दक्षिण अफ्रीका - निवासी भारतीयो को यह सुनकर बडी तसल्ली होगी कि माननीय शास्त्री ने पहला भारतीय राजदूत बनकर अफ्रीका में रहना स्वीकार कर लिया है, बशर्ते कि सरकार वह स्थान ग्रहण करने के प्रस्ताव को आखिरी बार उनके सामने रखे । भारत सेवक समिति और शास्त्रीजी ने यह बडा ही त्याग किया है, जो वह इस निर्णय पर पहुचे है । यह तो एक प्रकट रहस्य है कि यदि यह प्रस्ताव नही किया जाता तो वह भारत मे अपना काम छोडकर इस जिम्मेदारी को अपने सिर पर लेने के जरा भी इच्छुक नही थे । परतु जब उनसे साग्रह यह अनुरोध किया गया कि वह ही एक ऐसे आदमी है, जो उस समझौते के अनुसार कार्य शुरू कर सकते है, जिसके स्वीकृति कराने में उनका बहुत भारी हाथ रहा है, तो उन्हें इस प्रार्थना और आग्रह को मजूर करना ही पा । दक्षिण अफ्रीका से समय-समय पर जो तार भेजे गये थे उनसे हमे पता चलता है कि वहा के अग्रेज भी इस बात के लिए कितने उत्सुक थे कि शास्त्रीजी ही इस सम्माननीय पद को ग्रहण करे । शास्त्रीजी की वक्तृत्व-शक्ति, निस्पृहता, मधुर विवेक- शीलता और असीम सचाई ने यूनियन सरकार और वहा के यूरो- पीय लोगो के हृदय मे उनके लिए चाह और आदर उत्पन्न कर दिया, जब वह हबीबुल्ला - शिष्टमंडल के साथ कुछ दिन के लिए दक्षिण अफ़्रीका ये थे । मै खुद जानता हू कि हमारे दक्षिण अफ्रीका- निवासी भाई इस बात के लिए कितने असीम चिंतातुर थे कि किस प्रकार शास्त्रीजी ही, वहा भारत के पहले राजदूत बनकर जाय । और श्रीयुत श्रीनिवास शास्त्रीजी के लिए भी तो, जिन्हे परमात्मा ने ऐसे उदार हृदय से भूषित किया है, ऐसे सर्वसम्मत अनुरोध को अस्वीकार करना असंभव था । अब यह प्राय निश्चित है कि शीघ्र उनकी बाकायदा नियुक्ति होकर, उसकी खबर प्रकाशित कर दी जायगी ।
इन पहले राजदूत का काम भी उनके लिए निश्चित कर दिया जायगा । निस्सदेह, यूनियन सरकार और हमारे दक्षिण अफ्रीका के भारतीय भाई भी भारत के इस पहले राजदूत से बडी-बडी आशाए तो करते ही होगे । चूकि शास्त्रीजी स्वयं भारतीय और एक विख्यात पुरुष है, निस्सदेह यूनियन सरकार जरूर यह सोचती होगी कि जातक भारतीयो से सबध है, उन्हें समझा-बुझाकर शास्त्रीजी सरकार के प्रस्तावो आदि का काम सरल कर देगे । दूसरे शब्दो मे यो कहिये कि यूनियन सरकार उनसे आशा करती • है कि शास्त्रीजी उसकी बातो को भारतीय समाज तथा भारत- सरकार के सामने सहानुभूति - पूर्वक रखेगे। इधर भारतीय समाज भी आशा करता है कि शास्त्रीजी इस बात का जरूर आग्रह करेगे कि समझौते का सम्मानयुक्त, बल्कि उदारता-पूर्वक पालन हो । दो प्रतिस्पर्धी उम्मीदवारो को सतुष्ट करना यो कठिन तो है ही, पर दक्षिण अफ्रीका में, जहा कि जातियो और दलों के स्वार्थो में आश्चर्यजनक पारस्परिक विरोध है, यह काम कही अधिक मुश्किल है। किंतु मैं जानता हू कि अगर इस सूक्ष्म तराजू को अपने हाथ मे कोई उठा सकता है और दक्षिण अफ्रीका से संबंध रखनेवाले सभी दलो को सतुष्ट कर सकता है तो अकेले शास्त्रीजी ही एक ऐसे आदमी है । मेरा खयाल है कि यूनियन सरकार के मंत्री यह तो अपेक्षा नही रखते होगे कि भारतीय समाज को उसके न्याय्य स्वत्वो को दिलाने में शास्त्रीजी इच भर भी पीछे हट जाय । हा, अधिक-से-अधिक शास्त्रीजी यह कर सकते है कि वह भारतीयों को १९१४ के समझौते का उल्लघन करके आगे बढने से रोके, कम- से-कम तबतक तो जरूर रोके, जबतक कि वहा के भारतीय अनु- करणीय आत्मसयम और अपने अन्य व्यवहार द्वारा १९१४ मे प्राप्त किये समझौते से आगे बढने की अपनी पात्रता को सिद्ध नही कर देते ।
अतः यदि इस दक्षिण अफ्रीका के हमारे भारतीय भाई भारत के प्रतिनिधि के काम को सरल और अपनी परिस्थिति को सुरक्षित कर लेना चाहे तो वे उनसे बड़े-बड़े चमत्कारो की आशाए करना छोड दे । उनका यह अनुमान गलत होगा कि "चूकि हम अभी एक सम्माननीय समझौता करा चुके है और उसपर अमल कराने के लिए भारत का एक महान पुरुष हमारे यहा आ रहा है, इसलिए अब तो हमारी परिस्थिति में एकदम कायापलट हो जायगा ।" उन्हे याद रखना चाहिए कि माननीय शास्त्रीजी वहा उनके वकील बनकर, उनके प्रत्येक व्यक्तिगत शिकायत के लिए ast को नही जा रहे है । उनको मामूली व्यक्तिगत शिकायते सुना-सुनाकर परेशान करना उस सोने के अडे देनेवाले पक्षी की हत्या करने के समान है । वह तो वहा भारतीय सम्मान के रक्षक बन कर जा रहे है । सर्वसाधारण भारतीय समाज के स्वत्व और स्वाधीनता की रक्षा के लिए वह वहा जा रहे है । शास्त्रीजी वहा यह देखने के लिए जा रहे है कि यूनियन सरकार कही कोई नवीन रुकावटी कानून न बनाने पाये । अलावा इसके वह देखेगे कि वर्त मान कानूनो का पालन उदारता पूर्वक तो हो रहा है । उनके पालन भारतीयो के स्वत्वो को कोई हानि तो नही हो रही है, आदि । अत यदि उनसे कोई व्यक्तिगत शिकायत की भी जाय तो वह किसी व्यापक सर्वसाधारण नियम का उदाहरण स्वरूप हो । इस लिए यदि व्यक्तिगत मामलो मे शास्त्रीजी की सहायता मागने मे दक्षिण अफ्रीका का भारतीय समाज दूरदर्शी सयम से काम न लेगा तो वह उनकी परिस्थिति को असह्य और उस महान् उद्देश्य के लिए उन्हें असमर्थ बना देगा जिसके लिए वह वहा विशेष रूप से भेजे गये है । और सचमुच एक राजदूत की उपयोगिता केवल यही समाप्त नही हो जाती कि वह केवल सरकारी पद से सबध रखने- वाले अपने कर्तव्य का पालनभर कर ले, बल्कि उसकी वह अप्र- ' त्यक्ष सेवा कही अधिक उपयोगी है जो सरकारी तथा गैरसरकारी कामो को लेकर उससे मिलने-जुलनेवाले लोगो पर उसके मिलन- सार स्वभाव और सच्चरित्र के प्रभाव द्वारा होती है । अत. यदि हमारे देशभाई शास्त्रीजी के दिमागी और हृदय के महान गुणों करना चाहें तो वे मेरी बताई उपर्युक्त मर्यादाओ का जरूर खयाल रखे ।"
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इस सप्ताह मे मिले पत्र में एक सज्जन ने क्लर्कस्डोप की प्रसिद्ध घटना का, जिसके बारे में दक्षिण अफ्रीका के अखबारो के पन्ने-के-पन्ने भरे रहते है, आखो देखा सच्चा वर्णन किया है। यूनि- यन सरकार के निसंकोच पूरी और स्पष्ट माफी माग लेने से यद्यपि इस घटना पर राजनैतिक दृष्टि से अब कुछ भी कहना बाकी नही रह जाता है और न कुछ कहने की जरूरत ही है तो भी इस षडयंत्र के सामने जिसका कि परिणाम श्री शास्त्रीजी के लिए प्राणात भी हो सकता था, उन्होने जो उदारता और हिम्मत का व्यवहार किया उसकी प्रशसा कितनी ही क्यो न की जाय वह कम ही होगी । मेरे सामने जो पत्र है उससे मालूम होता है कि जिस सभा में वह व्याख्यान दे रहे थे, उसको तोड देने के लिए डेप्टीमेयर के नेतृत्व मे जो दल आया था उसने बत्तिया बुझा दी, फिर भी वह भारत माता का सच्चा सपूत और प्रतिनिधि अपने स्थान पर यत्किचित् भी घबडाये बिना डटा रहा, जरा भी न हटा और जब भडाका होने के कारण सभा के हाल मे श्रोताओ को सास लेना भी मुश्किल हो गया तब वह बाहर गये और वहा, जैसे कोई बात ही नही हुई हो, इस घटना के प्रति इशारा तक न करते हुए उन्होने अपना व्याख्यान पूरा किया । यो तो इस घटना के पहले ही दक्षिण अफ्रीका के यूरोपियनो में वह प्रिय हो गये थे; परंतु शास्त्रीजी के इस धीर हिम्मतभरे और उदार आचरण ने वहा के यूरोपियनों के विचार में उन्हें और भी अधिक गौरवान्वित कर दिया है और क्योकि उन्हें अपने लिए यश नही चाहिए था (शास्त्रीजी से अधिक कीर्ति से लजानेवाले मनुष्य कदाचित् ही मिल सकेगे ) उन्होने, जिस काम के वह प्रतिनिधि थे, उसके लाभ मे अपनी लोकप्रियता का बडी योग्यता और सफलता पूर्वक उपयोग किया । दक्षिण अफ्रीका मे उनके बहुत ही थीडे समय के निवास मे उन्होने अपने देशवासियो गौरव बहुत बढ़ा दिया है। हम यह आशा करे कि वहा के भार- तीय अपने आदर्श व्यवहार से अपनेको उस गौरव के योग्य प्रमा- णित करेंगे ।
परतु दक्षिण अफ्रीका के मुश्किल और नाजुक प्रश्न को हल करने में उनके कार्य का महत्व केवल इसीपर, जो एक घटना - मात्र है, निर्भर नही है । हम उनके दफ्तर की भीतरी कार्यवाही के विषय मे, सिवा उनके परिणामो के कुछ नही जानते । पर इसमे उन्हें उस सारी राजनीति -कला का उपयोग करना पड़ता था जो अपने पक्ष के सत्य होने के विश्वास से प्राप्त होती है तथा जो झूठ, कपट तथा नीचता को कभी बरदाश्त नही कर सकती । परतु हम यह जरूर जानते है कि सस्कृत और अंग्रेजी की अपार विद्वता और जुदा-जुदा विषय का ज्ञान, वाक्यपटुता इत्यादि कुदरत से प्रचुरता में मिली हुई बख्शीशो को अपने कार्य के लिए उपयोग करने में उन्होने कोई कसर नही की है । चुनंदा यूरोपियनो के बड़े श्रोतृ- समूह के आगे वह भारतीय तत्वज्ञान और सस्कृति पर व्याख्यान देते थे, जिससे उनके दिलो पर बड़ा असर होता था और उस पक्ष - पात के परदे को, जिसके कारण यूरोपियनो का बडा समूह भारतीय मे कोई गुण ही नही देख सकता था, उन्होने पतला कर दिया है । दक्षिण अफ्रीका में भारतीयों के प्रश्न में, ये व्याख्यान ही शायद उनका सबसे बडा और अधिक स्थायी हिस्सा है ।"
मौत ने न सिर्फ हमारे बीच से, बल्कि समूची दुनिया के बीच से भारत माता के एक बड़े-से-बड़े सपूत को उठा लिया है । उनके परिचय मे आनेवाला हरकोई देख सकता था कि वह हिंदु- स्तान को बहुत ही प्यार करते थे। पिछले दिनो जब मैं उनसे मद्रास मे मिला था, उन्होने सिवा हिदुस्तान और उसकी संस्कृति के, जिनके लिए वह जीये और मरे, दूसरी किसी बात की चर्चा ही नही की। जब वह मृत्यु - शय्या पर पडे दीखते थे, तब भी मुझे विश्वास है। कि उनको अपनी कोई चिंता नही थी। उनका संस्कृत - ज्ञान अग्रेजी के उनके अगाध ज्ञान से ज्यादा नही तो कम भी न था । मुझे एक ही बात और कहनी है और वह यह कि अगरचे राजनीति में हमारे खयाल एक-दूसरे से मिलते नही थे, तो भी हमारे दिल एक ही थे और मै यह कभी सोच नही सकता कि उनकी देशभक्ति हमारे किसी बड़े-से-बडे देशभक्त से कम थी। शास्त्रीजी जिदा है, यद्यपि उनका नामधारी शरीर भस्म हो चुका है ।