महासभा का सभापतित्व अब फूलो का कोमल ताज नही रह गया है। फूल के दल तो दिनो-दिन गिरते जाते है और काटे उघड जाते है । अब इस काटो के ताज को कौन धारण करेगा ? बाप या बेटा ? सैकडो लडाइयो के लडाका पडित मोतीलाल नेहरू इस काटो के ताज को पहनेगे या सयम-नियम के पक्के जवान सिपाही पडित जवाहरलाल नेहरू, जिन्होने अपनी योग्यता और महत्ता से देश के युवको के हृदयो पर अधिकार कर लिया है ? श्रीयुत वल्लभभाई पटेल का नाम स्वभावत ही सबकी जबान पर है । पडितजी एक व्यक्तिगत पत्र मे लिखते है कि इस समय तो वल्लभभाई पटेल को ही, उनकी वीरता के लिए, सभापति चुनना चाहिए और सरकार को यह दिखला देना चाहिए कि उन पर सारे राष्ट्र का विश्वास है । खैर, मगर अभी तो श्री वल्लभभाई का कोई प्रश्न ही नही हो सकता। इस समय उनके पास काम भी इतना पड़ा हुआ है कि वह बारडोली छोड़कर दूसरी ओर ध्यान ही नही दे सकते । और फिर दिसबर आने से पहले ही सभव है। कि वह सरकार के अनेक बदीगृहो मे से किसी एक में उसके अतिथि बनकर पहुच जाय । मेरा अपना विचार तो यह है कि यह काटो का ताज पंडित जवाहरलाल नेहरू को ही मिलना चाहिए । भविष्य तो देश के युवक के ही हाथ मे होना चाहिए। मगर बगाल तो अगले साल, जबकि बहुत-से तूफानो का भय है, पडित मोतीलाल के ही महासभा की पतवार देना चाहता है ।
हम लोगो मे आपस में फूट है और चारो ओर से हमे एक ऐसा शत्रु घेरे हुए है जो जितना शक्तिशाली है, उतना ही नीति अनीति से लापरवाह भी । बगाल को इस समय किसी बड़े-बूढे की विशेष आवश्यकता है और वह भी ऐसे आदमी की, जिसने उसके गाढे अवसर पर, उसे संभाला हो । अगर सारे हिंदुस्तान के लिए आगे सुख का समय नही आने वाला है तो बगाल के लिए तो और भी नही । इसके तो हजारो कारण है कि पडित मोतीलालजी को ही क्यो यह कांटो का ताज धारण करना चाहिए । वह वीर है, उदार है, उनपर सभी दलो का विश्वास है, मुसलमान उन्हे अपना मित्र मानते है, उनके विरोधी भी उनका आदर करते है और अपनी जोरदार दलीलो से वह उन्हे प्राय ही अपनी राय से सहमत कर लेते है और फिर इसके अलावा उनके स्वभाव मे सधि और समझौते की भावना की ऐसी पुट भरी हुई है, जिससे वह किसी ऐसे राष्ट्र के अत्यत योग्य दूत होने लायक है, जिसे सम्मानित समझौते की आवश्यकता है और जो उसे करने के लिए तैयार है । इन्ही बातो पर विचार करके, अत्यत साहसी बगाली देशभक्त पडित मोतीलाल नेहरू को ही अगले वर्ष के लिए राष्ट्र का कर्णधार बनाना चाहते है ।"
श्री मोतीलाल नेहरू इत्यादि की याद आपको दिला दूंगा, जिन्होने अपनी कानूनी लियाकत बिल्कुल मुफ्त बाटी और अपने देश की बड़ी अच्छी तथा विश्वस्त सेवा की। आप मुझे शायद ताना देगे कि वे लोग इस कारण ऐसा कर सके थे कि वे अपने व्यवसाय
बड़ी लंबी फीस लेते थे । मैं इस तर्क को इस कारण नही मान सकता कि मनमोहन घोष के सिवा मेरा और सबसे परिचय रहा है। अधिक रुपया होने की वजह से इन लोगो ने भारत को आव- श्यकता पडने पर अपनी योग्यता उदारतापूर्वक दी हो, ऐसा नही कहा जा सकता । उसका उनकी आराम तथा विलास से रहने की योग्यता से कोई संबध नही है । मैने उनको बडे सतोष से दीनता- पूर्वक जीवन निर्वाह करते देखा है । "
स्वर्गीय मोतीलालजी के चित्र के उद्घाटन का जो सम्मान तुम लोगो ने मुझे दिया है, उसके लिए मै तुम्हारा आभारी हू । तुम्हारे पास उनकी छवि रहे और उनके पवित्र भावो को तुम सदा अपने हृदय मे अकित रखो, यह उचित ही है । यह कहना कोई अतिशयोक्ति नही है कि जैसा सबध दो सगे-सहोदर भाइयो के होता है, वैसा ही प्रगाढ प्रेम - सबध मोतीलालजी के और मेरे बीच था ।
मोतीलालजी की देश-सेवा, मोतीलालजी का त्याग, मोतीलालजी का अपने पुत्र-पुत्रियो के प्रति अनुपम प्रेम, इन सब बातो का परिचय जैसा मुझे था, लगभग वैसा ही तुम्हे भी होना चाहिए । जब से मुझे मोतीलालजी का प्रथम परिचय प्राप्त हुआ, तब से उनके जीवन के अंतिम समय तक उनके निकट ससर्ग में रहने का सद्भाग्य ईश्वर ने मुझे दिया था। मैने देखा कि वह प्रति- क्षण स्वदेशहित का ही चिंतन करते थे । उनके लिए स्वराज्य स्वप्न नही, बल्कि प्राण था। स्वराज्य की उन्हे सदा तृष्णा-पिपासा रही और वह दिन-दिन बढ़ती ही गई। ऐसे आदर्श देशभक्त का चित्र अपने सम्मुख रखना उचित ही है।
पडित मोतीलालजी के सद्गुणो मे एक गुण यह भी था कि वह अस्पृश्यता नही मानते थे । वह मानो एक राजपुरुष थे । उन्होने तो बेहद रुपया कमाया, उसे सत्कार्यो मे, स्वराज्य के कार्यो मे लुटाया। मुझे उनके ऐसे दृष्टात मालूम है कि उनके हृदय ऊच-नीच का भाव था ही नही । "
उस जमाने मे हमने विदेशी कपडे के पहाड चिन - चिनकर जला दिये थे और कोई यह नही कहता था कि इससे राष्ट्र की निधि बरबाद हो रही है । श्रीमती नायडू ने अपनी पेरिस की साडी जला दी थी और स्व० मोतीलालजी ने भी अपने विलायती कपडो मे दियासलाई लगा दी थी। उनके पास तो आलमारी-की-आल- मारिया विदेशी कपडे थे । इसके बाद जब वह जेल गये तब उन्होने मेरे पास एक खत भेजा था- -आज वह खत में खोज नही सकता- पर उसमे था कि मै सच्चा जीवन अब ही जी रहा हू, आनद भवन में मेरे पास जो समृद्धि थी उससे मुझे यह सुख नही मिलता था । वहा उन्हें सिगार, शराब, गोश्त कुछ नही मिलता था। पूरा भोजन भी नही मिलता था, फिर भी उसमे उन्हें सुख मालूम हुआ । यह सही है कि उनकी यह चीज हमेशा नही चली ।
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मेरी हालत विधवा स्त्री से भी बुरी है । एक विधवा अपने पति की मृत्यु के बाद वफादारी से जीवन बिताकर अपने पति के अच्छे कामो का फल पा सकती है। मैं कुछ भी नही पा सकता । मोतीलालजी की मृत्यु से मैने जो खोया है, वह मेरा सदा के लिए नुकसान है।
मोतीलालजी की मृत्यु हरेक देश-भक्त के लिए ईर्ष्या- स्पद होनी चाहिए, क्योकि अपना सबकुछ न्यौछावर करके वह मरे है और अत समय तक देश का ही ध्यान करते रहे है । इस वीर की मृत्यु से हमारे अदर भी बलिदान की भावना आनी चाहिए ।'