लाला लाजपतराय को गिरफ्तार क्या किया, सरकार ने हमारे एक बड़े-से-बडे मुखिया को पकड़ लिया है। उसका नाम भारत के बच्चे-बच्चे की जबान पर है । अपने स्वार्थ-त्याग के कारण वह अपने देश भाइयो के हृदय में उच्च स्थान प्राप्त कर चुके है | अहिंसा के प्रचार के लिए और उसके साथ ही लोकमत को संगठित और प्रकट करने के लिए उन्होने जितना परिश्रम किया उतना बहुत ही थोडे लोगों ने किया है। उनकी गिरफ्तारी से सरकार की नीति या वृत्ति का जितना सच्चा पता चलता है उतना दूसरी किसी बात से नही ।
पजाबी भाई लालाजी को बडे-से-बड़ा गौरव जो दे सकते है वह यह है कि वे यही समझकर कि लालाजी हमारे साथ ही है, उनका काम बराबर आगे बढाते रहे ।"
आखिरकार लाजपतराय, पडित सतानम, मलिक लालखान और डाक्टर गोपीचंद के मुकदमे का फैसला हो गया । लालाजी तथा पडित सतानम को अठारह महीने की कैद की सजा दी गई । अभियुक्तो के बहुतेरा विरोध करने पर भी सरकार ने जबरदस्ती. उनके बचाव के लिए एक वकील नियुक्त किया था । इस तमाशे के होते हुए भी उनको सजा दी जाना तो निश्चित ही था । सजा का हुक्म सुनाये जाने के जरा पहले ही लालाजी ने मुझे एक पत्र लिखा । उसमे उनके चित्त की प्रसन्नता टपकी पडती है । वह इस प्रकार है।
"आपने जो स्नेहपूर्ण टिप्पणी लिखी है तथा रामप्रसादजी और पुरुषोत्तमलाल के द्वारा जो सदेश भेजा, उनके लिए आपको बहुत-बहुत धन्यवाद । मै बहुत मजे मे हू । मैने अन्न त्याग नही किया था । मैं अपने आराम के लिए शोरोगुल मचाने के खिलाफ हू । हम यहा इसलिए नही आये है कि किसी तरह की सुविधाएं या रियायते चाहे । सच्चा हाल अखबारो मे जाहिर हुआ है और आशा है कि वह अब आप तक पहुच गया होगा । हम सब लोगों का चित्त बहुत प्रसन्न है और मै राष्ट्रीय पाठशालाओ तथा धार्मिक ग्रंथों के अध्ययन में अपने समय का खूब सदुपयोग कर रहा हू । अहमदाबाद मे जो कुछ हुआ है उसके तथा सर्वपक्षीय परिषद् ( राउड टेबल काफेस) के हालात मुझे मालूम हो गये है । हमारी तकलीफो की वजह से हमारे सिद्धातों के निर्णय मे बाधा न होने दीजिएगा । आप यकीन मानिये, हम अपने मनोरथ को पूरा करने के लिए जबतक चाहिए तबतक और जितनी चाहिए, उतनी तकलीफे बरदाश्त करने को हर तरह से तैयार है । और अब जब कि उसीके लिए हम यहा आये हुए है तो हमे उसे अत तक निबाहना चाहिए ।"
हमें आशा करनी चाहिए कि लालाजी और पडित सतानम को उनका अध्ययन जारी रखने दिया जायगा । मैं उन्हें तथा उनके साथियो को यह भी सूचित करने का साहस करूंगा कि वे मौलाना शौकतअली और श्री राजगोपालाचारी तथा उनके साथियो का • अनुकरण करे, अर्थात् वे साहित्य-सबधी उद्योगो के साथ-ही-साथ चरखा कातने पर भी ध्यान देगे । मैं अभिवचन देता है कि बीच- हू बीच मे चरखा कातते रहने से लालाजी के इतिहास-लेखन तथा पडित सतानम के संस्कृत - अध्ययन में हानि न होगी । '
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मैने तो लालाजी को एक बच्चे के समान खुले दिलवाला पाया है। उनके त्याग की जोड लगभग हुई नही । मेरी उनसे हिदू- मुसलमानों के बारे मे एक बार नही, अनेक बार बाते हुई है । वह मुसलमानो के साथ तनिक भी दुश्मनी नही रखते, लेकिन उन्हे जल्दी एकता हो जाने में शक है । वह ईश्वर से प्रकाश पाने के लिए प्रार्थना कर रहे है। खुद शक्ति रहते हुए भी वह हिदू-मुसलमानो की एकता के कायल है, क्योकि जैसाकि उन्होने मुझसे कहा है वह स्वराज्य के कायल हैं । वह मानते है कि ऐसी एकता के बिना स्वराज्य स्थापित नही हो सकता । तो भी वह यह नही जानते कि यह एकता किस तरह और कब होगी । मेरा उपाय उन्हे पसद है, परंतु इस बात में शक है कि हिंदू लोग उसका मर्म समझ पावेगे या नही और अगर समझ पावेगे तो उसकी शराफत की कदर करेगे या नही । "
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कहा जाता है कि किसीने यह सवाद भेजा है कि अमृतसर की खिलाफत परिषद में मैने लाला लाजपतराय को भीरु कहा है । लालाजी जो कुछ भी हो, वह भीरु नही है । मेरे व्याख्यान का पूर्वापर सबध देखने से प्रतीत होगा कि मै उनका इस आक्षेप से कि वह मुसलमानो के विरोधी है बचाव कर रहा था । उस समय मैने जो कुछ कहा था वह यह है लालाजी सदा शात चित्त रहते है और उन्हे मुसलमानो के उद्देश्य के बारे मे बड़ी शका रहती है । . लेकिन वह मुसलमानो की दोस्ती सच्चे दिल से चाहते है । लालाजी के प्रति मेरा बड़ा आदर भाव है । मैं उन्हें बहादुर, आत्म-त्यागी, उदार, सत्यनिष्ठ और ईश्वर से डरनेवाला मानता हू । उनका स्वदेश-प्रेम बड़ा ही शुद्ध है । देश की जितनी और जैसी सेवा उन्होने की है उसमे उनकी बराबरी करनेवाले बहुत कम है । और यदि ऐसे शख्सों पर सदेह किया जा सके कि उनके उद्देश्यहीन है तो हमे हिदू-मुस्लिम ऐक्य से उसी प्रकार निराश होना पडेगा जिस प्रकार हमे अली भाइयो पर हीन उद्देश्य रखने का सदेह करने पर निराश होना पड़े । हम सब अपूर्ण है, हमारा मत एक-दूसरे के खिलाफ दूषित हो गया है। हम हिंदू और मुसलमान, जैसे है वैसे ही समझे जाने चाहिए । जो हिदू-मुस्लिम ऐक्य को अपना धर्म मानते है उन्हे तो जो साधन हमारे पास है उसीके द्वारा उसे संपादन करने का प्रयत्न करना चाहिए ।
“आपके तार के लिए आभार मानता हू । लोगो की ओर से पुलिस को हमला करने के लिए कोई कारण नही मिला है । यह मामला इरादापूर्वक किया गया था। दो सख्त चोटे लगी है, मगर गंभीर नही है । एक बाईं छाती पर और एक कधे पर लगी है । दूसरी चोटे सत्यपाल, गोपीचंद, हंसराज, मुहम्मद आलम आदि मित्रो ने सभाल ली। दूसरो पर भी मार पड़ी है और चोटे लगी है, कि चिता का कोई कारण नही है ।" "
-लाजपतराय
मैने लाला लाजपतराय को तार से धन्यवाद दिया था और हालत पूछी थी । उसके जवाब मे तुरत ही लालाजी ने ऊपर का तार भेजा । आज के लोगो मे से, जबकि अधिकाश की अभी रेखे भी नही भीगी थी, लालाजी ने 'पंजाब केसरी' का नाम पाया था । अबतक उनका यह अल्काव जैसा-का- तैसा कायम है, क्योकि चाहे उनके पक्ष और विपक्ष मे कुछ भी क्यो न कहा जाय, वह अब भी पजाब के सबसे बड़े निर्विवाद नेता है और सारे भारतवर्ष मे सबसे afts लोकप्रिय और प्रतिष्ठित नेताओ मे से है। वह महासभा के सभापति हो चुके है, यूरोप मे उनका नाम है और वह उन गिने- चुने नेताओ से है, जो दिल की बात तुरत ही कह देते है, गो कोई भले ही गलतफहमी करे या उससे भी अधिक उन्हे अक्सर पह- चाननेवाला मूर्ख समझे । मगर लालाजी अपनी आदत से लाचार है; क्योकि वह अपने दिल मे कोई बात छिपाकर रख ही नही सकते । जो बात सोची, वह वह कहेगे ही। इसलिए जब मेने यह शीर्षक पढा "लालाजी पर मार" और मार के व्यौरे पढे तभी मेरे मुह से निकल गया - " शाबाश ! " अब हमे स्वराज्य पाने मे बहुत देर नही लगेगी, क्योकि चाहे हमारी क्राति हिसक हो या अहिसक स्वतंत्र होने के पहले हमे देश के नाम पर मरने की कला सीखनी होगी। इसके अलावा जबतक महान प्रयत्न न किया जावे, अहिसक दबाव से भी शासक झुकेगे नही । आदर्श और सपूर्ण अहिसा के सामने, मै यह कल्पना कर सकता हू कि शासको की वृत्ति बिल्कुल ही बदल जानी सभव है । मगर गोकि आदर्श और सपूर्ण कार्यक्रम बनाना संभव है, तथापि उसका सपूर्ण और आदर्श अमल कभी सभव नही है, इसलिए सबसे सस्ती बात यही है कि नेताओं पर मार पडे या गोली चले । अबतक अनजान आदमियो पर मार पडी है या वे मारे गये है | थोडे-से आदमियो को गोली मारने से भी देश का ध्यान जितना आकर्षित नही होता उससे कही अधिक • लालाजी पर हमला करने से हुआ है। लालाजी तथा दूसरे नेताओं पर हमले से हिंदुस्तान के राजनीतिज्ञ विचार मे पड गये है और सरकार की शांति तो जरूर ही भग हो गई होगी ।"
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लाला लाजपतराय का देहात हो गया । लालाजी चिर- जीवी होवे । जबतक हिदुस्तान के आकाश मे सूर्य चमकता है तब- तक लालाजी मर नही सकते । लालाजी तो एक सस्था थे। अपनी जवानी के ही समय से उन्होने देशभक्ति को अपना धर्म बना लिया था और उनके देशप्रेम में सकीर्णता न थी । वह अपने देश से इसलिए प्रेम करते थे कि वह संसार से प्रेम करते थे । उनकी राष्ट्रीयता अंतर्राष्ट्रीयता से भरपूर थी । इसलिए यूरोपियन लोगो पर भी उनका इतना अधिक प्रभाव था । यूरोप और अमेरिका में उनके अनेक मित्र थे । वे मित्र लालाजी को जानले थे और इसलिए उनसे प्रेम करते थे ।
उनकी सेवाए विविध थी । वह बड़े ही उत्साही समाज और धर्म-सुधारक थे। हममे से बहुत से लोगो के समान वह भी इसीलिए राजनीतिज्ञ बने थे कि समाज और धर्म-सुधार की उनकी लगन राजनीति मे शामिल हुए बिना पूरी होती ही नहीं थी । सार्वजनिक जीवन शुरू करने के कुछ ही समय बाद उन्होने देख लिया था कि विदेशी गुलामी से देश के स्वतंत्र हुए बिना हमारे इच्छित सुधारो में से बहुत-से नही हो सकेगे । जैसाकि हममे से बहुतो को जान पड़ता है, उन्हे भी जान पडा था कि विदेशी परतत्रता का जहर देश की नस-नस मे घुस गया है ।
ऐसे एक भी सार्वजनिक आंदोलन का नाम लेना असंभव है, जिसमे लालाजी शामिल न थे । सेवा करने की उनकी भूख सदा अतृप्त ही रहती थी । उन्होने शिक्षण सस्थाएं खोली, वह दलितो के मित्र बने, जहा कही दुख-दारिद्र्य हो, वही वह दौड़ते थे । नवयुवकों को वह असाधारण प्रेम से अपने पास जमा करते थे । सहायता के लिए किसी नौजवान की प्रार्थना उनके पास बेकार न गई । राजनैतिक क्षेत्र मे वह ऐसे थे कि उनके बिना चल ही नही सकता था। अपने विचार प्रकट करने में वह कभी भयभीत न हुए । उस समय भी जबकि कष्ट सहना रोजमर्रा की बात नही हो गई थी, अपने विचार निर्भीकता से प्रकाशित करने के लिए उन्होने कष्ट सहा था । उनके जीवन मे कोई छिपा हुआ रहस्य नही था । उनकी अत्यंत अधिक स्पष्टवादिता से मित्रो को प्रायः घबराहट में पड़ना होता था, उनके आलोचक भी चक्कर में पड़ जाते थे, मगर उनकी यह आदत छूटनेवाली नही थी ।
मुसलमान मित्रो का लिहाज रखता हुआ भी मै दावे के साथ यह कहता हूं कि लालाजी इस्लाम के दुश्मन नही थे । हिदू-धर्म को सबल बनाने तथा शुद्ध करने की उनकी प्रबल इच्छा को भूल से मुसलमानों या इस्लाम के प्रति घृणा नही समझनी चाहिए । हिंदू-मुसलमानो मे एकता स्थापित करने की उनकी हार्दिक इच्छा थी । वह हिंदूराज की चाहना नही करते थे, वह हिदुस्तानी राज की इच्छा करते थे । अपने-आपको हिदुस्तानी कहनेवाले सभी लोगों में वह सम्पूर्ण समानता स्थापित करना चाहते थे । लालाजी की मृत्यु से भी हम परस्पर एक-दूसरे पर विश्वास करना सीखे और अगर हम निर्भय बन जाय तो यह तुरत ही संभव है ।
जब राजनीति को लोग भूल जायगे, जब जनता का ध्यान खीच लेनेवाली अनेक क्षणभगुर वस्तुए भी विस्मृत हो जायंगी, तब भी लालाजी के गभीर और विशाल हरिजन - प्रेम hi और उनकी तज्जनिक महान् सेवाओ को करोडो हिंदू ही नही, बल्कि कोटिशः सवर्ण हिंदू भी और हिंदू ही क्यों, समस्त भारत- वर्ष बडी श्रद्धा-भक्ति से याद किया करेगा । लालाजी एक महान् मानव-प्रेमी थे और उनका वह मानव-प्रेम, विश्वव्यापी था । उनकी प्रत्येक वर्षी के अवसर पर हमे अपने जीवन मे लालाजी को उनकी प्रत्येक विगत वर्षो की अपेक्षा, अधिकाधिक सजीव करते जाना चाहिए । लालाजी - जैसे समाज सुधारकों का जब निधन होता है। तब केवल उनकी देह का ही नाश होता है। उनका कार्य और े स्वप्न को सही बनाने के लिए अभी तक बचे हुए है, एक बार सभी मिलकर महान प्रयत्न कर अपनेको लालाजी के जैसे देशबंधु पाने का अधिकारी सिद्ध करेगे । '
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जब राजनीति को लोग भूल जायगे, जब जनता का ध्यान खीच लेनेवाली अनेक क्षणभगुर वस्तुए भी विस्मृत हो जायंगी, तब भी लालाजी के गभीर और विशाल हरिजन - प्रेम hi और उनकी तज्जनिक महान् सेवाओ को करोडो हिंदू ही नही, बल्कि कोटिशः सवर्ण हिंदू भी और हिंदू ही क्यों, समस्त भारत- वर्ष बडी श्रद्धा-भक्ति से याद किया करेगा । लालाजी एक महान् मानव-प्रेमी थे और उनका वह मानव-प्रेम, विश्वव्यापी था । उनकी प्रत्येक वर्षी के अवसर पर हमे अपने जीवन मे लालाजी को उनकी प्रत्येक विगत वर्षो की अपेक्षा, अधिकाधिक सजीव करते जाना चाहिए । लालाजी - जैसे समाज सुधारकों का जब निधन होता है। तब केवल उनकी देह का ही नाश होता है। उनका कार्य और उनके विचारो का देह के साथ अत नही होता । उनकी शक्ति तो उत्तरोत्तर बढती जाती है । हमे इसका अनुभव तब और अधिक होता है जब हम देखते है कि ज्योज्यो समय बीतता है त्यो त्यो इस जीर्ण चोले के बाहर इसका प्रभाव स्वत प्रकट होता जाता है । मनुष्य के अदर जो क्षणजीवी अश है वह देह के साथ नाश ant प्राप्त हो जाता है, किंतु मनुष्य का जो शाश्वत अविनाशी अश है वह तो देह के भस्मीभूत होने पर भी जीवित रहता है और देह का बधन दूर हो जाने से वह और भी अधिक प्रकाशमान हो जाता है। इस विचार को सामने रखकर हमे लालाजी की स्मृति hat चिरजीवी रखना चाहिए। हरिजन हिदू तथा सवर्ण हिदू, दोनो ही स्व ० लालाजी का पुण्यस्मरण करके हिदू-समाज मे से यह अस्पृ- श्यता का पाप-कलंक धो डालने का नये सिरे से सकल्प करे । हरि- जन तो उन त्रुटियों को दूर करे जो अत्याचार बर्दाश्त करते-करते लोगो मे पैदा हो जाती है और सवर्ण अपने उस पाप को पखारकर शुद्ध हो जाय, जो उन्होने हरिजनो को जन्मना अस्पृश्य और अपने को जन्मना उच्च मान कर किया है ।"