक रहा था ।
“पर आपको लडको ने नही सताया ?"
"हा, मेरे पीछे पड़े जरूर थे, लेकिन मैने कोई ध्यान दिया तो वापस लौट गये ।"
नारायण हेमचंद्र कुछ महीने इगलैंड में रहकर पेरिस चले गये । यहा फ्रेंच का अध्ययन किया और फेच पुस्तको का अनुवाद करना शुरू कर दिया। मै इतनी फ्रेंच जान गया था कि उनके अनु- वादो को जाच लू । मैने देखा कि वह तर्जुमा नही, भावार्थ था ।
अत में उन्होंने अमेरिका जाने का अपना निश्चय भी निबाहा । as foo से डेक या तीसरे दर्जे का टिकट प्राप्त कर सके थे अमेरिका में जब वह धोती और कुरता पहनकर निकले तो असभ्य पोशाक पहनने का जुर्म लगाकर वह गिरफ्तार कर लिये गये थे । पर जातक मुझे याद है, बाद में वह छूट गये । '