गुरु के विषय मे शिष्य क्या लिखे । उसका लिखना एक प्रकार की धृष्टता मात्र है। सच्चा शिष्य वही है जो गुरु मे अपने- को लीन कर दे, अर्थात् वह टीकाकार हो ही नही सकता । जो भक्ति दोष देखती हो वह सच्ची भक्ति नही और दोष गुण के पृथक्करण मे असमर्थ लेखक द्वारा की गई गुरु-स्तुति को यदि सर्वसाधारण अगीकार न करे तो इसपर उसे नाराज होने का
कार नही हो सकता । शिष्य के आचरणो ही से गुरु की टीका होती है । गोखले राजनैतिक विषयो मे मेरे गुरु थे, इस बात को मै अनेक बार कह चुका हू । इस कारण उनके विषय में कुछ लिखने मे मै अपनेको असमर्थ समझता हू । मैं चाहे जितना लिख जाऊ, मुझे थोडा ही मालूम होगा । मेरे विचार से गुरु-शिष्य का सबध शुद्ध आध्यात्मिक संबध है। वह अकशास्त्र के नियमानुसार नही होता । कभी-कभी वह हमारे बिना जाने भी हो जाता है । उसके होने मे एक क्षण से अधिक नही लगता, पर एक बार होकर वह फिर टूटना जानता ही नही ।
१८९६ ई० में पहले-पहल हम दोनों व्यक्तियो मे यह सबधहुआ। उस समय न मुझे उनका खयाल था और न उन्हे मेरा । उसी समय मुझे गुरुजी के भी गुरु लोकमान्य तिलक, सर फिरोज- शाह मेहता, जस्टिस बदरुद्दीन तैयबजी, डा० भाडारकर तथा बगाल और मद्रास प्रात के और भी अनेक नेताओ के दर्शनो का सौभाग्य प्राप्त हुआ । मैं उस समय बिल्कुल नवयुवक था, मुझ- पर सबने प्रेम-वृष्टि की । सबके एकत्र दर्शन का वह प्रसग मुझे कभी न भूलेगा, परतु गोखले से मिलकर मेरा हृदय जितना शीतल हुआ उतना औरो से मिलने से नही हुआ। मुझे याद नही आता कि गोखले ने मुझपर औरो की अपेक्षा अधिक प्रेम-वृष्टि -की थी । तुलना करने से मैं कह सकता हू कि डा० भाडारकर ने मुझपर जितना अनुराग प्रकट किया उतना और किसीने नही किया । उन्होने कहा - " यद्यपि मैं आजकल सार्वजनिक कार्यों से अलग रहता हू, फिर भी केवल तुम्हारी खातिर में उस सभाका अध्यक्ष बनना स्वीकार करता हू, जो तुम्हारे प्रश्न पर विचार करने के लिए होनेवाली है ।" यह सब होते हुए भी केवल गोखले ही ने मुझे अपने प्रेम-पाश में आबद्ध किया । उस समय मुझे इस बात का बिल्कुल ज्ञान नही हुआ । पर सन् १९०२ वाली कलकत्ते की काग्रेस मे मुझे अपने शिष्य-भाव का पूरा-पूरा अनुभव हुआ । उपर्युक्त नेताओ मे से अनेक के दर्शनों का उस समय मुझे फिर सौभाग्य प्राप्त हुआ। किंतु मैने देखा कि गोखले को मेरी याद बनी हुई थी । देखते ही उन्होने मेरा हाथ पकड लिया । वह मुझे अपने घर खीच ले गये। मुझे भय था कि विषय निर्वाचिनी- समिति मे मेरी बात न सुनी जायगी। प्रस्तावो की चर्चा शुरू हुई और खतम भी हो गई, पर मुझे अत तक यह कहने का साहस न हुआ कि मेरे मन मे भी दक्षिण अफ्रीका - सबधी एक प्रश्न है । मेरे लिए रात को कौन बैठा रहता । नेतागण काम को जल्दी निपटाने के लिए आतुर हो गये । उनके उठ जाने के डर से में कापने लगा। मुझे गोखले को याद दिलाने का भी साहस न हुआ ।
इतने में वह स्वयं ही बोले - मि० गाधी भी दक्षिण अफ्रीका के हिंदुस्तानियों की दशा के सबंध में एक प्रस्ताव करना चाहते है । उसपर अवश्य विचार किया जाय। मेरे आनंद की सीमा न रही । राष्ट्रसभा के संबध मे मेरा यह पहला ही अनुभव था । इसलिए उससे स्वीकृत होनेवाले प्रस्तावो का मै बड़ा महत्त्व समझता था । इसके बाद भी उनके दर्शन के कितने ही अवसर उपस्थित हुए और वे सभी पवित्र है । पर इस समय जिस बात को मै उनका महामंत्र मानता हूँ, उसका उल्लेख कर, इसे पूर्ण करना उत्तम होगा । •
इस कठिन कलिकाल में किसी विरले ही मनुष्य मे शुद्ध धर्मभाव देख पडता है। ऋषि, मुनि, साधु आदि नाम धारण कर. भटकते फिरनेवालो को इस भाव की प्राप्ति शायद ही कभी होती है । आजकल उनका धर्म-रक्षक पद से च्युत हो जाना सभी लोग देख रहे है। यदि एक ही सुदर वाक्य मे धर्म की पूरी व्याख्या कही है तो वह भक्त शिरोमणि गुजराती कवि नरसिंह मेहता के इस वाक्य में है
"ज्यां लगी आतमा तत्व चीन्यो नहीं,
त्यां लागी साधना सर्व जूठी ।"
अर्थात्–“जबतक आत्मतत्व की पहचान न हो तबतक सभी साधनाए निरर्थक है ।" यह वचन उसके अनुभव-सागर के मथन से निकला हुआ रत्न है । इससे ज्ञात होता है कि महा- तपस्वी तथा योगीजनो मे भी ( सच्चा ) धर्मभाव होना अनि- वार्य नही है । गोखले को आत्मतत्व की उत्तम ज्ञान था, इसमें मुझे तनिक भी सदेह नहीं । यद्यपि वह सदा ही धार्मिक आडंबर से दूर रहे, फिर भी उनका सपूर्ण जीवन धर्ममय था । भिन्न-भिन्न युगों में मोक्ष-मार्ग पर लगानेवाली प्रवृत्तिया देखी गई है । जब- जब धर्मबधन ढीला पडता है तब-तब कोई एक विशेष प्रवृत्ति धर्म - जागृति मे विशेष उपयोगी होती है । यह विशेष प्रवृत्ति उस समय की परिस्थिति के अनुसार भिन्न-भिन्न प्रकार की होती है । आजकल हम अपनेको राजनैतिक विषयो मे अवनत देखते हैं। एकागी दृष्टि से विचार करने से जान पडेगा कि राजनैतिक सुधार से ही अन्य बातो मे हम उन्नति कर सकेगे । यह बात एक प्रकार से सच भी है। राजनैतिक अवस्था के सुधार के बिना उन्नति होना संभव नही । पर राजनैतिक स्थिति में परिवर्तन होने ही से उन्नति न होगी। परिवर्तन के साधन यदि दूषित तथा घृणित हुए तो उन्नति के बदले और अवनति ही होने की अधिकतर संभावना है । जो परिवर्तन शुद्ध और पवित्र साधनो से किया जाता है वही हमे उच्च मार्ग पर ले जा सकता है | सार्वजनिक कामो मे पडते ही गोखले को इस तत्व का ज्ञान हो गया था और इसको उन्होने कार्य मे भी परिणत किया । यह बात सभी लोग जाते थे कि यह भव्य विचार उन्होने अपनी भारत सेवक समिति तथा सपूर्ण जन-समुदाय के सम्मुख रखा कि यदि राजनीति को धार्मिक स्वरूप दिया जायगा तो यही मोक्ष-मार्ग पर ले जानेवाली हो जायगी। उन्होने साफ कह दिया कि जबतक हमारे राजनैतिक कार्यों को धर्मभाव की सहायता न मिलेगी तबतक वे सूखे, रस- ही, ही बने रहेंगे। उनकी मृत्यु पर 'टाइम्स ऑव इंडिया' में जो लेख प्रकाशित हुआ था उसके लेखक ने इस बात का स्पष्ट उल्लेख किया था और राजनैतिक सन्यासी उत्पन्न करने के उनके प्रयत्न की सफलता पर अविश्वास प्रकट करते हुए, उनकी यादगार 'भारत सेवक समिति' का ध्यान इसकी ओर आकर्षित किया था । वर्तमान काल मे राजनैतिक सन्यासी ही सन्यासाश्रम की गौरववृद्धि कर सकते है । अन्य गेरुवा वस्त्रधारी सन्यासी उनकी अपकीर्ति के ही कारण है । शुद्ध धर्म मार्ग मे चलनेवाले किसी भारतवासी का राजनैतिक कामो से परे रहना कठिन है । उसी बात को मैं दूसरी तरह अगीकार किये बिना रह ही नही सकता । और आजकल की राज्य-व्यवस्था के जाल में हम इस तरह फस ये है कि राजनीति से अलग रहते हुए, लोक-सेवा करना सर्वथा असभव ही है। पूर्व समय मे जो किसान इस बात को जाने बिना भी कि जिस देश मे हम बसते है, उसका अधिकारी कौन है, अपनी जीवन-यात्रा भलीभाति निर्वाह कर लेता था, वह आज ऐसा नही कर सकता।
ऐसी दशा मे उसका धर्माचरण राजनैतिक परिस्थिति के अनुसार ही होना चाहिए । यदि हमारे साधु, ऋषि, मुनि, मौलवी और पादरी इस उच्च तत्व को स्वीकार कर ले तो जहा देखिये वही भारत सेवक समितिया ही दिखाई देने लगे और भारत मे धर्मभाव इतना व्यापक हो जाय कि जो राजनैतिक चर्चा आज लोगो को अरुचिकर होती है वही उन्हे पवित्र और प्रिय मालम होने लगे, फिर पहले ही की तरह भारत- वासी धार्मिक साम्राज्य का उपभोग करने लगे। भारत का बधन एक क्षण में दूर हो जाय और वह स्थिति प्रत्यक्ष आखो के सामने, आ जाय, जिसका दर्शन एक प्राचीन कवि ने अपनी अमरवाणी मे इस प्रकार किया है -- फौलाद से तलवार बनाने का नही, बल्कि ( हल की ) फाल बनाने का काम लिया जायगा और सिह और बकरे साथ-साथ विचरण करेंगे। ऐसी स्थिति उत्पन्न करनेवाली प्रवृत्ति ही गुरुवर गोखले का जीवन-मत्र थी । यही उनका सदेश है और मुझे विश्वास है कि शुद्ध और सरल मन से विचार करने पर उनके भाषणो के प्रत्येक शब्द मे यह मंत्र लक्षित होगा ।
यत्करोषि यदश्नासि यज्जुहोषि ददासि यत् ।
यत्तपस्यसि कौन्तेय ! तत्कुरुष्व मदर्पणम् ॥
श्री कृष्ण ने अर्जुन को जो उपदेश दिया था, वही उपदेश भारत माता ने महात्मा गोखले को दिया था और उनके आचरणो से सूचित होता है कि उन्होने उसका पालन भी किया है । यह सर्वमान्य बात है कि उन्होने जो-जो किया, जिस-जिस का उपभोग किया, जो स्वार्थ त्याग किया, जिस तप का आचरण किया, वह सभी कुछ उन्होने भारत माता के चरणो मे अर्पण कर दिया ।
केवल देश ही के लिए जन्म लेनेवाले इस महात्मा का अपने देश -धुओ के प्रति क्या सदेश है ? 'भारत सेवक समिति' के जो सेवक महात्मा गोखले के अतिम समय में उनके पास उपस्थित थे, उन्हें उन्होने निम्नलिखित वाक्य कहे थे.
" (तुम लोग ) मेरा जीवन चरित लिखने न बैठना, मेरी मूर्ति बनवाने मे भी अपना समय मत लगाना । तुम लोग भारत के सच्चे सेवक होगे तो अपने सिद्धांत के अनुसार आचरण करने • अर्थात् भारत की ही सेवा करने मे अपनी आयु व्यतीत करोगे ।"
सेवा के संबध मे उनके आतरिक विचार हमे मालूम है । राष्ट्रीय सभा का कार्य सचालन, भाषण तथा लेख द्वारा जनता को देश की सच्ची स्थिति का ज्ञान कराना, प्रत्येक भारतवासी को साक्षर बनाने का प्रयत्न कराना, ये सब काम सेवा ही है । पर किस उद्देश्य और किस प्रणाली से यह सेवा की जाय ? इस प्रश्न का वह जो उत्तर देते वह उनके इस वाक्य से प्रकट होता है । अपनी सस्था ('भारत सेवक समिति' ) की नियमावली बनाते हुए उन्होने लिखा है, “सेवको का कर्त्तव्य भारत के राजनैतिक जीवन को धार्मिक बनाना है ।" इसी एक वाक्य मे सब कुछ भरा हुआ है । उनका जीवन धार्मिक था । मेरा विवेक इस बात का साक्षी है कि उन्होने जो-जो काम किये सब धर्मभाव ही की प्रेरणा से किये । बीस साल पहले उनका कोई-कोई उद्गार या कथन नास्तिको का - सा होता था। एक बार उन्होने कहा था- "क्या ही अच्छा होता यदि मुझमे भी वही श्रद्धा होती, जो रानडे मे थी ।" पर उस समय भी उनके कार्यों के मूल में उनकी धर्म- बुद्धि अवश्य रहती थी । जिस पुरुष का आचरण साधुओ के सदृश्य है, जिसकी वृत्ति निर्मल है, जो सत्य की मूर्ति है, जो नम्र है जिसने सर्वथा अहकार का परित्याग कर दिया है, वह निस्संदेह धर्मात्मा है । गोखले इसी कोटि के महात्मा थे। यह बात मैं उनके लगभग २० वर्षो की संगति के अनुभव से कह सकता हू ।
१८९६ मे मैने नेटाल की शर्तेंबदी की मजदूरी पर भारत में वाद-विवाद आरभ किया । उस समय कलकत्ता, बबई, पूना, मद्रास आदि स्थानो के नेताओं से मेरा पहले-पहल सबध हुआ । उस समय सब लोग जानते थे कि महात्मा गोखले रानडे के शिष्य है । फर्ग्यूसन कालेज को वह अपना जीवन भी अर्पण कर चुके थे, और मैं उस समय एक निरा अनुभवहीन युवक था । मैं पहले- पहल पूना मे उनसे मिला। इस पहली ही भेट में हम लोगो में जितना घनिष्ठ संबध हो गया उतना और किसी नेता से नही हुआ । महात्मा गोखले के विषय में जो बाते मैने सुनी थी वे सब . प्रत्यक्ष देखने में आईं। उनकी वह प्रेम युक्त और हास्यमय मूर्ति मुझे कभी न भूलेगी। मुझे उस समय मालूम हुआ कि मानो वह साक्षात् धर्म की ही मूर्ति है । उस समय मुझे रानडे के भी दर्शन हुए थे। पर उनके हृदय में मैं स्थान न पा सका । मैं उनके विषय में केवल इतना ही जान सका कि वह गोखले के गुरु है । अवस्था और अनुभव में वह मुझसे बहुत अधिक बडे थे, इस कारण अथवा और किसी कारण से मै रानडे को उतना न जान सका, जितना कि गोखले को मैने जाना ।
१८९६ ई० के अवसर से ही गोखले का राजनैतिक जीवन मेरे लिए आदर्श-स्वरूप हुआ । उसी समय से उन्होने राजनैतिक गुरु के नाते मेरे हृदय में निवास किया । उन्होने सार्वजनिक सभा (पूना) की त्रैमासिक पुस्तक का सपादन किया । उन्होने फर्ग्यूसन - कालेज में अध्यापन कार्य करके उसे उन्नत दशा को पहुचाया। उन्होने ब्रेल्वी-कमीशन के सामने गवाही देकर अपनी वास्तविक योग्यता का प्रमाण दिया, उनकी बुद्धिमत्ता की छाप लार्ड कर्जन पर —उन लार्ड कर्जन पर जो अपने सामने किसीको कुछ न गिनते थे - बैठी और वह उनसे शक्ति रहने लगे ।
उन्होने बडे-बडे काम करके मातृभूमि की कीर्ति को उज्ज्वल किया । पब्लिक सर्विस कमीशन का काम करते समय उन्होने अपने जीने-मरने तक की परवा न की । उनके इन तथा अन्य कार्यो का दूसरे व्यक्तियो ने उत्तम रीति से वर्णन किया है।
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जनरल बोथा तथा स्मट्स से जब उन्होने दक्षिण अफ्रीका की राजधानी प्रिटोरिया मे मुलाकात की थी उस समय इस मुलाकात के लिए तैयार होने में उन्होने जितना परिश्रम किया था वह मुझे इस जन्म मे नही भूल सकता। मुलाकात के पहले दिन उन्होने मेरी और मि० कैलेनबेक की परीक्षा ली । वह स्वयं रात के तीन ही बजे जाग पड़े और हम लोगो को भी उन्होने जगाया। उन्हें जो पुस्तकें . दी गई थी उनको उन्होने अच्छी तरह पढ लिया था। अब हम लोगों से जिरह करके वह इस बात का निश्चय करना चाहते थे कि उनकी तैयारी पूरी हुई या अभी उसमे कसर है। मैने उनसे विनयपूर्वक कहा कि इतना परिश्रम अनावश्यक है। हम लोगो को तो कुछ मिले या न मिले, लडना ही होगा, पर अपने आराम के लिए मै आपका बलिदान नही करना चाहता । पर जिस पुरुष ने सर्वदा काम मे लगे रहने की आदत ही बना रखी थी, वह मेरी बातो पर कब ध्यान देता ! उनकी जिरहो का में क्या वर्णन करू । उनकी चिताशीलता की कितनी प्रशसा करू । इतने परिश्रम का एक ही परिणाम होना चाहिए था । मत्रि - मंडल ने वचन दिया कि आगामी बैठक मे सत्याग्रहियों की आकाक्षाओ को स्वीकार करने वाला कानून पास किया जायगा और मजदूरो को ४५ रुपयो का जो कर देना पडता है वह माफ कर दिया जायगा ।
पर इस वचन का पालन नही किया गया । तो क्या गोखले निश्चेष्ट हो बैठ रहे ? एक क्षण के लिए भी नही । मेरा विश्वास है कि १९१३ ई० मे उक्त वचन को पूरा कराने के लिए उन्होंने जो अविराम श्रम किया, उससे उनके जीवन के दस वर्ष अवश्य छीजे होगे । उनके डाक्टर की भी यही राय है । उस वर्ष भारत में जागृति उत्पन्न करने और द्रव्य एकत्र करने के लिए उन्होने जितने कष्ट सहे, उनका अनुमान कठिन है । यह महात्मा गोखले का ही प्रताप था कि दक्षिण अफ्रीका के प्रश्न पर भारतवर्ष हिल उठा । लार्ड हार्डिज ने मद्रास मे इतिहास में यादगार होने योग्य जो भाषण दिया वह भी उन्हीका प्रताप था। उनसे घनिष्ठ परिचय रखनेवालो का कहना है कि दक्षिण अफ्रीका के मामले की चिता ने उन्हे चारपाई पर डाल दिया, फिर भी अत तक उन्होने विश्राम करना स्वीकार न किया । दक्षिण अफ्रीका से आधी रात को आने वाले पत्र - सरीखे लबे-चौडे तारो को उसी क्षण पढना, जवाब तैयार करना, लार्ड हार्डिज के नाम पर तार भेजना, समाचार- पत्रो में प्रकाशित कराये जानेवाले लेख का मसविदा तैयार करना और इन कामो की भीड मे खाने और सोने तक की याद न. रहना, रात-दिन एक कर डालना, ऐसी अनन्य निस्स्वार्थं भक्ति वही करेगा जो धर्मात्मा हो ।
• हिंदू और मुसलमान के प्रश्न को भी वह धार्मिक दृष्टि से ही देखते थे। एक बार अपनेको हिदू कहनेवाला एक साधु उनके पास आया और कहने लगा कि मुसलमान नीच है और हिदू उच्च | महात्मा गोखले को अपने जाल में फसते न देख उसने उन्हे दोष देते हुए कहा कि तुम मे हिदुत्व का तनिक भी अभिमान नही | महात्मा गोखले ने भवे चढाकर हृदय-भेदी स्वर मे उत्तर दिया--"यदि तुम जैसा कहते हो वैसा करने ही मे हिंदुत्व है तो मैं हिदू नही । तुम अपना रास्ता पकडो ।”
महात्मा गोखले में निर्भयता का गुण बहुत अधिक था । धर्मनिष्ठा मे इस गण का स्थान प्राय सर्वोच्च है । लेफ्टिनेट रैड की हत्या के पश्चात पूना मे हलचल मच गई थी । गोखले उस समय इग्लैड मे थे । पूनावालो की तरफ से वहा उन्होने जो व्याख्यान दिये वे सारे जगत मे प्रसिद्ध है । उनमे वह कुछ ऐसी बाते कह गये थे, जिनका पीछे वह सबूत न दे सकते थे। थोडे ही दिनो बाद वह भारत लौटे । अपने भाषणो मे उन्होने अग्रेज सिपाहियों पर जां इलजाम लगाया था उसके लिए उन्होने माफी माग ली। इस माफी मागने के कारण यहा के बहुत से लोग उनसे नाराज भी हो गये । महात्मा को कितने ही लोगो ने सार्वजनिक कामो से अलग हो जाने की सलाह दी। कितने ही नासमझो ने उनपर भीरुता IT आरोप करने में भी आगापीछा न किया । इन सबका उन्होने अत्यत गभीर और मधुर भाषा में यही उत्तर दिया--" देश- सेवा का कार्य मैने किसीकी आज्ञा से अगीकार नही किया है। और किसीकी आज्ञा से उसे मैं छोड भी नही सकता । अपना कर्त्तव्य करते हुए यदि मैं लोकपक्ष के साथ रहने के योग्य समझा जाऊ तो अच्छा ही है, पर यदि मेरे भाग्य वैसे न हो तो भी मै उसे अच्छा ही समझूगा ।" काम करना उन्होने अपना धर्म माना था । जहातक मेरा अनुभव है, उन्होने कभी स्वार्थ- दृष्टि से इस बात का विचार नही किया कि मेरे कार्यो का जनता पर क्या प्रभाव पडेगा । मेरा विश्वास है कि उनमे वह शक्ति थी जिससे यदि देश के लिए उन्हें फासी पर चढना होता तो भी वह अविचलित चित्त से हसते हुए फासी पर चढ जाते । मै जानता हू कि अनेक बार उन्हें जिन अवस्थाओ मे रहना पड़ा है उनमे रहने की अपेक्षा फासी पर चढना कही सहज था । ऐसी विकट परिस्थितियो का उन्हे अनेक बार सामना करना पडा, पर उन्होने कभी पाव पीछे न हटाया ।
इनसब बातो से तात्पर्य यह निकलता है कि यदि इस महान् देशभक्त के चरित्र का कोई अश हमारे ग्रहण करने योग्य है तो वह उनका धर्म-भाव ही है । उसीका अनुकरण करना हमे उचित है । हम सब लोग बडी व्यवस्थापिका सभा के सदस्य नही हो सकते । हम यह भी नही देखते कि उसके सदस्य होने से देश सेवा हो ही जाती है । हम सब लोग पब्लिक सर्विस कमीशन मे नही बैठ सकते। यह बात भी नही है कि उसमे के सब बैठनेवाले देशभक्त ही होते है | हम सब लोग उनकी बराबरी के विद्वान नही हो सकते और विद्वानमात्र के देख-सेवक होने का भी हमे अनुभव नही है । परतु निर्भयता, सत्य, धैर्य, नम्रता, न्यायशीलता, सरलता और अध्यवसाय आदि गुणो का विकास कर उन्हें देश के लिए अर्पण करना सबके लिए साध्य है, यही धर्मभाव है । राजनैतिक जीवन को धर्ममय करने का यही अर्थ है। उक्त वचन के अनुसार आचरण करनेवाले को अपना पथ सदा ही सूझता रहेगा । महात्मा गोखले की संपत्ति का भी वही उत्तराधिकारी होगा । इस प्रकार की निष्ठा से काम करनेवाले को और भी जिन-जिन विभूतियो की आवश्यकता होगी वे सब प्राप्त होगी । यह ईश्वर का वचन है। और महात्मा गोखले इसका ज्वलत प्रमाण है । "
विश्व-बधुत्व की भावना उन्होने स्वय अपने जीवन मे चरि- तार्थ करके दिखा दी, इस बात को उनके साथी खूब अच्छी तरह से जानते है । पारिया ( अत्यज) कहे जानेवाले भाइयो से वह खूब दिल खोलकर मिलते थे । यह बात उनमे नही थी कि वह किसी पर कृपा या अहसान कर रहे है । उनके हृदय मे तो केवल सेवा का ही आदर्श था । उनका विश्वास था कि सार्वजनिक आदमी जनता के नेता नही, बल्कि सेवक है । उनकी दृष्टि में सबसे बडा सेवक ही सबसे बडा नेता था। वह हर तरह एक सच्चे जन्मना ब्राह्मण थे । वह जन्मजात अध्यापक भी थे। उनसे जब कोई 'प्रोफेसर' कहता तो बडे प्रसन्न होते थे । विनम्रता की तो वह मूर्ति थे । राष्ट्र को उन्होने अपना सर्वस्व दे दिया था। चाहते तो वह मालामाल हो जाते, लेकिन उन्होने तो स्वेच्छा से गरीबी का ही बाना पसंद किया। गोखले ने एक महान अवसर पर लिखा था, "जो सेवा किसी व्यक्ति के कहने से हाथ मे नही ली जाती, वह किसी दूसरे की आज्ञा से त्यागी भी नही जा सकती । इसलिए सबसे निरापद नियम तो यह है कि मनुष्य को हम उसके वर्तमान रूप मे ही ग्रहण करे, फिर चाहे जिस कुल में वह पैदा हुआ हो और उसकी जाति या उसका रग चाहे जो हो । ""