जब से १९१५ मे हिदुस्तान आया तब से मेरा मालवीयजी के साथ बहुत समागम है और में उन्हें अच्छी तरह जानता हू । मेरा उनके साथ गहरा परिचय रहता है । उन्हें मैं हिंदू-संसार के श्रेष्ठ व्यक्तियो मे मानता हूं । कट्टर और पुराने खयालात के होते हुए भी बड़े उदार विचार रखते है। उनका किसीसे ईर्ष्या रखना असंभव है । उनकी उदारता ऐसी है कि उसमे उनके दुश्मनो के लिए भी जगह है । कभी उन्हे शासन की चाह न रही और जो शासन आज उनके पास है वह उनकी मातृभूमि की आज तक की लंबी और अखड सेवा का
। ऐसी सेवा का दावा हममे से बहुत कम लोग कर सकते है । उनकी और मेरी विशेषता अलग-अलग है, लेकिन हम दोनो एक दूसरे को सगे भाई -सा प्यार करते है । मेरे और उनके बीच कभी जरा भी बिगाड़ नही हुआ । हमारे रास्ते जुदे - जुदे है । इसलिए हमारे बीच स्पर्धा और डाह का सवाल पैदा ही नही हो सकता ।
आशावाद और भोलेपन में में भेद करता हूं। पंडितजी में दोनो है । दृष्टिमर्यादा पर निराशा के चिन्ह होते हुए भी और जानते हुए भी जो आशा रखता है वह आशावादी है । यह गुण पडितजी में काफी मात्रा में है। आशा की बाते कोई कह दे और उसपर विश्वास लाना वह भोलापन है । यह भी पडितजी में है । उसे मै त्याज्य समझता हूँ । पडितजी महान व्यक्ति है, इसलिए उनको ऐसे भोलेपन से हानि नही हुई है। हमे ऐसे भोलेपन का अनु- करण कभी नही करना चाहिए। आशावाद अतर्नाद पर निर्भर है, भोलापन बाह्य बातो पर ।"
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देश के सार्वजनिक जीवन को उनकी बहुत बडी देन है । उनका सबसे बडा कार्य हिंदू विश्वविद्यालय, बनारस है । इस विद्यालय के प्रेम से हमे हार्दिक प्रेम है । महामना मालवीयजी ने उसके लिए जब कभी मेरी सेवाए चाही है, मैने दी है ।
मालवीयजी महाराज के साथ मेरा कितना गाढ सबध हैं। अगर उनका कोई काम मुझसे हो सकता है तो मुझे उसका अभिमान रहता है और अगर में उसे कर सकू तो अपनेको कृतार्थ समझता हूँ । यहा आना मेरे लिए तो एक तीर्थ मे आने के समान है ।
यह विश्वविद्यालय मालवीयजी महाराज का सबसे बडा और प्राण प्रिय कार्य है। उन्होने हिदुस्तान की बहुत - बहुत सेवाए की है, इससे आज कोई इकार नही कर सकता। लेकिन मेरा अपना खयाल यह है कि उनके महान् कार्यो में इस कार्य का महत्व सबसे ज्यादा रहेगा । २५ साल पहले, जब इस विश्वविद्यालय की नीव गई थी, तब भी मालवीयजी महाराज के आग्रह और खिचाव से मैं यहा आ पहुचा था। उस समय तो मैं यह सोच भी न सकता था कि जहा बडे-बडे राजा-महाराजा और खुद वाइसराय आने- वाले है, वहा मुझ जैसे फकीर की क्या जरूरत हो सकती है । तब तो में 'महात्मा' भी नही बना था ।
उस समय भी मालवीयजी महाराज की कृपा-दृष्टि मुझपर थी । कही भी कोई सेवक हो, वह उसे ढ्ढ निकालते है और किसी- न-किसी तरह अपने पास खीच ही लाते है । यह उनका मदा का धधा है ।
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लोग मालवीयजी महाराज की बडी प्रशंसा करते है । वह सब तरह उसके लायक है । मै जानता हू कि हिंदू विश्वविद्यालय का कितना बडा विस्तार है । ससार मे मालवीय- जी से बढकर कोई भिक्षुक नही । जो काम उनके सामने आ जाता है, उसके लिए —— अपने लिए नही -- उनकी भिक्षा की झोली का मुह हमेशा खुला रहता है। वह हमेशा मागा ही करते हैं, और परमात्मा की भी उनपर बड़ी दया है कि जहा जाते है, उन्हे पैसे मिल ही जाते है, तिसपर भी उनकी भूख कभी नही बुझती । उनका भिक्षापात्र सदा खाली रहता है। उन्होने विश्वविद्यालय के लिए एक करोड इकट्ठा करने की प्रतिज्ञा की थी । एक करोड की जगह डेढ करोड दस लाख रुपया इकट्ठा हो गया, मगर उनका पेट नहीं भरा। अभी - अभी उन्होने मुझसे कान कहा है कि आज के हमारे सभापति महाराज साहब दरभंगा ने उनको एक खासी बडी रकम दान में और दी है ।
ता हू कि मालवीयजी महाराज स्वय किस तरह रहते है । यह मेरा सौभाग्य है कि उनके जीवन का कोई पहलू मुझसे छिपा नही । उनकी सादगी, उनकी सरलता, उनकी पवित्रता और उनके प्रेम से मै भली-भांति परिचित हू । उनके इन गुणो मे से आप जितना कुछ ले सके, जरूर ले । विद्यार्थियो के लिए तो उनके जीवन की बहुतेरी बाते सीखने लायक हे । मगर मुझे डर है कि उन्होने, जितना सीखना चाहिए, सीखा नही है । यह आपका और हमारा दुर्भाग्य है । इसमे उनका कोई कसूर नही । धूप मे रहकर भी कोई सूरज का तेज न पा सके तो उसमे सूरज बेचारे का क्या दोष ? वह तो अपनी तरफ से सबको गर्मी पहुचाता रहता है, पर अगर कोई उसे लेना ही न चाहे और ठंड मे रहकर ठिठुरता फिरे तो सूरज भी उसके लिए क्या करे ? मालवीयजी महाराज के इतने निकट रहकर भी अगर आप उनके जीवन से सादगी, त्याग, देशभक्ति, उदारता और विश्वव्यापी प्रेम आदि सद्गुणो का अपने जीवन मे अनुकरण न कर सके तो कहिये, आप से बढकर अभागा और कौन होगा ? "
अग्रेजी में एक कहावत है- 'राजा गया, राजा हमेशा जियो ।' ठीक यही भारत भूषण मालवीयजी महाराज के लिए कहा जा सकता है — “मालवीयजी गये, मालवीयजी अमर हो । " मालवीयजी हिंदुस्तान के लिए पैदा हुए और हिदुस्तान के लिए किये गये अपने कामो मे जीते है । उनके काम बहुत है । बहुत बडे है । उनमें सबसे बडा हिदू विश्वविद्यालय है । गलती से उसे हम बनारस हिंदू यूनिवर्सिटी के नाम से पहचानते है । उस नाम के लिए दोष मालवीयजी महाराज का नही, उनके पैरोकारो का रहा है । मालवीयजी महाराज दासानुदास थे । दास लोग जैसा करते थे, वैसा वह करने देते थे । मुझे पता है कि यह अनुकूलता उनके स्वभाव मे भरी थी, यहातक कि बाज दफा वह दोष का रूप लेलेती थी, लेकिन 'समरथ को नहि दोष गुसाई' वाली बात मालवीयजी महाराज के बारे मे भी कही जा सकती है । उनका प्रिय नाम तो हिदू विश्वविद्यालय ही था और यह सुधार तो अब भी करने योग्य है । इस विश्वविद्यालय का हरेक पत्थर शुद्ध हिदू-धर्म का प्रतिबिब होना चाहिए। एक भी मकान पश्चिम के जडवाद की निशानी न हो, बल्कि अध्यात्म की निशानी हो । और जैसे मकान हो, वैसे ही शिक्षक और विद्यार्थी भी हो । आज है ? प्रत्येक विद्यार्थी शुद्ध धर्म की जीवित प्रतिमा है ? नही है तो, क्यो नही है ? इस विश्वविद्यालय की परीक्षा विद्यार्थियों की संख्या से नही, बल्कि उनके हिदू-धर्म की प्रतिमा होने से ही हो सकती है, फिर भले वे थोडे ही क्यो न हो ।
मैं जानता हूं कि यह काम कठिन है, लेकिन यही इस विद्यालय की जड है । अगर यह ऐसा नही है, तो कुछ नही है । इसलिए स्वर्गीय मालवीयजी के पुत्रो का और उनके अनुयायियो का धर्म स्पष्ट है । जगत मे हिदू-धर्म का क्या स्थान है ? उसमे आज क्या दोष है ? वे कैसे दूर किये जा सकते है ? मालवीयजी महा- राज के भक्तो का कर्त्तव्य है कि वे इन प्रश्नो को हल करे । मालवीय- जी अपनी स्मृति छोड गये है । उसको स्थायी रूप देना, उसका विकास करना, उनका श्रेष्ठ स्मृति - स्तभ होगा ।
विश्वविद्यालय के लिए स्व० मालवीयजी ने काफी द्रव्य इकट्ठा किया था, लेकिन बाकी भी काफी रहा है । इस काम मे तो . हरेक आदमी हाथ बटा सकता है ।
यह तो हुईं उनकी बाह्य प्रवृत्ति । उनका आतरिक जीवन विशुद्ध था । वह दया के भडार थे । उनका शास्त्रीय ज्ञान बडा था । भागवत उनकी प्रिय पुस्तक थी । वह सजग कथाकार थे । उनकी स्मरण शक्ति तेजस्विनी थी । जीवन शुद्ध था, सादा था ।
उनकी राजनीति को और दूसरी अनेक प्रवृत्तियो को छोड देता हूं । जिन्होने अपना सारा जीवन सेवा के लिए अर्पित किया था और जो अनेक विभूतिया रखते थे, उनकी प्रवृत्ति की मर्यादा हो नही सकती। मैने तो उनमे से चिरस्थायी चीजे ही देने का सकल्प किया था । जो लोग विश्वविद्यालय को शुद्ध बनाने में मदद देना चाहते है, वे मालवीयजी महाराज के अंतर्जीवन के मनन और अनुसरण करने की कोशिश करे । '