कुछ वर्ष पूर्व मैने स्वर्गीय रमाबाई रानडे के दर्शन का वर्णन किया था । मैने आदर्श विधवा के रूप मे उनका परिचय दिया था । इस समय मेरे भाग्य मे एक महान् वीर की विधवा के वैधव्य के आरभ का चित्र उपस्थित करना बदा है |
वासती देवी के साथ मेरा परिचय १९१९ मे हुआ है । गाढ़ परिचय १९२१ मे हुआ । उनकी सरलता, चातुरी और उनके अतिथि सत्कार की बहुतेरी बाते मैने सुनी थी । उनका अनुभव भी ठीक-ठीक हुआ था। जिस प्रकार दार्जिलिंग में देशबंधु के साथ मेरा सबध घनिष्ठ हुआ उसी तरह वासती देवी के साथ भी हुआ । उनके वैधव्य मे तो परिचय बहुत ही बढ़ गया है। जब से वह दार्जिलिंग से शव को लेकर कलकत्ते आई है तब से मै कह सकता हूं कि उनके साथ ही रहा हू । वैधव्य के बाद पहली मुलाकात उनके दामाद के घर हुई । उनके आस-पास बहुतेरी बहने बैठी थी । पूर्वाश्रम मे तो जब मै उनके कमरे मे जाता तो खुद वही सामने आती और मुझे बुलाती । वैधव्य में मुझे क्या बुलाती ' पुतली की तरह स्तम्भित बैठी अनेक बहनो में से मुझे उन्हें पहचानना था । एक मिनट तक तो मै खोजता ही रहा। मांग में सिंदूर, ललाट पर कुकुम, मुह मे पान, हाथ मे चूड़िया और साड़ी पर लेस, हँस- मुख चेहरा -- इनमें में से एक भी चिन्ह में न देखू तो वासती देवी को किस तरह पहचानू ? जहा मैने अनुमान किया था कि वह होगी वहा जाकर बैठ गया और गौर से मुख-मुद्रा देखी । देखना असह्य हो गया। चेहरा तो पहचान में आया । रुदन रोकना असभव हो गया । छाती को पत्थर बनाकर आश्वासन देना तो दूर ही रहा ।
उनके मुख पर सदा शोभित हास्य आज कहां था ? मैने उन्हें संत्वना देने, रिझाने और बातचीत कराने की अनेक कोशिशे की । बहुत समय के बाद मुझे कुछ सफलता मिली ।
देवी जरा हँसी ।
मुझे हिम्मत हुई और मै बोला, “आप रो नहीं सकती। आप रोवेंगी तो सब लोग रोवेगे । मोना ( बडी लड़की) को बड़ी मुश्किल से चुपकी रखा है। बेबी ( छोटी लड़की) की हालत तो आप जानती ही है । सुजाता ( पुत्रवधू) फूट-फूटकर रोती थी, बड़े प्रयास से हुई है । आप दया रखिएगा । आपसे अब बहुत काम लेना है ।"
वीरांगना ने दृढतापूर्वक जवाब दिया, "मैं नही रोऊंगी ।
मुझे रोना आता ही नही ।"
मै इसका मर्भ समझा, मुझे सतोष हुआ ।
रोने से दुःख का भार हल्का हो जाता है । इस विधवा बहन को तो भार हलका नही करना था, उठाना था । फिर रोती कैसे ? कैसे कह सकता था - "लो, चलो, हम भाई-बहन पेट
भर रो ले और दुख कम कर ले ?"
हिदू विधवा दुख की प्रतिमा है। उसने ससार के दुख का भार अपने सिर ले लिया है। उसने दुख को सुख बना डाला है को धर्म बना डाला है ।
वासंती देवी सब तरह के भोजन करती थी । १९२० तक के समय मे उनके यहा छप्पन भोग होते थे और सैकडो लोग भोजन करते थे । पान के बिना वह एक मिनिट नही रह सकती थी । पान की डिबिया पास ही पडी रहती थी ।
अब शृंगार-भाव का त्याग, पान का त्याग, मिष्ठानो का त्याग, मांस-मत्स्य का त्याग, केवल पति का ध्यान, परमात्मा का ध्यान |
इस दुख को सहन करना धर्म है या अधर्म ? और धर्मो में तो ऐसा नही देखा जाता । हिदू-धर्मशास्त्रियो ने भूल तो न की हो ? वासती देवी को देखकर मुझे इसमे भूल नही दिखाई देती, for धर्म की शुद्ध भावना दिखाई देती है । वैधव्य हिदू-धर्म का शृगार है । धर्म का भूषण वराग्य है, वैभव नही। दुनिया भले ही और कुछ कहे तो कहती रहे ।
परतु हिदू शास्त्र किस वैधव्य की स्तुति और स्वागत करता है ? १५ वर्ष की मुग्धा के वैधव्य का नही जो कि विवाह का अर्थ भी नही जानती । बाल विधवाओ के लिए वैधव्य धर्म नही, अधर्म है । वासती देवी को मदन खुद आकर ललचावे तो वह भस्म हो जा । वासती देवी के शिव की तरह तीसरी आंख है । परंतु पद्रह वर्ष की बालिका वैधव्य की शोभा को क्या समझ सकती है ? उसके लिए. तो वह अत्याचार ही है । बाल-विधवाओ की वृद्धि मे मुझे हिदू-धर्म की अवनति दिखाई देती है । वासती देवी जैसी के वैधव्य मे मै शुद्ध धर्म का पोषण देखता हू । वैधव्य सब तरह, सब जगह, सब समय, अनिवार्य सिद्धात नही है । वह उस स्त्री के लिए धर्म है जो उसकी रक्षा करती है ।
रिवाज के कुए में तैरना अच्छा है । उसमे डूबना आत्म- । हत्या है।
जो बात स्त्री के सबध मे वही बात पुरुष के सबंध में होन चाहिए। राम ने यह कर दिखाया । सती सीता का त्याग भी वह सह सके । अपने ही किये त्याग से खुद ही जले । जब से सीता गई । तब से रामचंद्र का तेज घट गया। सीता के देह का तो त्याग उन्होने किया, पर उसे अपने हृदय की स्वामिनी बना लिया। उस दिन से उन्हे न तो शृगार भाया, न दूसरा वैभव । कर्तव्य समझ- कर तटस्थता के साथ राज्य कार्य करते हुए शात रहे ।
जिस बात को आज वासती देवी सह रही है, जिसमे से वह अपने विलास को हटा सकती है, वे बाते जबतक पुरुष न करेगे · तबतक हिदू-धर्म अधूरा है । 'एक को गुड और दूसरे को थूहर यह उल्टा न्याय ईश्वर के दरबार मे नही हो सकता । परंतु आज हिदू- पुरुषो ने इस ईश्वरीय कानून को उलट दिया है । स्त्री के लिए वैधव्य कायम रखा है और अपने लिए श्मशान भूमि मे ही दूसरे विवाह की योजना करने का अधिकार |
वासती देवी ने अबतक किसीके देखते, आसू की एक बूद तक नही गिराई है । फिर भी उनके चेहरे पर तेज तो आ ही नही रहा है । उनकी मुखाकृति ऐसी हो गई है कि मानो भारी बीमारी से उठी हो । यह हालत देखकर मैने उनसे निवेदन किया कि थोडा समय निकलकर बाहर हवा खाने चलिये। मेरे साथ मोटर तो बैठी, पर बोलने क्यो लगी ? मैने कितनी ही बाते चलाई— वह सुनती रही। पर खुद उसमे बराय नाम शरीक हुईं | हवाखोरी की तो, पर पछताई । सारी रात नीद न आई । " जो बात मेरे पति को अतिशय प्रिय थी वह आज इस अभागिनी ने की । यह क्या शोक है ?" ऐसे विचारो मे रात गई । भोबल ( उनका लडका ) मुझे यह खबर दे गया ! आज मेरा मौनवार है । मैने कागज पर लिखा है - " यह पागलपन हमे माताजी के सिर से निकालना होगा । हमारे प्रियतम को प्रिय लगनेवाली बहुतेरी बाते हमे उसके वियोग के बाद करनी पडती है । माताजी विलास के लिए मोटर मे नही बैठी थी, केवल आरोग्य के लिए बैठी थी । उन्हें स्वच्छ हवा की बहुत जरूरत थी । हमे उनका बल बढाकर उनके शरीर की रक्षा करनी होगी । पिताजी के काम को चमकाने और बढाने के लिए हमे उनके शरीर की आवश्यकता है । यह माताजी से कहना ।"
" माताजी ने तो मुझसे कहा था कि यह बात ही आपसे न कही जाय। पर मुझसे न रहा गया। अभी तो यही उचित मालूम होता है कि आप उन्हें मोटर मे बैठने के लिए न कहे ।" भोबल ने कहा ।
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बेचारा भोबल ! किसीका लौटाये न लौटने वाला लड़का आज बकरी जैसा बनकर बैठा है। उसका कल्याण हो ।
पर इस साध्वी विधवा का क्या ? वैधव्य प्यारा लगता है, फिर भी असह्य मालूम होता है । सुधन्वा खौलते हुए तेल के कड़ाह भटकता था और मुझ जैसे दूर रहकर देखनेवाले उसके दुख की कल्पना करके कापते थे । सती स्त्रियो, अपने दुख को तुम । संभाल कर रखना । वह दुख नही, सुख है । तुम्हारा नाम लेकर बहुतेरे पार उतर गये है और उतरेंगे ।
वासती देवी की जय हो !