मेरे चाचा के पोते मगनलाल खुशालचंद गांधी मेरे कामों मे मेरे साथ सन् १९०४ से ही थे । मगनलाल के पिता ने अपने सभी पुत्रो को देश के काम में दे दिया है। वह इस महीने के शुरू में सेठ जमनालालजी तथा दूसरे मित्रो के साथ बगाल गये थे, वहा
बिहार आये । वही पर अपने कर्त्तव्य के पालन मे ही उन्हें कठिन ज्वर हो आया। नौ दिन की बीमारी के बाद प्रेम और डाक्टरी ज्ञान से जितनी सेवा सभव है, सभी कुछ होने पर भी वह बृज़- किशोर प्रसादजी की गोद मे से चले गये ।
कुछ धन कमा सकने की आशा से मगनलाल गाधी मेरे साथ सन् १९०३ मे दक्षिण अफ्रीका गये थे। मगर उन्हें दूकान करते पूरा साल भर भी न हुआ होगा कि स्वेच्छापूर्वक गरीबी की मेरी अचानक पुकार को सुनकर वह फिनिक्स आश्रम मे आ शामिल हुए और तब से एक बार भी वह डिगे नही, मेरी आशाए पूरी करने मे असमर्थ न हुए। यदि उन्होने स्वदेश सेवा मे अपनेको होम दिया तो अपनी योग्यताओं और अपने अध्यवसाय के बल पर, जिनके बारे मे कोई सदेह हो ही नही सकता, वे आज व्यापारियों के सिरताज होते । छापाखाने मे डाल दिये जाने पर उन्होने तुरत
मुद्रा के सभी भेदो को जान लिया । यद्यपि पहले उन्होने कभी कोई यत्र हाथ मे नही लिया था तो भी इजिन घर में, कलो के बीच तथा कंपोजीटरों के टेबल पर सभी जगह अत्यत कुशलता दिखाई । 'इंडियन ओपीनियन' के गुजराती अश का संपादन करना भी उनके लिए वैसा ही सहज काम था। फिनिक्स- आश्रम में खेती का काम भी शामिल था और इसलिए वह कुशल किसान भी बन गये। मेरा खयाल है कि आश्रम मे वे सर्वो- त्तम बागबान थे । यह भी उल्लेखनीय है कि अहमदाबाद से 'यग इंडिया' का जो पहला अंक निकला उसमे भी उस सकट - काल मे उनके हाथ की कारीगरी थी ।
पहले उनका शरीर भीम जैसा था, किंतु जिस काम में उन्होने अपने को उत्सर्ग किया, उसकी उन्नति में उस शरीर को गला दिया था। उन्होने बड़ी सावधानी से मेरे आध्यात्मिक जीवन का अध्ययन किया था। जबकि मैंने विवाहित स्त्री-पुरुषो के लिए भी 'ब्रह्मचर्य ही जीवन का नियम है' का सिद्धात अपने सहकारियो के सामने पेश किया था तब उन्होने पहले-पहल उसका सौदर्य तथा उसके पालन की आवश्यकता समझी और यद्यपि उसके लिए, जैसाकि मै जानता हू, उन्हे बडा कठोर प्रयत्न करना पडा था तो भी उन्होने इसे सफल कर दिखलाया । इसमे वह अपने साथ अपनी धर्मपत्नी hat भी धीरतापूर्वक समझा-बुझाकर ले गये, उसपर अपने विचार जबरन डालकर नही ।
जब सत्याग्रह का जन्म हुआ तब वह सबसे आगे थे । दक्षिण अफ्रीका के युद्ध का पूरा-पूरा मतलब समझानेवाला एक शब्द में ढूंढ रहा था। दूसरा कोई अच्छा शब्द न मिल सकने से मैने लाचार उसे निष्क्रिय प्रतिरोध का नाम दिया था, गोकि यह शब्द बहुत हीं नाकाफी और भ्रमोत्पादक भी है। क्या ही अच्छा होता अगर आज मेरे पास उनका वह अत्यत सुदर पत्र होता जिसमे उन्होने बत- या था कि इस युद्ध को 'सदाग्रह' क्यो कहना चाहिए। इसी सदा- ग्रह को बदलकर मैंने 'सत्याग्रह' शब्द बनाया । उनका पत्र पढने पर इस युद्ध के सभी सिद्धातों पर एक-एक करके विचार करते हुए अत में पाठक को इसी नाम पर आना ही पडता था । मुझे याद है कि वह पत्र अत्यत ही छोटा और केवल आवश्यक विषय पर ही था, जैसे कि उनके सभी पत्र होते थे ।
युद्ध के समय वह काम से कभी थके नही, किसी काम से देह नही चुराई और अपनी वीरता से वह अपने आसपास में सभी किसीके दिल उत्साह और आशा से भर देते थे। जबकि सब कोई जेल गये, जब फिनिक्स मे जेल जाना ही मानो इनाम जीतना था तब भी, मेरी आज्ञा से, जेल से भारी काम उठाने के लिए वह पीछे ठहर गये । उन्होने स्त्रियो के दल मे अपनी पत्नी को भेजा ।
हिदुस्तान लौटने पर भी उन्हीकी बदौलत आश्रम, जिस सयम-नियम की बुनियाद पर बना है, खुल सका था। यहां उन्हे नया और अधिक मुश्किल काम करना पडा । मगर उन्होने अपने- को उसके लायक साबित किया । उनके लिए अस्पृश्यता बहुत कठिन परीक्षा थी । सिर्फ एक क्षण के लिए ऐसा जान पडा, मानो उनका दिल डोल गया हो। मगर यह तो एक सैकड़ की बात थी। उन्होने देख लिया कि प्रेम की सीमा नही बाधी जा सकती, और कुछ नही तो महज इसीलिए कि अछूतो के लिए ऊची जाति- वाले जिम्मेदार है, हमे उन्हीके जैसे रहना चाहिए ।
आश्रम का औद्योगिक विभाग फिनिक्स के ही कारखाने के ढग का नही था । यहा हमे बुनना, कातना, धुनना और ओटना सीखना था। फिर मगनलाल की ओर झुका । गोकि कल्पना मेरी थी, कितु उसे काम मे लानेवाले हाथ तो उनके थे । उन्होने बुनना . और कपास के खादी बनने तक की और दूसरी सभी क्रियाए सखी । वह तो जन्म से ही विश्वकर्मा, कुशल कारीगर थे ।
जब आश्रम मे गोशाला का काम शुरू हुआ तब वह इस काम मे उत्साह से लग गये, गोशाला - सबधी साहित्य पढा और आश्रम की सभी गायो का नामकरण किया और सभी गोरुओ से मित्रता पैदा कर ली । जब चमांलय खुला तब भी वह वैसे ही दृढ थे। जरा दम लेने की फुर्सत मिलते ही वह चमड़े के सिद्धान्त भी सीखनेवाले थे । राजकोट के हाई स्कूल की शिक्षा के अलावा और जो कुछ वह इतनी अच्छी तरह जानते थे, उन्होने वह सब स्वानुभव की कठिन पाठ- शाला मे सीखा था । उन्होने देहाती बढई, देहाती बुनकर, किसान, चरवाहो और ऐसे ही मामूली लोगो से सीखा था ।
वह चर्खा संघ के शिक्षण विभाग के व्यवस्थापक थे । श्री वल्लभ भाई ने बाढ़ के जमाने मे उन्हे विट्ठलपुर का नया गाव बनाने IT भार दिया था ।
वह आदर्श पिता थे । उन्होने अपने बच्चो को दो लडकियो और एक लडके को, ऐसी शिक्षा दी थी कि जिसमे वे देश के लिए उपहार बनने के लिए योग्य हो । उनका पुत्र केशव यत्र- विद्या मे बडी कुशलता दिखला रहा है। उसने भी अपने पिता केही समान यह सब मामूली लुहार - बढइयो को काम करते देखकर सीखा है। उनकी सबसे बड़ी लडकी राधा ने अपने मत्थे बिहार में स्त्रियो की स्वाधीनता के संबध मे एक मुश्किल और नाजुक काम उठाया था । सच ही तो, वह यह पूरा-पूरा जानते थे कि राष्ट्रीय शिक्षा कैसी होनी चाहिए और वह शिक्षको को प्रायः इस विषय पर गभीर और विचारपूर्वक चर्चा मे लगाया करते थे ।
पाठक यह न समझे कि उन्हें राजनीति का कुछ ज्ञान ही नही था । उन्हे ज्ञान जरूर था; कितु उन्होने आत्मत्याग का रचनात्मक और शात पथ चुना था ।
वह मेरे हाथ थे, मेरे पैर थे और थे मेरी आंखे । दुनिया को क्या पता कि मै जो इतना बडा आदमी कहा जाता हूं, वह बडप्पन मेरे शांत, श्रद्धालु, योग्य और पवित्र स्त्री तथा पुरुष कार्यकर्त्ताओं के अविरल परिश्रम और सेवा पर कितना निर्भर है, और उन सबमे मेरे लिए मगनलाल सबसे बड़े, सबसे अच्छे और सबसे अधिक पवित्र थे ।
यह लेख लिखते हुए भी अपने प्यारे पति के लिए विलाप करती हुई उनकी विधवा की सिसक में सुन रहा हूं। मगर वह क्या समझेगी कि उससे अधिक विधवा, अनाथ में ही हो गया हू । अगर ईश्वर में मेरा जीवत विश्वास न होता तो उसकी मृत्यु पर, जोकि मुझे अपने सगे पुत्रो से भी अधिक प्रिय था, जिसने मुझे कभी धोखा न दिया, मेरी आशाए न तोडी, जो अध्यवसाय की मूर्ति था, जो आश्रम के भौतिक, नैतिक और आध्यात्मिक सभी अगो का सच्चा चौकीदार था, मैं विक्षिप्त हो जाता। उनका जीवन मेरे लिए उत्साहदायक है, नैतिक नियम की अमोघता और उच्चता का प्रत्यक्ष प्रदर्शन है। उन्होने अपने ही जीवन मे मुझे एक-दो दिनों में नही, कुछ महीनो में नही, बल्कि पूरे चौबीस वर्षों तक की बड़ी अवधि में - हाय, जोअब घडी भर का समय जान पडता है—यह साबित कर दिखलाया कि देश सेवा और मनुष्य सेवा, आत्म- ज्ञान या ब्रह्मज्ञान आदि सभी शब्द एक ही अर्थ के द्योतक है ।मगनलाल न रहे, मगर अपने सभी कामों में वह जीवित है, जिनकी छाप, आश्रम की धूल मे से दौड़कर निकल जानेवाले भी, देख सकते है । "
...
...
उनके जैसा सरदार अगर मुझे मिला होता तो उन्होने जितनी मेरी सेवा की थी, उतनी में अपने सरदार की नही कर सकता । उनका जीवन सपूर्ण था। आश्रम के वह प्राण थे। मै तो केवल घूमता फिरा और आश्रम के प्रति बेवफा रहा । उन्होने आश्रम की सेवा में अपना शरीर गला दिया था । मै मीराबाई के समान जहर का प्याला पी सकता हू, मेरे गले मे कोई सांपों की माला डाल दे तो उसे सहन कर सकता हू, किंतु यह वियोग उन दोनो से भी अधिक कठिन है । तो भी छाती कठिन करके, उनका गुण- कीर्तन करते हुए मैने अपने हृदय में उनकी मूर्ति स्थापित की है।
...
रूखी बहन बिल्कुल बच्ची थी, तब से सतोक ४ के जीते- जी भी मगनलाल के हाथों पली थी। इसके जीने की शायद ही आशा थी । मुश्किल से सास ले सकती थी । इस लड़की को मगन- लाल नहलाते, बाल सवारते और पास बैठाकर खिलाते थे और अपने दूसरे बच्चो की भी देखभाल करते थे । फिर भी नौकरी में सबसे ज्यादा काम करते थे । सुदर से - सुदर बाडी उन्होने बनाई थी । फिनिक्स मे पहला गुलाब का फूल उन्हीने उगाया था । फिनिक्स की कितनी ही सख्त जमीन मे जब उनकी कुदाली की चोट पडती थी तब धरती कापती मालूम होती थी ।
मगनलाल में आत्म-विश्वास था । अपने काम के बारे में श्रद्धा थी । और भगवान् ने उन्हें बलवान शरीर दिया था । यह शरीर अत मे आश्रम के बोझ से और उनकी तपश्चर्या से कमजोर हो गया था । "
...
उन्होने आश्रम के लिए जन्म लिया था। सोना जैसे अग्नि में तपता है वैसे मगनलाल सेवाग्नि में तपे और कसौटी पर सो फी- सदी खरे उतरकर दुनिया से कूच कर गये । आश्रम मे जो कोई भी है वह मगनलाल की सेवा की गवाही देता है ।"
--