तेरह वर्ष की उम्र मे मेरा विवाह हो गया। दो मासूम बच्चे अनजाने ससार-सागर में कूद पडे। हम दोनो एक-दूसरे से डरते थे, ऐसा खयाल आता है। एक-दूसरे से शरमाते तो थे ही । धीरे-धीरे हम एक-दूसरे को पहचानने लगे। बोलने लगे। हम दोनों हम उम्र थे, पर मैने पति का अधिकार जताना शुरू कर दिया ।...
कस्तूरबाई निरक्षर थी । स्वभाव उनका सरल और स्वतंत्र था। वह परिश्रमी भी थी; पर मेरे साथ कम बोला करती । अपने अज्ञान पर उन्हे असतोष न था । अपने बचपन में मैने कभी उनकी ऐसी इच्छा नही देखी कि 'वह पढते है तो मैं भी पढ़ ।' उन्हे पढाने की मुझे बडी चाह थी ।
पढाने की जितनी कोशिशे कीं वे सब प्राय बेकार गई । शिक्षक रखकर पढाने के मेरे यत्न भी विफल हुए। इसके फलस्वरूप कस्तूरबाई मामूली चिट्ठी-पत्री व गुजराती लिखने-पढने से अधिक साक्षर न हो पाईं।
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दक्षिण अफ्रीका के सत्याग्रह की लडाई के काम से मुक्त होने के बाद मैने सोचा कि अब मेरा काम दक्षिण अफ्रीका में नहीं, बल्कि देश मे है । दक्षिण अफ्रीका में बैठे-बैठे मै कुछ-न-कुछ सेवा तो जरूर कर पाता था, परतु मैने देखा कि यहा कही मेरा मुख्य काम धन कमाना ही न हो जाय ।
देश से मित्र लोग भी देश लौट आने को आकर्षित कर रहे थे । मुझे भी जचा कि देश जाने से मेरा अधिक उपयोग हो सकेगा ।
मैने साथियो से छुट्टी देने का अनुरोध किया । बडी मुश्किल से उन्होने एक शर्त पर छुट्टी स्वीकार की। वह यह कि एक साल के अदर लोगो को मेरी जरूरत मालूम हो तो मै फिर दक्षिण अफ्रीका आ जाऊगा । मुझे यह शर्त कठिन मालूम हुई, परतु मै तो प्रेम-पाश में बधा हुआ था। मित्रो की बात को टाल नही सकता था। मैने वचन दिया । इजाजत मिली |
इस समय मेरा निकट - सबध प्राय नेटाल के ही साथ था । नेटाल के हिदुस्तानियों ने मुझे प्रेमामृत से नहला डाला । स्थान- स्थान पर अभिनंदन पत्र दिये गये और हरेक जगह से कीमती ची नजर की गई ।
१८९६ मे जब मै देश आया था तब भी भेटे मिली थी; पर इस बार की भेटो और सभाओ के दृश्यों से में घबराया । भेट में सोने-चांदी की चीजे तो थी ही; पर हीरे की चीजे भी थी ।
इनसब चीजो को स्वीकार करने का मुझे क्या अधिकार हो सकता है ? यदि मैं इन्हे मजूर कर लू तो फिर अपने मन को यह कहकर कैसे मना सकती हू कि मै पैसा लेकर लोगो की सेवा नहीं करता था ? मेरे मवक्किलो की कुछ रकमो को छोड़कर वालो सब चीजे मेरी लोक-सेवा के ही उपलक्ष मे दी गई थी । पर मेरे मन मे तो मवक्किल और दूसरे साथियों में कुछ भेद न था । मुख्य- मुख्य मवक्किल सब सार्वजनिक काम मे भी सहायता देते थे ।
फिर उन भेटो मे एक पचास गिनी का हार कस्तूरबाई के लिए था। मगर उसे जो चीज मिली वह भी थी तो मेरी ही सेवा के उपलक्ष मे । अतएव उसे पृथक नही मान सकते थे ।
जिस शाम को इनमे से मुख्य-मुख्य भेटे मिली, वह रात मैंने एक पागल की तरह जागकर काटी । कमरे मे यहा से वहा टहलता रहा, परतु गुत्थी किसी तरह सुलझती न थी । सैकडो रुपयो की भेटे न लेना भारी पड रहा था, पर ले लेना उससे भी भारी मालूम होता था ।
मै चाहे इन भेटो को पचा भी सकता, पर मेरे बालक और पत्नी ? उन्हें तालीम तो सेवा की मिल रही थी । सेवा का दाम नही लिया जा सकता था, यह हमेशा समझाया जाता था। घर मे कीमती जेवर आदि में नही रखता था । सादगी बढती जाती थी । ऐसी अवस्था में सोने की घडिया कौन रखेगा ? सोने की कठी और हीरे की अंगूठिया कौन पहनेगा ? गहनो का मोह छोडने के लिए मैं उस समय भी औरो से कहता रहता था । अब इन गहनो और जवाहरात को लेकर मैं क्या करूंगा ?
इस निर्णय पर पहुचा कि वे चीजे मै हरगिज नही रख सकता । पारसी रुस्तमजी इत्यादि को इन गहनो का ट्रस्टी बना- कर उनके नाम एक चिट्ठी तैयार की और सुबह स्त्री-पुत्रादि से सलाह करके अपना बोझ हलका करने का निश्चय किया।
जाता था कि धर्मपत्नी को समझाना मुश्किल पडेगा । मुझे विश्वास था कि बालको को समझाने मे जरा भी दिक्कत पेश आवेगी । अत उन्हें वकील बनाने का विचार किया ।
बच्चे तो तुरत समझ गये । वे बोले, "हमे इन गहनो से कुछ मतलब नही । ये सब चीजे हमे लौटा देनी चाहिए और यदि जरूरत होगी तो क्या हम खुद नही बना सकेगे ?"
में प्रसन्न हुआ । “तो तुम बा को समझाओगे न ?” मैने पूछा । “जरूर जरूर । वह कहा इन गहनो को पहनने चली है । वह रखना चाहेगी भी तो हमारे ही लिए न ? पर जब हमे ही इनकी जरूरत नही है तब फिर वह क्यो जिद करने लगी?"
परंतु काम अदाज से ज्यादा मुश्किल साबित हुआ । "तुम्हे चाहे जरूरत न हो और लडको को भी न हो। बच्चो का क्या ? जैसा समझा दे, समझ जाते है । मुझे न पहनने दो, पर मेरी बहुओ को तो जरूरत होगी। और कौन कह सकता है कि कल क्या होगा ? जो चीजे लोगो ने इतने प्रेम से दी है उन्हें वापस लौटाना ठीक नही ।" इस प्रकार वाग्धारा शुरू हुई और उसके साथ अश्रु- धारा आ मिली । लडके दृढ रहे और मै भला क्यो डिगने लगा
मैने धीरे से कहा, "पहले लडको की शादी तो हो लेने दो । हम बचपन मे तो इनके विवाह करना चाहते ही नही है । बड़े होने पर जो इनका जी चाहे सो करे । फिर हमे क्या गहनो - कपडो की शौकीन बहुए खोजनी है ? फिर भी अगर कुछ बनवाना ही होगा तो मैं कहा चला गया हू
"हा, जानती हू तुमको । वही न हो, जिन्होने मेरे भी गहने उतरवा लिये है । जब मुझे ही नही पहनने देते हो तो मेरी बहुओ को जरूर ला दोगे । लड़को को तो अभी से वैरागी बना रहे हो । इन गहनो को मैं वापस नही देने दूंगी और फिर मेरे हार पर तुम्हारा क्या हक है ?"
“पर यह हार तुम्हारी सेवा की खातिर मिला है या मेरी ?" मैने पूछा ।
" जैसा भी हो, तुम्हारी सेवा मे क्या मेरी सेवा नही है ? मुझ- से जो रात - दिन मजूरी कराते हो, क्या वह सेवा नही है ? मुझे रुला - रुलाकर जो ऐरै-गैरो को घर मे रखा और मुझसे सेवा - टहल कराई, वह कुछ भी नही ?"
ये सब बाण तीखे थे। कितने ही तो मुझे चुभ रहे थे । पर गहने वापस लौटाने का मै निश्चय कर चुका था । अंत मे बहुतेरी बातों मे मै जैसे-तैसे सम्मति प्राप्त कर सका ।...
जिस समय डरबन में मैं वकालत करता था, उस समय बहुत बार मेरे कारकुन मेरे साथ ही रहते थे । वे हिंदू और ईसाई होते थे, अथवा प्रातो के हिसाब से कहे तो गुजराती और मद्रासी । मुझे याद नही आता कि कभी उनके विषय मे मेरे मन मे भेद-भाव पैदा हुआ हो। मै उन्हे बिल्कुल घर के ही जैसा समझता और उसमे मेरी धर्मपत्नी की ओर से यदि कोई विघ्न उपस्थित होता तो मैं उससे लड़ता था । मेरा एक कारकुन ईसाई था । उसके मा-बाप पचम जाति के थे । हमारे घर की बनावट पश्चिमी ढग की थी। इस कारण कमरे मे मोरी नही होती थी और न होनी चाहिए थी, ऐसा मेरा मत है । इस कारण कमरो मे मोरियो की जगह पेशाब के लिए एक अलग बर्तन होता था । उसे उठाकर रखने का काम हम दोनो- दपती का था, नौकरो का नही। हा, जो कारकुन लोग अपने को हमारा बी-सा मानने लगते थे वे तो खुद ही उसे साफ कर डालते थे, लेकिन पचम जाति में जन्मा यह कारकुन नया था । उसका बर्तन हमे ही उठाकर साफ करना चाहिए था। दूसरे बर्तन तो कस्तूरबाई उठाकर साफ कर देती, लेकिन इन भाई का बर्तन उठाना उसे असह्य मालूम हुआ । इससे हम दोनो मे झगडा मचा । यदि मे उठाता हू तो उसे अच्छा नही मालूम होता था और खुद उसके लिए उठाना कठिन था । फिर भी आखो से मोती की बदे टपक रही है, एक हाथ मे बर्तन लिये अपनी लाल-लाल आंखो से उलहना देती हुई कस्तूरबाई सीढियो से उतर रही है, वह चित्र मै आज भी ज्यो-का-त्यों खीच सकता हूं।
परंतु मै जैसा सहृदय और प्रेमी पति था वैसा ही निष्ठुर और कठोर भी था। मै अपनेको उसका शिक्षक मानता था । इस- से अपने अंधप्रेम के अधीन हो मै उसे खूब सताता था । इस कारण महज उसके बर्तन उठा ले जाने-भर से मुझे सतोष न हुआ। मैने यह भी चाहा कि वह हँसते और हरखते हुए उसे ले जाय । इसलिए मैने उसे डांटा-डपटा भी। मैने उत्तेजित होकर कहा--"देखो, यह बखेडा मेरे घर मे नही चल सकेगा ।"
मेरा यह बोल कस्तूरबाई को तीर की तरह लगा । उसने धधकते दिल से कहा, "तो लो, रखो यह अपना घर ! मै चली ।"
उस समय मैं ईश्वर को भूल गया था । दया का लेशमात्र मेरे हृदय मे न रह गया था। मैने उसका हाथ पकड़ा। सीढी के सामने ही बाहर जाने का दरवाजा था। मैं उस दीन अबला का हाथ पकड़ कर दरवाजे तक खीचकर ले गया । दरवाजा आधा खोला होगा कि आखो मे गंगा-जमुना बहाती हुईं कस्तूरबाई बोली, "तुम्हें तो • कुछ शरम है नही, पर मुझे है । जरा तो लजाओ। मै बाहर निकल- कर आखिर जाऊ कहा ? मा-बाप भी यहा नही कि उनके पास चली जाऊ । मै ठहरी स्त्री जाति ! इसलिए मुझे तुम्हारी धौस सहनी ही पडेगी । अब जरा शरम करो और दरवाजा बंद कर लो । कोई देख लेगा तो दोनो की फजीहत होगी ।"
मैने अपना चेहरा तो सुर्ख बनाये रखा, पर मन मे शरमा जरूर गया । दरवाजा बंद कर दिया। जबकि पत्नी मुझे छोड़ नही सकती थी तब मै भी उसे छोड़कर कहा जा सकता था ? इस तरह हमारे आपस में लड़ाई-झगड़े कई बार हुए है, परंतु उनका परि- णाम सदा अच्छा ही निकला है । उनमें पत्नी ने अपनी अद्भुत सहनशीलता के द्वारा मुझपर विजय प्राप्त की ।
यह घटना १८९८ की है । उस समय मुझे ब्रह्मचर्य पालन के विषय में कुछ ज्ञान न था । वह समय ऐसा था जबकि मुझे इस बात का स्पष्ट ज्ञान न था कि पत्नी तो केवल सहधर्मिणी, सहचारिणी और सुख-दुख की साथिन है। मै यह समझकर बर्ताव करता था कि पत्नी विषय-भोग की भाजन है, उसका जन्म पति की हर तरह आज्ञाओ का पालन करने के लिए हुआ है ।
किंतु १९०० ई० से मेरे इन विचारो में गहरा परिवर्तन हुआ । १९०६ मे उसका परिणाम प्रकट हुआ, परतु इसका वर्णन आगे प्रसग आने पर होगा। यहा तो सिर्फ इतना बताना काफी है। कि ज्यो- ज्यो मै निर्विकार होता गया त्यो त्यो मेरा घर - ससार शात, निर्मल और सुखी होता गया । "
बा का जबरदस्त गुण महज अपनी इच्छा से मुझमे समा जाने का था। यह कुछ मेरे आग्रह से नही हुआ था। लेकिन समय पाकर Th अदर ही इस गुण का विकास हो गया था। मैं नही जानता था for a यह गुण छिपा हुआ था। मेरे शुरू-शुरू के अनुभव के अनु- सार बा बहुत हठीली थी । मेरे दबाव डालने पर भी वह अपना चाहा ही करती । इसके कारण हमारे बी व थोडे समय की या लबी. कडवाहट भी रहती, लेकिन जैसे-जैसे मेरा सार्वजनिक जीवन उज्ज्वल बनता गया, वैसे-वैसे बा खिलती गई और पुख्ता विचारो के साथ मुझमे यानी मेरे काम मे समाती गई । जैसे दिन बीतते गये, मुझमे और मेरे काम मे - सेवा मे -- भेद न रह गया । बा धीमे-धीमे उसमे तदाकार होने लगी । शायद हिदुस्तान की भूमि को यह गुण अधिक-से-अधिक प्रिय है । कुछ भी हो, मुझे तो Tata भावना का यह मुख्य कारण मालूम होता है ।
बा मे यह गुण पराकाष्ठा को पहुचा, इसका कारण हमारा ब्रह्मचर्य था । मेरी अपेक्षा बा के लिए वह बहुत ज्यादा स्वाभाविक सिद्ध हुआ। शुरू मे बा को इसका कोई ज्ञान भी न था । मैंने विचार किया और बा ने उसको उठाकर अपना बना लिया । परिणाम- स्वरूप हमारा सबंध सच्चे मित्र का बना । मेरे साथ रहने मे बा के लिए सन् १९०६ से, असल मे सन् १९०१ से, मेरे काम मे शरीक हो जाने के सिवा या उससे भिन्न और कुछ रह ही नही गया था । वह अलग रह नही सकती थीं । अलग रहने में उन्हें कोई दिक्कत न होती, लेकिन उन्होने मित्र बनने पर भी स्त्री के नाते और पत्नी के नाते मेरे काम मे समा जाने में ही अपना धर्म माना। इसमे बा ने निजी सेवाको अनिवार्य स्थान दिया । इसलिए मरते दम तक उन्होने मेरी सुविधा की देखरेख का काम छोडा ही नही ।
अगर में अपनी पत्नी के बारे मे अपने प्रेम और अपनी भावना का वर्णन कर सकू तो हिदूधर्म के बारे मे अपने प्रेम और अपनी भावनाओ को मै प्रकट कर सकता हू । दुनिया की दूसरी किसी भी स्त्री के मुकाबिले मे मेरी पत्नी मुझपर ज्यादा असर डालती है ।"
यद्यपि अपनी मृत्यु के कारण वह सतत वेदना से छूट गई है, इसलिए उनकी दृष्टि से मैने उनकी मौत का स्वागत किया है, तो भी इस क्षति से मुझको जितना दु ख होने की कल्पना मैने की थी उससे अधिक दु ख हुआ है । हम असाधारण दपती थे । १९०६ मे एक दूसरे की स्वीकृति से और अनजानी आजमाइश के बाद हमने आत्म-सयम के नियम को निश्चित रूप से स्वीकार किया था। इसके परिणामस्वरूप हमारी गाठ पहले से कही ज्यादा मजबूत बनी और मुझे उससे बहुत आनद हुआ। हम दो भिन्न व्यक्ति नही रह गये । मेरी वैसी कोई अच्छा नही थी, तो भी उन्होने मुझमे लीन होना पसंद किया । फलत वह सचमुच ही मेरी अर्धागिनी बनी । वह हमेशा से बहुत दृढ इच्छा शक्तिवाली स्त्री थी, जिनको अपनी नवविवाहित दशा मे मै भूल से हठीली माना करता था, लेकिन अपनी दृढ इच्छा शक्ति के कारण वह अनजाने ही अहिसक अस- योग की कला के आचरण मे मेरी गुरु बन गई । आचरण का आरभ मेरे अपने परिवार से ही किया । १९०६ मे जब मैने उसे राजनीति के क्षेत्र में दाखिल किया तब उसका अधिक विशाल और विशेष रूप से योजित 'सत्याग्रह' नाम पडा । दक्षिण अफ्रीका में जब हिदु- स्तानियो की जेल यात्रा शुरू हुई तब बा भी सत्याग्रहियो मे एक थी । मेरे मुकाबिले शारीरिक पीडा उनको ज्यादा हुई। वह कई बार जेल जा चुकी थी, फिर भी इस बार के इस कैद- खाने मे, जिसमे सभी तरह की सहूलियते मौजूद थी, उनको अच्छा नही लगा । दूसरे बहुतो के साथ मेरी और फिर तुरत ही उनकी जो गिरफ्तारी हुई, उससे उन्हें जोर का आघात पहुचा और उनका मन खट्टा हो गया। वह मेरी गिरफ्तारी के लिए बिल्कुल तैयार नही थी। मैने उन्हे विश्वास दिलाया था कि सरकार को मेरी अहिसा पर भरोसा है और जबतक मै खुद गिरफ्तार होना न चाहूं वह मुझे पकडेगी नही । सचमुच उनके ज्ञानततुओ को इतने जोर का धक्का बैठा कि उनकी गिरफ्तारी के बाद उन्हे दस्त की सख्त शिकायत हो गई । अगर उस समय डा० सुशीला नैयर ने, जो उनके साथ ही पकड़ी गईं थी, उनका इलाज न किया होता तो मुझसे इस जेल मे आकर मिलने से पहले ही उनकी देह छूट चुकी होती । मेरी हाजिरी से उन्हे आश्वासन मिला और बिना किसी खास इलाज के दस्त की शिकायत दूर हो गई । लेकिन मन जो खट्टा हुआ था, सो खट्टा ही बना रहा। इसकी वजह से उनके स्वभाव. मे चिड़चिड़ापन आ गया और इसीका नतीजा था कि आखिर कष्ट सहते-सहत क्रम-क्रम से उनका देहपात हुआ ।"
उनमे एक गुण बहुत बड़ा था । हर एक हिदू-पत्नी मे वह कमोबेश होता ही है । इच्छा से या अनिच्छा से अथवा जाने-अन- जाने भी वह मेरे पदचिह्नों पर चलने मे धन्यता अनुभव करती थी ।
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अगरचे में चाहता था कि उस तीव्र वेदना से उन्हे छुटकारा मिले और जल्दी ही उनकी देह का अत हो जाय तो भी आज उनकी कमी को जितना मैने माना था, उससे कही अधिक मै महसूस कर रहा हूं । हम असाधारण दंपती थे - अनोखे । हमारा जीवन सतोषी, सुखी और सदा ऊर्ध्वगामी था । "