नेताजी के जीवन से जो सबसे बड़ी शिक्षा ली जा सकती है वह है उनकी अपने अनुयायियो मे ऐक्यभावना की प्रेरणाविधि, जिससे कि वे सब साप्रदायिक तथा प्रातीय बधनो से मुक्त रह सके और एक समान उद्देश्य के लिए अपना रक्त बहा सके। उनकी अनुपम सफलता उन्हें निस्सदेह इतिहास के पन्नो में अमर रखेगी ।
नेताजी के प्रत्येक अनुगामी ने, जो भारत लौटने पर मुझसे मिले, निर्विवाद रूप से यह कहा कि नेताजी का प्रभाव उनपर जादू सा हुआ करता था और वे उनके अधीन एकमात्र भारत की आजादी प्राप्त करने के उद्देश्य से काम करते थे । उनके दिलो मे साप्रदायिक और प्रातीय या और कोई भी भेदभाव कभी भी अकुरित नही हुआ था ।
नेताजी एक महान् गुणवान पुरुष थे । वह व्युत्पन्नमति और प्रतिभा-सपन्न थे । उन्होने आई ० सी ० एस ० की परीक्षा उत्तीर्ण की, कितु नौकरी नही की । भारत लौटने पर वह देशबधुदास से प्रभावित हुए और कलकत्ता कारपोरेशन के मुख्य एक्जीक्यूटिव आफिसर नियुक्त हुए। बाद मे वह राष्ट्रीय महासभा के भी दो बार राष्ट्रपति बने, परतु उनकी उल्लेखनीय सफलताओ मे, भारत से बाहर के, उस समय के कार्य है, जब वह देश से भागे और काबुल, इटली, जर्मनी और अन्य देशो से होकर अत मे जापान पहुचे । विदेशी चाहे कुछ भी कहे, पर मै विश्वास के साथ यह अवश्य कहूगा कि आज भारत में एक भी ऐसा आदमी नही है जो उनके इस प्रकार भागने को अपराध मानता है । 'समरथ को नही दोष गुसाई' -सत तुलसीदास के इस कथन के अनुसार नेताजी पर भागने का दोष नही लगाया जा सकता । जब सर्वप्रथम उन्होने सेना तैयार की तो उसकी तुच्छ सख्या की उन्होने कोई चिंता नही की। उनका निश्चय था कि सख्या चाहे कितनी ही कम क्यो न हो, पर भारत को आजाद कराने के लिए उन्हे सामर्थ्य भर यत्न करना ही चाहिए ।
नेताजी का सबसे महान् और स्थिर रहनेवाला कार्य था सब प्रकार के जातीय और वर्ग-भेद का उन्मूलन । वह केवल बंगाली ही नही थे । उन्होने अपने आपको कभी सवर्ण हिंदू नही समझा । वह आमूलचूल भारतीय थे । इससे अधिक क्या कि उन्होने अपने अनुगामियों में भी यही आग प्रज्वलित की, जिससे प्रेरित होकर वे उनकी उपस्थिति में सभी भेदभाव भूल गये थे और एक- सूत्र होकर काम करते थे । '
एक बात और । वह यह कि जो आजाद हिंद फौज सुभाष- बाबू ने बनाई थी और उसके लिए हम सब सुभाषबाबू की होशि - यारी, बहादुरी की तारीफ करते है और तारीफ करने की बात है; क्योकि जब वह हिंदुस्तान से बाहर था तब उसने सोचा कि चलो, थोडा फौजी काम भी कर ल । वह कोई लडवैया तो था नही । एक मामूली हिंदुस्तानी था । जैसे दूसरे वकील, बैरिस्टर रहते हैं वैसे सुभाषबाबू भी थे। फौज की कोई तालीम तो पाई नही थी। हां, सिविल सर्विस में जैसा आमतौर पर होता है, थोड़ी घुड़सवारी सीख ली होगी ।
लेकिन पीछे उन्होंने फौजी - शास्त्र थोडा पढ लिया होगा । इस प्रकार उनके मातहत जो सेना बनी थी, में सुनता हू कि उसके दो बड़े अफसर, जिनसे मै जेल मे तथा उसके बाहर भी मिला था, काश्मीर पर हमला करनेवालो से मिले हुए है । यह मुझको बहुत चुभता है । ये सुभाषबाबू के मातहत खास काम करनेवाले थे और हमेशा उनके साथ रहा करते थे । सुभाषबाबू लश्कर से कोई बात छिपाकर रख तो सकते नही थे, क्योकि उन्हें उनके मारफत काम लेना पडता था। वे आज लुटेरो के सरदार होकर आते है तो मुझको चुभता है। अगर उनको अखबार मिलते है या जो मैं कहता हू उसको वे सुन ले तो मै अपनी यह नाकिस आवाज उनको पहुचाता हू कि आप इसमे क्यो पड़ते है और सुभाष- Sarah नाम को क्यो बाते है ? आप ऐसा क्यो करते है कि हिदू का पक्ष ले या मुसलमान का पक्ष ले ? आपको तो जाति-भेद करना नही चाहिए । सुभाषबाबू तो ऐसे थे नही । उनके साथ हिंदू, मुसलमान, सिख, पारसी, ईसाई, हरिजन आदि सब रहते थे । वहा न हरिजन का भेद था, न इतरजन का । वहा तो हिंदु- स्तानियों में जात-पात का कोई भेदभाव था ही नही । यो तो सब अपने धर्म पर कायम थे, कोई धर्म तो छोड़ बैठे थे नही । लेकिन सुभाषबाबू ने कब्जा कर लिया था, उनके चित्त का हरण कर लिया था, शरीर का हरण नही किया था । ऐसा तो चलता नही था कि अगर आजाद हिंद फौज मे शामिल नही होता है तो काटो । लोगो को इस तरह काटकर वह हिदुस्तान को रिहाई दिलाने वाले नहीं थे । इस तरह से बड़े हुए और बडप्पन पाया । तब आप इतने छोटे क्यो बनते है और इस छोटे काम मे क्यो पडते है ? अगर कुछ करना ही है तो सारे हिदुस्तान के लिए करो । वहा जो मुसलमान है, अफरीदी है, उनको कहे कि यह जाहिलपन क्यों करना ? लोगो को लूटना और देहातो को जलाना क्या ? चलो, महाराजा से मिले, शेख अब्दुल्ला से मिले, उनको चिट्ठी लिखें कि हम आपसे मिलना चाहते है, हम यहा कोई लूट करने तो आये नही है ।
आप इस्लाम को दबाते है, इसलिए आपको बताने आये है । यह तो मै समझ सकता हूं। तब तो आप सुभाष - बाबू का नाम उज्ज्वल करेगे और उन अफरीदी लोगो के सच्चे शिक्षक बनेगे । अफरीदी लोग कैसे रहते है, उनमे भी लुटेरे है या नही है, यह मै नही जानता हू । लेकिन मेरी निगाह मे वे भी इन्सान है । उनके दिल मे भी वही ईश्वर या खुदा है, इसलिए वे सब मेरे भाई है। अगर मै उनमें रहू तो उनसे कहूगा कि लूट क्या करना, एक-दूसरे पर गुस्सा क्या करना । मै यह तो कहता नही कि तुम्हारे पास जो बदुके या तलवारे है, उन्हें छोड़ दो। उनको रखो, लेकिन जो दूसरे लोग डरे हुए है, मुफलिस है, औरते है, बच्चे है, उनको बचाने के लिए। उसमे क्या है, चाहे वे हिदू हो या मुसलमान । तो मैं कहूगा कि ये जो दो अफसर है, जिनका नाम मैने सुन लिया है, सुभाषबाबू का नाम याद करें। वे तो मर गये, लेकिन उनका नाम नही मरा, काम तो नही मरा । '
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आज सुभाषबाबू की जन्म तिथि है । मैने कह दिया है। कि मै तो किसीकी जन्म तिथि या मृत्यु- तिथि याद नही रखता । वह आदत मेरी नही है । सुभाषबाबू की तिथि की मुझे याद दिलाई गई । उससे मै राजी हुआ। उसका भी एक खास कारण है । वह हिंसा के पुजारी थे। मैं अहिसा का पुजारी हू । पर इसमे क्या ? मेरे पास गुण की ही कीमत है । तुलसीदासजी ने कहा है न,
"जड़-चेतन गुण-दोषमय विश्व कीन्ह करतार ।
संत-हंस गुण गहिं पय परिहार बारि विकार ॥"
हस जैसे पानी को छोड़कर दूध ले लेता है, वैसे ही हमें भी करना चाहिए । मनुष्य मात्र मे गुण और दोष दोनो भरे पड़े हैं । गुण को ग्रहण करना चाहिए । दोषो को भूल जाना चाहिए । सुभाषबाबू बडे देश-प्रेमी थे । उन्होने देश के लिए अपनी जान की बाजी लगा दी थी और वह करके भी बता दिया । वह सेना - पति बने । उनकी फौज मे हिदू, मुसलमान, पारसी, सिख सब थे । सब बंगाली ही थे, ऐसा भी नही था। उनमे न प्रातीयता थी, न रंग-भेद, न जाति-भेद । वह सेनापति थे, इसलिए उन्हें ज्यादा सहूलियत लेनी या देनी चाहिए, ऐसा भी नही था ।