एक जमाना था, शायद सन् ' १५ की साल में, जब मै दिल्ली आया था, हकीम अजमल खां साहब से मिला और डाक्टर अंसारी से | मुझसे कहा गया कि हमारे दिल्ली के बादशाह अंग्रेज नही है, बल्कि ये हकीम साहब है । डाक्टर असारी तो बड़े बुजुर्ग थे, बहुत बड़े सर्जन थे, वैद्य थे। वह भी हकीमसाहब को जानते थे, उनके लिए उनके दिल में बहुत कद्र थी । हकीमसाहब भी मुसल- मान थे, लेकिन वह तो बहुत बडे बिद्वान् थे, हकीम थे। यूनानी हकीम थे, लेकिन आयुर्वेद का उन्होने कुछ अभ्यास किया था ।
केवहा हजारो मुसलमान आते थे और हजारो गरीब हिदू भी आते थे । साहूकार, धनिक मुसलमान और हिदू भी आते थे । एक दिन का एक हजार रुपया उनको देते थे । जहातक मै हकीम साहब को पहचानता था, उन्हे रुपये की नही पडी थी, लेकिन सबकी खिदमत की खातिर उनका पेशा था। वह तो बादशाह- जैसे थे । आखिर में उनके बाप-दादा तो चीन मे रहते थे, चीन के मुसलमान थे, लेकिन बड़े शरीफ थे । जितने हिंदू लोग मेरे पास आये, उनसे पूछा कि आपके सरदार यहां कौन है ? श्रद्धानंदजी ? श्रद्धानदजी यहां बडा काम करते थे। लेकिन नहीं, दिल्ली के सरदार तो हकीमसाहब थे । क्यो थे ? क्योकि उन्होंने हिंदू- मुसलमान सबकी सेवा ही की। यह सन् '१५ के साल की बात मैने कही। लेकिन बाद में मेरा ताल्लुक उनसे बहुत बढ़ गया और मैने उनको और पहचाना। "
वह हिंदुस्तान के हिंदू, मुसलमान, सिख, क्रिस्टो, पारसी, यहूदी सबके प्रिय थे । वह पबके मुसलमान थे, मगर वह इस खूबसूरत देश के रहनेवाले सब लोगो की समान सेवा करते थे । " " हकीम साहब के स्वर्गवास से देश का एक सबसे सच्चा सेवक उठ गया । हकीमसाहब की विभूतिया अनेक थी ।
हामिल हकीम ही नही थे, जो गरीबो और धनियो, सबके रोगो की दवा करता है। वह थे एक दरबारी देश भक्त, यानी अगर्चे कि उनका वक्त राजो - महाराजो के साथ मे बीतता था, मगर थे वह पक्के प्रजावादी । वह बहुत बडे मुसलमान थे और उतने ही बडे हिंदुस्तानी थे। हिंदू और मुसलमान दोनो से ही वह एक सा प्रेम करते थे । बदले मे हिंदू और मुसलमान दोनो ही एक समान उनसे मुहब्बत रखते थे, उनकी इज्जत करते थे। हिंदू-मुसलमान एकता पर वह जान देते थे । हमारे झगडो के कारण उनके अंतिम दिन कुछ दु. खजनक हो गये थे, मगर अपने देश और देश- बधुओं मे उनका विश्वास कभी नष्ट नही हुआ । उनका विचार था कि आखिर दोनो सम्प्रदायो को मेल करना ही पडेगा । यह अटल विश्वास लेकर उन्होने एकता के लिए प्रयत्न करना कभी नही छोड़ा। हालाकि उन्हें सोचने मे कुछ समय लगा, लेकिन अंत में वह असहयोग-आदोलन में कूद ही पडे, अपनी प्रियतम और सबसे बड़ी कृति तिब्बी कालेज को खतरे में डालते वह झिझके नही । इस कालेज से उनका इतना प्रबल अनुराग था, जिसका अदाजा सिर्फ वे ही लगा सकते है, जो हकीमजी को भलीभांति जानते थे । हकीमजी के स्वर्गवास से मैने न सिर्फ एक बुद्धिमान और दृढ साथी ही खोया है, बल्कि एक ऐसा मित्र खोया है, जिसपर मैं आड़े अवसरो पर भरोसा कर सकता था । हिदू-मुसलिम एकता के बारे मे वह हमेशा ही मेरे रहबर थे । उनकी निर्णय-शक्ति, गंभीरता और मनुष्य - प्रकृति का ज्ञान ऐसे थे कि वह बहुत करके सही फैसला ही किया करते थे।
ऐसा आदमी कभी मरता नही है । यद्यपि उनका शरीर अब नही रहा, मगर उनकी भावना तो हमारे साथ बराबर रहेगी और वह अब भी हमे अपना कर्तव्य पूरा करने को बुला रही है। जबतक हम सच्ची हिदू-मुसलिम एकता पैदा नही कर लेते, उनकी याद बनाये रखने के लिए हमारा बनाया कोई स्मारक पूरा हुआ नही कहा जा सकता । परमात्मा ऐसा करे कि जो काम हम उनके जीते-जी नही कर सके, वह उनकी मौत से करना सीखे ।
हकीमजी कोरे स्वप्नदृष्टा ही नही थे । उन्हें विश्वास थ कि मेरा स्वप्न एक दिन पूरा होगा ही । जिस तरह तिब्बी कालेज के द्वारा उनका देशी चिकित्सा का स्वप्न फला, उसी तरह अपना राजनैतिक स्वप्न भी उन्होने जामिया मिलिया के जरिए पूरा करने की कोशिश की ।"