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अध्याय 11: लोकमान्य तिलक

16 अगस्त 2023

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लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक अब ससार मे नही है । यह विश्वास करना कठिन मालूम होता है कि वह ससार से उठ गये । हम लोगो के समय मे ऐसा दूसरा कोई नही, जिसका जनता पर लोकमान्य के जैसा प्रभाव हो । हजारो देशवासियो की उनपर

भक्ति और श्रद्धा थी वह अपूर्व थी । यह अक्षरश सत्य है कि वह जनता के आराध्यदेव थे, प्रतिमा थे। उनके वचन हजारो आदमियो के लिए नियम और कानून से थे । पुरुषो मे पुरुष - सिंह ससार से उठ गया । केशरी की घोर गर्जना विलीन हो गई ।

देशवासियो पर उनका इतना प्रभाव होने का क्या कारण था ? मैं समझता हू, इस प्रश्न का उत्तर बडा ही सहज है । उनकी स्वदेश-भक्ति ही उनकी इद्रियवृत्ति थी । वह स्वदेश-प्रेम के सिवा दूसरा धर्म नही जानते थे ।

जन्म से ही वह प्रजासत्तावादी थे । बहुमत की आज्ञा पर इतना अधिक विश्वास करते थे कि मुझे उससे भयभीत होना पडता था । पर यही वह बात है जिससे जनता पर उनका इतना अधिक प्रभाव था । स्वदेश के लिए वह जिस इच्छा-शक्ति से काम लेते थे वह बडी ही प्रबल थी । उनका जीवन वह ग्रंथ है जिसे खोलने की भी जरूरत नही, वह खुला हुआ ग्रथ । उनका खाना-पीना और पहनावा बिल्कुल साधारण था । उनका व्यक्तिगत जीवन बडा ही निर्मल और बेदाग था । उन्होनें अपनी आश्चर्य जनक बुद्धि- शक्ति को स्वदेश को अर्पण कर दिया था । जितनी स्थिरता और दृढता के साथ लोकमान्य ने स्वराज्य की शुभ वार्ता का उपदेश किया उतना और किसीने नही किया । इसी कारण स्वदेशवासी उनपर अटूट विश्वास रखते थे । साहस ने कभी उनका साथ नही छोडा । उनकी आशावादिता अदम्य थी । उनको आशा थी कि जीवनकाल मे ही मैसपूर्ण रूप से स्वराज्य स्थापित हुआ

देख सकूंगा । यदि वह इसे नही देख सके तो उनका दोष नही है । उन्होने निस्सदेह स्वराज्य-प्राप्ति की अवधि बहुत कम कर दी है।

मैं अग्रेजो को ऐसी धारणा बनाने से मना करता हू कि लोकमान्य अग्रेजो के शत्रु थे, या अधिकारी वर्ग या अग्रेजी राज्य घृणा करते थे ।

" कलकत्ता- काग्रेस के समय हिंदी के राष्ट्र-भाषा होने के सबंध मे उन्होने जो कहा था, उसे सुनने का अवसर मुझे भी प्राप्त हुआ था। वह काग्रेस - पडाल से तुरत ही लौटे थे। हिंदी के सबंध में उन्होंने अपने शात भाषण मे जो कहा उससे बड़ी तृप्ति हुई । भाषण में उन्होने देशी भाषाओ पर खयाल रखने के कारण अग्रेजो की बड़ी प्रशसा की थी । विलायत जाने पर, यद्यपि उन्हे अग्रेज जूर के विषय मे बुरा ही अनुभव हुआ तथापि उनका ब्रिटिश प्रजासत्ता मे बडा ही दृढ विश्वास हो गया । उन्होने यहातक कहा था कि पजाब के अत्याचारो का चित्र 'सिनेमेटोग्राफ' यत्र द्वारा ब्रिटिश प्रजासत्तावादियो को दिखाना चाहिए । मैने यहा इस बात का उल्लेख इसलिए नही किया कि मै भी ब्रिटिश प्रजासत्ता पर विश्वास रखता हूं (जो कि मै नही रखता ), पर यह दिखाने के लिए कि वह अग्रेज जाति के प्रति घृणा का भाव नही रखते थे । पर वह भारत और साम्राज्य की अवस्था को इस पिछडी अवस्था में न तो रखना ही चाहते थे और न रख सकते थे ।

वह चाहते थे कि शीघ्र ही भारत से समानता का भाव रखा जा और इसे वह देश का जन्मसिद्ध अधिकार समझते थे । भारत की स्वतंत्रता के लिए उन्होने जो लडाई की उसमे सरकार को छोड़ नही दिया। स्वतंत्रता के इस युद्ध में उन्होने न तो किसीकी मुरव्वत की और न किसीकी प्रतीक्षा ही की । मुझे आशा हैं, अग्रेज लोग उस महापुरुष को पहचानेगे, जिनकी भारत पूजा करता था ।

भारत की भावी संतति के हृदय में भी यही भाव बना रहेगा कि लोकमान्य नवीन भारत के बनानेवाले थे । वे तिलक महाराज का स्मरण यह कह कर करेंगे कि एक पुरुष था, जो हमारे लिए ही जन्मा और हमारे लिए ही मरा। ऐसे महापुरुष को मरना कहना ईश्वर की निंदा करना है। उनका स्थायी तत्व सदा के लिए हम लोगो मे व्याप्त हो गया। आओ, हम भारत के एकमात्र लोकमान्य का अविनाशी स्मारक अपने जीवन में उनके साहस, उनकी सरलता, उनके आश्चर्यजनक उद्योग और उनकी स्वदेश भक्ति को सीखकर बनावे। ईश्वर उनकी आत्मा को शाति प्रदान करे ।

...

लोकमान्य तो एक ही थे । लोगो ने तिलक महाराज को जो पदवी, जो उच्चस्थान, दिया था वह राजाओ के दिये खिताबो से लाख - गुना कीमती था । देश ने आज यह बात सिद्ध कर दिखाई है । यह कहे तो अत्युक्ति नही होगी कि सारी बबई लोकमान्य को पहुचाने के लिए उलट पडी थी ।

उनके आखिरी दिनो मे जो दृश्य मैने अपनी आखो से देखा वह कभी भुलाया नही जा सकता। लोगो के उस अगाध प्रेम का वर्णन करना असंभव है ।

कहावत है कि 'राजा मर गये, राजा चिरजीव रहे ।' यह विचार इगलैंड आदि सारे देशो मे प्रचलित है और जब राजा मृत्यु होती है तब यह कहावत कही जाती है। उसका भावार्थ यह है कि राजा तो मरता ही नही । राजतत्र एक मिनिट भी बद नही रहता ।

उसी प्रकार तिलक महाराज भी मर नही सकते, न मरे ही । बई की जनता ने यह दिखला दिया कि वह जीते है और बहुत समय तक जीयेगे । उनके सगे-सबधियो को भले ही दुख हुआ हो, उन्होंने भले ही आखो से मोती टपकाये हो, परतु दूसरे लोग तो उत्सव मनाने के लिए आये थे । बाजे और भजन लोगो को चेतावनी दे रहे थे कि लोकमान्य मरे नही है । 'लोकमान्य तिलक महाराज की जय' ध्वनि से आकाश गूज उठता थी । उस समय लोग इस बात को भूल गये थे कि हम तो तिलक महाराज के देह के दाह - कर्म के लिए आये है ।

शनिवार की रात को जब मैने उनके स्वर्गवास की खबर सुनी तब मेरा चित्त व्याकुल हो रहा था, पर जयघोष सुनकर मेरी बेचैनी जाती रही। मेरी भी यही धारणा हुई कि तिलक महाराज जीवित है। उनका क्षण-भगुर देह छूट गया है, पर उनकी अमर आत्मा तो लाखो लोगो के हृदय मे विराजमान है ।

इस जमाने मे किसी भी लोकनायक को ऐसी मृत्यु का सौ- • भाग्य प्राप्त नही हुआ था । दादाभाई गये, फिरोजशाह गये, गोखले भी चले गये । सबके साथ हजारो लोग श्मशान तक गये थे, पर तिलक महाराज ने तो हद कर दी। उनके पीछे तो सारी दुनिया गई। रविवार को बबई बावली हो गई थी ।

यह कैसा चमत्कार | ससार मे चमत्कार नाम की कोई वस्तु नही । अथवा यो कहे कि जगत स्वय ही एक चमत्कृति है । बिना कारण के कोई काम नही होता। इस सिद्धात मे कोई अपवाद नही हो सकता । लोकमान्य का हिदुस्तान पर असीम प्रेम था । इसी कारण लोक-प्रेम की भी मर्यादा नही रह गई थी । स्वराज्य के मंत्र का जितना जप उन्होने किया है उतना दूसरा किसीने नही किया । जिस समय दूसरे लोग यह मानते थे कि हा, अब भारत स्वराज्य के योग्य होगा, उस समय लोकमान्य सच्चे दिल से मानते थे कि भारत आज ही तैयार है । लोकमान्य की इस धारणा ने लोगो के मन को हर लिया था। ऐसा मानकर वह बैठे नही रहे, बल्कि जिदगी भर उसके अनुसार काम किया । उससे जनता मे नवीन चैतन्य, नया जोश पैदा हुआ। उन्होने स्वराज्य प्राप्त करने की अपनी अधीरता का स्वाद लोगो को चखाया और ज्यो- ज्यो जनता को उसका स्वाद मालूम होने लगा त्यो- त्यो वह उनकी तरफ खिचती गई ।

उनपर अनेक तरह की आफते आई, तरह-तरह के कष्ट उन्हे सहने पड़े, तो भी उन्होने उस मंत्र का अनुष्ठान नही छोडा । इस तरह वह कठिन परीक्षाओ मे भी पास हुए। इससे जनता ने उन्हे अपने हृदय का सम्राट् बनाया और उनका वचन उसके लिए कानून की तरह मान्य हो गया ।

देह के नष्ट हो जाने से ऐसा महान् जीवन नष्ट नही होता, बल्कि देह-पात के बाद से तो वह शुरू होता है ।

जिसे हम पूजनीय मानते है उसकी सच्ची पूजा तो उसके सद्गुणो का अनुकरण करना ही है । लोकमान्य अत्यत सादगी के साथ रहते थे । उनके स्मरण के लिए हमे भी अपना जीवन सादा बनाना चाहिए । हमे उस सीमा तक वस्तुओ का त्याग करना चाहिए, जिस तक के लिए हमारा मन गवाही देता हो । अपने निश्चित कार्य को करने से कभी पीछे नही हटना चाहिए। वह विचारशील थे । हमे भी विचार करके ही बोलना और काम करना चाहिए। वह विद्वान् थे, अपनी मातृभाषा और सस्कृति पर उनका खूब प्रभुत्व था । हमे भी उनकी तरह विद्वान् होने का निश्चय करना चाहिए । व्यवहार में विदेशी भाषा का त्याग करके मातृ- भाषा का काफी ज्ञान प्राप्त करना और उसीके द्वारा अपने विचारो को प्रकट करने का अभ्यास करना चाहिए । हमे संस्कृत भाषा का अध्ययन करके अपने धर्म - शास्त्रो में छिपे धर्म- रहस्यो at प्रकट करना चाहिए। वह स्वदेशी के प्रेमी थे । हमे भी स्वदेशी का अर्थ समझकर उसका व्यवहार करना चाहिए। उनके हृदय अपने देश के प्रति अथाह प्रेम था । हम भी अपने हृदय में ऐसा प्रेम उदय करे और दिन-प्रतिदिन देश सेवा मे अधिकाधिक तत्पर हो। इसी रीति से उनकी पूजा हो सकती है। जिनसे इतना न हो सके वे उनकी यादगार के लिए जितना हो सके धन दे और वह स्वराज्य के कार्य में खर्च किया जाय ।

लोकमान्य वर्त्तमान राज्य - मंडल के कंट्टर शत्रु थे । पर इससे यह न समझना चाहिए कि वह अग्रेजो से द्वेष करते थे । जो लोग ऐसा समझते है वे भूल करते है । उन्ही के श्रीमुख से मैने कई र अग्रेजो की प्रशसा सुनी है । वह अग्रेजी राज्य के सबध को भी अनिष्ट नही मानते थे । वह तो सिर्फ अपनेको अग्रेजो के बराबर मनवाना चाहते थे । किसीका भी गुलाम बनकर रहना उन्हे पसद न था ।

“शठ प्रति शाठ्यम्” तिलक महाराज का जीवन-मंत्र नही था । अगर ऐसा होता तो वह इतनी लोकप्रियता प्राप्त न कर सकते। मेरी जान मे ससार-भर में ऐसा भी एक उदाहरण नही है, जिससे किसी मनुष्य ने इस सिद्धात पर अपना जीवन-निर्माण किया हो और फिर भी वह लोकमान्य बन सका हो । यह सच है कि इस बारे मे जितना गहरा मै पैठता हू, वह नही पैठते थे । हम के प्रति शाठ्य का कदापि उपयोग कर ही नही सकते । 'गीता- रहस्य' मे एक-दो स्थानो में, सिर्फ एक ही दो स्थानो में, इस बात का थोडा समर्थन जरूर मिलता है । लोकमान्य मानते थे कि राष्ट्र- हित के लिए अगर कभी शाठ्य से, दूसरे शब्दो मे 'जैसे को तैसा ' सिद्धात से काम लेना पडे तो ले सकते है । साथ ही वह यह भी मानते तो थे ही कि शठ के सामने भी सत्य का प्रयोग करना अच्छा है, यही सत्य सिद्धात है । मगर इस सबंध में वह कहा करते थे कि साधु लोग ही इस सिद्धात पर अमल कर सकते है । तिलक महा- राज की व्याख्या के मुताबिक साधु लोगो से अर्थ वैरागियो का नही, बल्कि उन लोगो से होता है जो दुनिया से अलिप्त रहते है, दुनियादारी के कामो मे भाग नही लेते। इससे यह अर्थ नही । निकलता कि अगर कोई दुनिया में रहकर इस सिद्धात का पालन करे तो अनुचित होगा -- हा, वह न कर सके यह दूसरी बात है । वह मानते थे कि शाठ्य का उपयोग करने का उसे अधिकार है ।

लेकिन ऐसे महान् पुरुष के जीवन का मूल्य ठहराने का हमे कोई अधिकार हो तो हम विवादास्पद बातो से उसका मूल्य न ठहरावे । लोकमान्य का जीवन भारत के लिए, समस्त विश्व के लिए, एक बहुमूल्य विरासत है । उसकी पूरी कीमत तो भविष्य मे निश्चित होगी । इतिहास ही उसकी कीमत का अनुमान लगावेगा, वही लगा सकता है । जीवित मनुष्य का ठीक-ठीक मूल्य, उसका सच्चा महत्व, उसके समकालीन कभी ठहरा ही नही सकते । उनसे कुछ-न-कुछ पक्षपात तो हो ही जाता है, क्योकि रागद्वेष-पूर्ण लोग ही इस काम के कर्ता भी होते है। सच पूछा जाय तो इतिहासकार भी राग-द्वेष-रहित नही पाये जाते । समकालीन व्यक्ति में विशेष पक्षपात होने की सभावना रहती है । लोकमान्य के महान् जीवन का उपयोग तो यह है कि हम उनके जीवन के शाश्वत सिद्धातों का सदा स्मरण और अनुकरण करे ।

तिलक महाराज का देश-प्रेम अटल था । साथ ही उनमे तीक्ष्ण न्याय - वृत्ति भी थी । इस गुण का परिचय मुझे अनायास मिला था । १९१७ की कलकत्ता - महासभा के दिनो में, हिदी साहित्य सम्मेलन की सभा मे भी वह आये थे । महासभा के काम से उन्हे फुर्सत तो कैसे हो सकती थी ? फिर भी वह आये और भाषण करके चले गये । मैने वही देखा कि राष्ट्र-भाषा हिंदी के प्रति उनमे कितना प्रेम था । मगर इससे भी बढकर जो बात मैने उनमे देखी, वह थी अग्रेजो के प्रति की उनकी न्याय-वृत्ति । उन्होन अपना भाषण ही यो शुरू किया था - "मै अग्रेजी शासन की खूब निदा करता हूँ, फिर भी अग्रेज विद्वानो ने हमारी भाषा की जो सेवा की है, उसे हम भुला नही सकते ।" उनका आधा भाषण बात से भरा था।

आखिर उन्होने कहा था कि अगर हमे राष्ट्र- भाषा के क्षेत्र को जीतना और उसकी वृद्धि करना हो तो हमे भी विद्वान की भाति ही परिश्रम और अभ्यास करना चाहिए । अपनी लिपि की रक्षा और व्याकरण की व्यवस्था के लिए हम एक बड़ी हद तक अग्रेज विद्वानो के आभारी है । जो पादरी आरंभ मे आये थे, उनमे पर-भाषा के लिए प्रेम था । गुजराती मे टेलर- कृत व्याकरण कोई साधारण वस्तु नही है । लोकमान्य ने इस बात का  विचार भी नही किया कि अग्रेजो की स्तुति करने से मेरी लोक- प्रियता घटेगी । लोगो का तो यही विश्वास था कि वह अग्रेजो की निदा ही कर सकते है ।

तिलक महाराज मे जो त्याग वृत्ति थी, उसका सौवा या हजारवा भाग की हम अपने मे नही बता सकते । और उनकी सादगी ? उनके कमरे मे न तो किसी तरह का फर्नीचर होता था, न कोई खास सजावट । अपरिचित आदमी तो खयाल भी नही कर सकता था कि वह किसी महान् पुरुष का निवास स्थान है । रग-रग में भिदी हुई उनकी इस सादगी का हम अनुकरण करे तो कैसा हो ? उनका धैर्य तो अद्भुत था ही। अपने कर्तव्य मे वह सदा अटल रहते और उसे कभी भूलते ही न थे । धर्मपत्नी की मृत्यु का सवाद पाने पर भी उनकी कलम चलती ही रही । क्या हम तिलक महाराज के जीवन का एक भी ऐसा क्षण बतला सकते है, जो भोग-विलास में बीता हो ? उनमे जबर्दस्त सहिष्णुता थी । यानी वह चाहे जैसे उद्दड-से-उद्दड आदमी से भी काम करवा लेते थे । लोकनायक मे यह शक्ति होनी चाहिए । इससे कोई हानि नही होती । अगर हम सकुचित हृदय बन जाय और सोच ले कि फला आदमी से काम लेगे ही नही, तो या तो हमे जगल मे जाकर बस जाना चाहिए, या घर बैठे-बैठे गृहस्थ का जीवन बिताना चाहिए । इसमे शर्त यही है कि स्वय अलिप्त रह सकते है  ।

तिलक महाराज का बखान करके ही हम चुप न हो बठे । काम, काम और काम ही हमारा जीवन - सूत्र होना चाहिए । जब कि हम स्वराज्य यज्ञ को चालू रखना चाहते है, हमे चाहिए कि हम निकम्मे साहित्य का पढना बंद कर दे, निरर्थक बातें करना छोड दे और अपने जीवन का एक-एक क्षण स्वराज्य के काम मे बिताने लगे । आप पूछेंगे कि क्या पढाई छोडकर यह काम करे ? १९२१ मे भी विद्यार्थियो के साथ मेरा यही झगडा था कि तिलक महाराज ने क्या किया था ? उन्होने जो बड़े-बडे ग्रंथ लिखे, वे बाहर रहकर नही, जेल में रहकर लिखे थे । ' गीता रहस्य' और 'आक्टिक होम' वह जेल में ही लिख सके थे । बडे-बडे मौलिक ग्रथ लिखने की शक्ति होते हुए भी उन्होने देश के लिए उसका बलि- दान किया था । उन्होने सोचा, “घर के चारो ओर आग भभक उठी है। इसे जितनी बुझा सकू, उतनी तो बुझाऊ ।” उन्होने अगर हजार घडे पानी से वह बुझाई हो तो हम एक ही घडा डाले, मगर डाले तो सही । पढाई आदि आवश्यक होते हुए भी गौण बाते है । अगर स्वराज्य के लिए इनका उपयोग होता हो तो करना चाहिए, अन्यथा इन्हें तिलाजलि देनी चाहिए। इससे न हमारा नुकसान है और न ससार का |

तिलक महाराज अपने जीवन द्वारा इसका प्रत्यक्ष उदा- 'छोड गये है। जिनके जीवन मे से इतनी सारी बाते ग्रहण करने योग्य हो, जिनकी विरासत इतनी जबर्दस्त हो, उनके सबध मे उक्त प्रश्न के लिए गुजाइश ही नही रहती है । हमारा धर्म तो गुणग्राही बनने का है ।

आज हमे जो काम करना है, वह मुर्दार आदमियो के करने सेतो हो नही सकता । स्वराज्य का काम कठिन है । भारत मे आज एक लहर बह रही है । उसमे खिचकर हम भाषण करते है, धीगाधीगी मचाते हैं, तूफान खडे करते है, मनमाने तौर पर सस्थाओ मे घुस जाते है और फिर उन्हें नष्ट करते एव धारा- सभाओ मे जाकर भाषण करते है । तिलक महाराज के जीवन मे ये बाते हमारे देखने मे भी नही आती । उनके जीवन के जो अनुकरणीय है, सो तो मै ऊपर कह ही चुका हू ।'

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रचनाएँ
देश सेवकों के संस्मरण
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देश सेवकों के संस्कार कई भारतीय स्वतंत्रता सेनानियों के जीवन और कार्य के बारे में निबंधों का एक संग्रह है। निबंध स्वतंत्रता सेनानियों के साथ प्रभाकर की व्यक्तिगत बातचीत और उनके जीवन और कार्य पर उनके शोध पर आधारित हैं। देश सेवकों के संस्कार में निबंधों को कालानुक्रमिक रूप से व्यवस्थित किया गया है, जो भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के शुरुआती दिनों से शुरू होकर महात्मा गांधी की हत्या तक समाप्त होता है। निबंधों में असहयोग आंदोलन, भारत छोड़ो आंदोलन और नमक सत्याग्रह सहित कई विषयों को शामिल किया गया है। देश सेवकों के संस्कार में प्रत्येक निबंध भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन पर एक अद्वितीय और व्यक्तिगत दृष्टिकोण प्रदान करता है। प्रभाकर के निबंध केवल ऐतिहासिक वृत्तांत नहीं हैं, बल्कि साहित्य की कृतियाँ भी हैं जो उस समय की भावना और स्वतंत्रता सेनानियों द्वारा किए गए बलिदानों को दर्शाती हैं। देश सेवकों के संस्कार भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन पर साहित्य में एक महत्वपूर्ण और मूल्यवान रचना है।
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अध्याय 3: बी अम्मा

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अध्याय 4: धर्मानंद कौसंबी

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अध्याय 6: मगनलाल खुशालचंद गांधी

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कुछ वर्ष पूर्व मैने स्वर्गीय रमाबाई रानडे के दर्शन का वर्णन किया था । मैने आदर्श विधवा के रूप मे उनका परिचय दिया था । इस समय मेरे भाग्य मे एक महान् वीर की विधवा के वैधव्य के आरभ का चित्र उपस्थित करना

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अध्याय 25: स्वामी श्रद्धानंद

16 अगस्त 2023
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जिसकी उम्मीद थी वह ही गुजरा। कोई छ महीने हुए स्वामी श्रद्धानदजी सत्याग्रहाश्रम में आकर दो-एक दिन ठहरे थे । बातचीत में उन्होने मुझसे कहा था कि उनके पास जब-तब ऐसे पत्र आया करते थे जिनमे उन्हें मार डालन

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अध्याय 26: श्रीनिवास शास्त्री

16 अगस्त 2023
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दक्षिण अफ्रीका - निवासी भारतीयो को यह सुनकर बडी तसल्ली होगी कि माननीय शास्त्री ने पहला भारतीय राजदूत बनकर अफ्रीका में रहना स्वीकार कर लिया है, बशर्ते कि सरकार वह स्थान ग्रहण करने के प्रस्ताव को आखिरी

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अध्याय 27: नारायण हेमचंद्र

16 अगस्त 2023
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स्वर्गीय नारायण हेमचन्द्र विलायत आये थे । मै सुन चुका था कि वह एक अच्छे लेखक है। नेशनल इडियन एसो - सिएशनवाली मिस मैंनिग के यहा उनसे मिला | मिस गजानती थी कि सबसे हिल-मिल जाना मैं नही जानता । जब कभी मै

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