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अध्याय 25: स्वामी श्रद्धानंद

16 अगस्त 2023

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जिसकी उम्मीद थी वह ही गुजरा। कोई छ महीने हुए स्वामी श्रद्धानदजी सत्याग्रहाश्रम में आकर दो-एक दिन ठहरे थे । बातचीत में उन्होने मुझसे कहा था कि उनके पास जब-तब ऐसे पत्र आया करते थे जिनमे उन्हें मार डालने की धमकी दी जाती थी । किस सुधारक के सिर पर बोली नही बोली गई है ? इसलिए उनके ऐसे पत्र पाने मे अचभे की कोई बात नही थी। उनका मारा जाना कुछ अनोखी बात नही है ।

स्वामीजी सुधारक थे । वह कर्मवीर थे, वचनवीर नही । जिसमे उनका विश्वास था, उसका वह पालन करते थे । उन विश्वासो के लिए उन्हे कष्ट झेलने पडे । वह वीरता के अवतार थे । भय के सामने उन्होने कभी सिर नही झुकाया । वह योद्धा थे और योद्धा रोग-शैय्या पर मरना नही चाहता । वह तो युद्ध भूमि का मरण चाहता है ।

कोई एक महीना हुआ कि स्वामी श्रद्धानदजी बहुत बीमार पडे । डाक्टर असारी उनकी चिकित्सा करते थे । जितने अनुराग से उनसे सभव था, डाक्टर असारी उनकी सेवा करते थे । इस महीने के शुरू मे मेरे पूछने पर उनके पुत्र प्रो० इद्र ने तार दिया था कि स्वामीजी अब अच्छे है और मेरा प्रेम और दुआ मागते है । मैं उनके बिना मागे ही उनपर प्रेम और उनके लिए भगवान से प्रार्थना करता ही रहता था ।

भगवान को उन्हे शहीद की मौत देनी थी । इसलिए जब वह मार ही थे तभी उस हत्यारे के हाथ मारे गये, जो इस्लाम पर धार्मिक चर्चा के नाम पर उनसे मिलना चाहता था, जो स्वामीजी की प्रेरणा से आने दिया गया, जिसने प्यास मिटाने को पानी मागने के बहाने स्वामीजी के ईमानदार नौकर धर्मसिह को पानी लेने को  बाहर हटा दिया और जिसने नौकर की गैरहाजिरी मे बिस्तर पर पडे हुए रोगी की छाती मे दो प्राण घातक चोटे की । स्वामीजी के अतिम शब्दो की हमे खबर नही । लेकिन अगर मैं उन्हे कुछ भी पहचानता था तो मुझे बिल्कुल सदेह नही है कि उन्होने अपने परमात्मा से उसके लिए क्षमा-याचना की होगी, जो यह नही जाता था कि वह पाप कर रहा है। इसलिए गीता की भाषा मे वह योद्धा धन्य है जिसे ऐसी मृत्यु प्राप्त होती है ।

मृत्यु तो हमेशा ही धन्य होती है, मगर उस योद्धा के लिए तो और भी अधिक जो अपने धर्म के लिए यानी सत्य के लिए मरता है । मृत्यु कोई शैतान नही है । वह तो सबसे बडी मित्र है । वह हमे 'कष्टों से मुक्ति देती है । हमारी इच्छा के विरुद्ध भी हमे छुटकारा देती है । हमे बराबर ही नई आशाए, नये रूप देती है । वह नीद के समान मीठी है, किंतु तो भी किसी मित्र के मरने पर शोक करने का चलन है । अगर कोई शहीद मरता है तो यह रिवाज नही रहता । अतएव इस मृत्यु पर मै शोक नही कर सकता | स्वामीजी और उनके सबधी ईर्ष्या के पात्र है, क्योंकि श्रद्धानदजी मर जाने • पर भी अभी जीते है । उससे भी अधिक सच्चे रूप मे वह जीते है, जब वह हमारे बीच अपने विशाल शरीर को लेकर घूमा करते थे। ऐसी महिमामय मृत्यु पर जिस कुल में उनका जन्म हुआ था, जिस जाति के वह थे, सभी धन्यता के पात्र है । वह वीर पुरुष थे । उन्होने वीरगति पाई । "

स्वामी श्रद्धानंद की दृष्टि से इस प्रसग को धर्म - प्रसग कहेंगे । वह बीमार थे। मुझे तो कुछ खबर न थी, कितु एक मित्र ने खबर दी कि स्वामीजी भाग्य से ही बच जाय तो बच जाय । पीछे से मेरे तार के उत्तर में उनके लडके का तार मिला कि उन्हें धीरे-धीरे आराम हो रहा है । यह भी मालूम हुआ कि डाक्टर असारी बहुतअच्छी तरह सेवा-शुश्रूषा कर रहे है। इस प्रकार की गंभीर बीमारी मे वह बिछौने पर पड़े थे और उसपर ही उनके प्राण लिये गये । मरना तो सबको है, किंतु यो मरना किस काम का ! सारे हिंदु- स्तान मे और पृथ्वी पर जहां-जहा हिदुस्तानी लोग होगे, वहा- वहा स्वामीजी के स्वाभाविक बीमारी से, मरने से जो असर होता उसकी अपेक्षा इस अपूर्व मरण से अजीब ही असर होगा । मैने भाई इद्र को समवेदना का एक भी तार या पत्र नही लिखा है । उन्हे और कुछ दूसरा कह ही नही सकता। इतना ही कह सकता हूं कि तुम्हारे पिता को जो मृत्यु मिली है, वह धन्य मृत्यु है ।

किंतु यह सब बात तो मैने स्वामीजी की दृष्टि से, मेरी अपनी दृष्टि से की है। मै अनेक बार कह चुका हू कि मेरे लेखे हिंदू और मुसलमान दोनो ही एक है। मै जन्म से हिंदू हू और हिदू धर्म मे मुझे शांति मिलती है । जब-जब मुझे अशाति हुई, हिंदू धर्म मे से ही मुझे शाति मिली है । मैने दूसरे धर्मो का भी निरीक्षण किया है। और इसमे चाहे जितनी कमिया और त्रुटिया होवे तो भी मेरे लिए यही धर्म उत्तम है । मुझे ऐसा लगता है और इसीसे मै अपनेको सनातनी हिंदू मानता हू । कितने ही सनातनियो को मेरे इस दावे से दुख होता है कि विलायत से आकर यह सुधरा हुआ आदमी हिदू कैसा | कितु मेरा हिदू होने का दावा इससे कुछ कम नही होता और यह धर्म मुझे कहता है कि मैं सबके साथ मित्रता से रहू इससे मुझे मुसलमानो की दृष्टि भी देखनी है ।

मुसलमान की दृष्टि से जब इस बात का विचार करता तो मुझे दूसरी ही बात मालूम पड़ती है । यह काड मुसलमान के हाथ न पडा, धर्म-चर्चा के बहाने घर मे प्रवेश करके उसने यह कृत्य किया । नौकर ने तो कहा, “स्वामीजी बीमार है । आज नही मिल सकते ।” दरवाजे पर हुज्जत हुई। स्वामीजी ने सुनकर कहा, "अच्छा है, आ जाने दो ।" और स्वामीजी मे उससे बात करने की शक्ति न रहने पर भी उन्होने बाते की । बात करने की तो उनमे ताकत ही नही थी । स्वामीजी को तो उसे समझाकर विदा कर देने को था, इसलिए बुलाकर कहा, “भाई, अच्छे हो जाने । पर तुम्हे जितनी बहस करती हो कर लेना, कितु आज तो बिछौने पर पड़ा हूँ ।" इसपर उसने पानी मागा | धर्मसिह को स्वामीजी ने आज्ञा दी, “इनको पानी पिला दो ।" आज्ञाकारी नौकर पानी लेने जाता है, तबतक तो यहा उसने रिवाल्वर निकाल ली । एक से सतोष न हुआ तो दो गोली मारी। स्वामीजी ने उसी समय प्राण खोये । धर्मसिह आवाज सुनकर अपने मालिक को बचाने दौडा, कितु बचावे कौन ? ईश्वर को स्वामीजी के शरीर की रक्षा नही करनी थी ।

हमारे लिए यह एक अच्छा शिक्षा-पाठ बनना चाहिए कि 'स्वामीजी का खून अब्दुलरशीद के हाथो हो । इससे हम एक-दूसरे को समझ ले ।

श्रद्धानदजी और मेरे बीच कैसा सबध था, वह तो आज मैं यहा नही कहूगा । मेरे सामने वह अपने दिल की बाते कहा करते थे । कोई छ महीने हुए जब वह आश्रम मे आये थे तब कहते थे, “मेरे पास धमकी के कितने पत्र आते है । लोग धमकी देते है कि तुम्हारी जान ले ली जायगी, पर मुझे उनकी कुछ परवा नही ।" वह तो बहादुर आदमी थे । उनसे बढकर बहादुर आदमी मैने ससार मे नही देखा | मरने का उन्हे डर नही था, क्योकि वह सच्चे आस्तिक, ईश्वरवादी आदमी थे । इसीसे उन्होने कहा - मेरी जान अगर ले ही ली जाय तो उसमे होना ही क्या है ? १

स्वामीजी से मेरा पहला परिचय तब हुआ जब वह महात्मा मुशीराम के नाम से प्रसिद्ध थे । वह परिचय भी पत्रो से हुआ । उस समय वह कांगडी गुरुकुल के प्रधान थे, जोकि उनका सबसे पहला और बडा शिक्षा क्षेत्र का काम है । वह सिर्फ पश्चिमी शिक्षा- पद्धति से ही सतुष्ट न थे । लडको मे वे वेद- शिक्षा का प्रचार करना चाहते थे और वह पढाते थे हिंदी के जरिए, अग्रेजी के नही । शिक्षा- काल में वह उन्हें ब्रह्मचारी रखना चाहते थे । दक्षिण अफ्रीका के सत्याग्रहियों के लिए उस समय जो धन इकट्ठा किया जा रहा था, उसमे चदा देने के लिए लडको को उन्होने उत्साहित किया था । वह चाहते थे कि लडके खुद कुली बनकर, मजदूरी करके चंदा , क्योकि वह युद्ध क्या कुलियो का नही था ? लडको ने यह सब पूरा कर दिखाया और पूरी मजदूरी कमाकर मेरे पास भेजी । इस विषय मे स्वामीजी ने मुझे जो पत्र भेजा था, वह हिदी मे था । उन्होने मुझे 'मेरे प्रिय भाई' कहकर लिखा था। इसने मुझे महात्मा मुशीराम का प्रिय बना दिया। इससे पहले हम दोनो कभी मिले ही थे ।

हम लोगों के बीच के सूत्र एंड्रयूज थे। उनकी इच्छा थी कि जब कभी मैं देश लौटू, उनके तीनो मित्रो, कवि ठाकुर, प्रिंसिपल रुद्र और महात्मा मुशीराम से परिचय प्राप्त करू ।

वह पत्र पाने के बाद से हम दोनो एक ही सेना के सैनिक बन गये । उनके प्रिय गुरुकुल मे हम १९१५ मे मिले और उसके बाद से हरेक मुलाकात में हम दोनो परस्पर निकट आते गये और एक दूसरे को ज्यादा अच्छी तरह समझने लगे । प्राचीन भारत, सस्कृत और हिंदी के प्रति उनका प्रेम असीम था । बेशक, अस- योग के पैदा होने के बहुत पहले से ही वह असहयोगी थे । स्वराज के लिए वह अधीर थे । अस्पृश्यता से वह नफरत करते थे और अस्पृश्यो की स्थिति ऊची करना चाहते थे । उनकी स्वाधीनता पर कोई बंधन लगाना वह नही सह सकते थे ।

जब 'रौलट ऐक्ट' का आंदोलन शुरू हुआ तो उसे सबसे पहले शुरू करनेवालो मे से वह थे । उन्होने मुझे बहुत ही प्रेम से भरा हुआ एक पत्र भेजा । कितु वीरमगाम और अमृतसर-कांड के बाद सत्याग्रह को स्थगित किया जाना वह नही समझ सके । उस समय से हमारे बीच मतभेद शुरू हुए, कितु उससे हम लोगो के भाई-भाई के सबध मे कभी कोई अंतर नही पड़ा । उस मतभेद से मुझपर उनका बाल-सुलभ स्वभाव प्रकट हुआ । परिणाम का विचार किये बिना ही, उन्हें जैसा मालूम था मुझसे सच्ची बात कह दी। वह अतिसाहसिक थे । समय बीतने के साथ-साथ हम दोनों जो स्वभाव का अंतर था, उसे मैं देखता गया, किंतु उससे तो

आत्मा की शुद्धता ही सिद्ध हुई । सबको सुनाकर विचार करना कुछ पाप नही है । यह तो एक गुण है। यह सत्य - प्रियता का सर्वप्रधान लक्षण है | स्वामीजी ने अपने विचार गुप्त रखे ही नही ।

बारडोली के निश्चय से उनका दिल टूट गया । मुझसे वह निराश हो गये । उनका प्रकट विरोध बहुत जबर्दस्त था । मेरे "नाम उनके निजी पत्रो मे और भी विरोध होता था, कितु हमारे मतभेद पर जितना वह जोर देते थे, प्रेम पर भी उतना ही । प्रेम का विश्वास केवल पत्रो मे ही दिला देने से वह सतुष्ट न थे । मौका मिलने पर उन्होने मुझे ढूंढ निकाला और मुझे अपनी स्थिति समझाई और मेरी समझने की कोशिश थी । मगर मुझे मालूम होता है कि मुझे ढूढने का असल कारण यह था कि अगर जरूरत हो तो मुझे वह विश्वास दिला सके कि एक छोटे भाई के समान मुझपर उनकी प्रीति जैसी-की-तैसी बनी हुई है ।

आर्यसमाज और उसके सस्थापक पर मेरे मतो से और उनके नाम का उल्लेख करने से उन्हें बहुत कष्ट हुआ, परंतु इस धक्के को सहने की शक्ति हमारी मित्रता मे थी । वह यह नही समझ सकते थे कि महर्षि के विषय मे मेरे मतो और अपने व्यक्तिगत शत्रुओ के प्रति ऋषि की असीम क्षमा का एक साथ कैसे मेल बैठ सकता है। महर्षि मे उनकी इतनी अधिक श्रद्धा थी कि उनपर या उनकी शिक्षाओ पर कोई भी टीका वह सह नही सकते थे ।

शुद्धि-आदोलन के लिए मुसलमान पत्रो मे उनकी बडी कड़ी आलोचनाए और निदा की गई है। मैं स्वयं उनके दृष्टि- बिदु को स्वीकार नही कर सका था । अब भी मै उसे नही मानता । कितु मेरी नजर में, अपने दृष्टि- बिदु से वह अपनी स्थिति का पूरा बचाव करते थे, जबतक शुद्धि और तबलीग मर्यादा के भीतर रहे, तब तक दोनों ही बराबर छूट के अधिकारी है ।

अगर हम हिंदू और मुसलमान दोनो शुद्धि का आतरिक अर्थं समझ सकते तो स्वामीजी की मृत्यु से भी लाभ उठाया जा

सकता था ।एक महान सुधारक के जीवन के स्मरणो को मै सत्याग्रहाश्रम मे, उनके कुछ महीनो पहले के आखिरी आगमन की बात के बिना खत्म नही कर सकता । वह मुसलमानो के दुश्मन नही थे । कुछ मुसलमानो का विश्वास वह बेशक नही करते थे, किंतु उन लोगो से उनका कुछ द्वेष नही था । उनका खयाल था कि हिदू दबा दिये गये है और उन्हे बहादुर बनकर अपनी और अपनी इज्जत की रक्षा करने योग्य बनना चाहिए । इस बारे मे उन्होने मुझसे कहा था कि "मेरे विषय मे बडी गलतफहमी फैली हुई है । मेरे विरुद्ध कही जानेवाली कई बातो मे मैं बिल्कुल निर्दोष हू । मेरे पास धमकी के कितने एक पत्र आया करते है ।" मित्रगण उन्हें अकेले चलने से मना करते थे । मगर यह परम आस्तिक पुरुष उनका जवाब दिया करता था, "ईश्वर की रक्षा के सिवाय और किस रक्षा का मै भरोसा करू ? उसकी आज्ञा के बिना एक तिनका भी नही हिलता । मै जानता हू कि जबतक वह मुझसे इस देह के द्वारा सेवा लेना चाहता है, मेरा बाल बाका नही हो सकता ।"

आश्रम में रहते समय उन्होने आश्रम -पाठशाला के लडके- लडकियो से बाते की। उनका कहना था कि हिदू-धर्म की सबसे ast रक्षा आत्म-शुद्धि से ही होगी, भीतर से ही होगी । चारित्र्य और शरीर के गठन के लिए ब्रह्मचर्य पर वह बहुत जोर देते थे । '

...

'वीर पुरुष को जब ऐसी मृत्यु मिलती है तो वह उसे मित्र के समान गले लगाता है। किंतु इससे कोई यह नही चाहता कि उसका कोई खून करे । कोई भी अपने साथ अन्याय करे, गुनह- गार बने, कोई भी मनुष्य दुष्कृत्य करे, ऐसी इच्छा ही करना अनुचित है।

स्वामीजी वीरो के अग्रणी थे । अपनी वीरता से उन्होने भारत को आश्चर्य चकित कर दिखाया । इसका साक्षी में ह कि हू देश के लिए अपना शरीर कुर्बान करने की उन्होने प्रतिज्ञा ली थी । वह अनाथ-बधु थे । अछूतो के लिए उन्होने जितना किया उससे अधिक हिदुस्तान मे दूसरे किसीने नही किया । उनकी दूसरी सेवाओ का वर्णन मै यहा करना नही चाहता। स्वामीजी के जैसे वीर, देशभक्त, ईश्वर के अनन्यभक्त और सेवक का खून देश के लिए जैसा लाभदायक है, वैसा ही, उसे दुख होना भी स्वाभाविक है, क्योकि हम लोग अपूर्ण मनुष्य है ।

. स्वामीजी "आत्म-बलिदान से दूसरा ही धर्म बतला गये है । उन्होने एक बार मुझसे पूछा था कि आर्यसमाज उदार कैसे नही ? आप क्या जानते है कि महर्षि दयानंद ने अपनेको जहर देनेवाले के साथ क्या किया था । मैने जवाब दिया कि मै महर्षि की क्षमाशीलता को जानता हू । मगर स्वामीजी तो महर्षि के भक्त थे । उन्होने सारी कथा कह सुनाई । महर्षि क्षमाशील थे, क्योकि उनके आगे युधिष्ठिर का उज्ज्वल उदाहरण था । वह उपनिषदों के भक्त थे । श्रद्धानदजी भी वैसे ही क्षमाशील थे । शुद्धि पर बाते करते समय उन्होने एक बार कहा था कि "मैं मुसलमानो को हिदुओ का दुश्मन नही मानता ।” ‘आत्मवत् सर्वभूतेषु' के सिद्धात का उपदेश करने वाले और गीता के भक्त श्रद्धानदजी किसीको दुश्मन क्योकर मान सकते थे ? उन्होने कहा, "मै मुसलमानो को भाई मानता हूं, मित्र मानता हू, किंतु हिदू को भी भाई मानता हू और उसकी सेवा करना चाहता हूँ ।

आज श्रद्धानदी के लिए आसू बहाने का समय नही है । आज तो क्षत्रियता बताने का अवसर है । क्षत्रियता क्षत्रिय का खास गुण भले ही हो मगर ब्राह्मण, वैश्य, शूद्र सभी उसे दिखा सकते है । खासकर आज का 'स्वराज युग' हम सबके लिए क्षत्रियता का युग है । इसलिए रोने की बात छोड़ दे और श्रद्धानदजी के बलिदान से, रशीद के किये खून से जो पाठ मिले उसे हृदय मे धरे । '

...

स्वामीजी का देहात हुआ ही नही है । देहात तो तब होगा जब हम उनकी सच्ची देह को मिटाने की कोशिश करेंगे । अगर्चे कि सच्ची बात तो यह है कि हमारी कोशिश से भी उनकी देह का नाश होने को नही है । जबतक यह गुरुकुल कायम है, जबतक एक भी स्नातक गुरुकुल की सेवा करता है, तबतक स्वामीजी जीते ही है | स्वामीजी का शरीर तो किसी दिन गिरने को था | पर स्वामीजी का सबसे बडा काम गुरुकुल है, उन्होने अपनी सारी शक्ति इसमे लगा दी थी । इसे पैदा करने में उन्होने अधिक-से- अधिक तपश्चर्या की थी । तुमने सत्य की प्रतिज्ञा ली है । अगर तुम अपने वचन का पालन करोगे तो किसीकी शक्ति नही कि वह गुरुकुल को मिटा दे ।

पर गुरुकुल को चिरस्थायी रखने के लिए उस वीरता, ब्रह्म- चर्य और क्षमा की जरूरत है, जो हमने उनके जीवन मे देखी । वीरता का लक्षण क्षमा, और ब्रह्मचर्य और वीर्य का सयम है । वीरता और वीर्य की रक्षा से तुम देश और धर्म की पूरी-पूरी रक्षा कर सकोगे। मैं जानता हू कि यह काम मुश्किल है। तुम्हारे यहा के बहुत से विद्यार्थियो के पत्र मेरे पास पड़े हुए है । कोई मेरी स्तुति करता है तो कोई गाली देते है । स्तुति तो नाकाम चीज है । उसका असर मेरे ऊपर नही होता । परंतु जब विद्यार्थी चिढकर गाली देते है तो मुझे चिता होती है क्योकि क्रोध से वीर्य का नाश होता है | स्वामीजी के सामने मैने ब्रह्मचर्य की अपनी व्याख्या रखी थी और वह मेरे साथ सम्मत थे । किसी स्त्री का मलिन स्पर्श न करने मे ही ब्रह्मचर्य नही होता । हा, ब्रह्मचर्यं वहा से शुरू जरूर होता है । पर क्षमा की पराकाष्ठा ब्रह्मचर्य का लक्षण है । पिछले साल स्वामीजी जब टकारिया से लौटते समय मुझसे मिलने गये थे तो उन्होने मुझसे कहा कि "हिदूधर्म की रक्षा नीति से ही सभव है ।' अगर तुम वैदिक आचार और विचार की रक्षा करना चाहते हो तो तुम यह वस्तु याद रखो कि तुम्हे पग-पग पर रुपये मिल जायगे, मगर ब्रह्मचर्य का, नीति का पाया यहापर न होगा तो तुम्हारा गुरुकुल मिट्टी में मिल जायगा • इस भूमि के तो आत्मा नही है । इसकी आत्मा तुम्ही हो । अगर तुम आत्मबल खो दोगे और 'उदरनिमित्त बहुकृतवेष ' जैसे बन जाओगे तो तुम्हारी सारी शिक्षा बेकार जायगी ।

मै आज तुम्हारे आगे चर्खा और खादी की बात करने नही आया हू । तुम्हारा पहला काम ब्रह्मचर्य और वीरता का -- क्षमा का है। उसे भूल जाओगे तो स्वामी जी का नाम कायम नही रहेगा । रशीद की गोली से स्वामीजी का क्या हुआ ? वह तो उस गोली से ही अमर हुए ।

स्वामीजी का दूसरा काम अछूतोद्धार था । जिन शब्दो में मालवीयजी ने खादी की वकालत की, मै नही कर सकता । पर इतना जरूर कहूगा कि अगर हम हमेशा गरीबो और अछूतो की फिक्र रखेगे तो खादी से अलग नही रह सकते ।

ईश्वर तुम सबके ब्रह्मचर्य, सत्य और तुम्हारी प्रतिज्ञाओ की रक्षा करे, गुरुकुल का कल्याण करे और स्वामीजी का हरेक काम परमात्मा चालू रखे ! 


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रचनाएँ
देश सेवकों के संस्मरण
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देश सेवकों के संस्कार कई भारतीय स्वतंत्रता सेनानियों के जीवन और कार्य के बारे में निबंधों का एक संग्रह है। निबंध स्वतंत्रता सेनानियों के साथ प्रभाकर की व्यक्तिगत बातचीत और उनके जीवन और कार्य पर उनके शोध पर आधारित हैं। देश सेवकों के संस्कार में निबंधों को कालानुक्रमिक रूप से व्यवस्थित किया गया है, जो भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के शुरुआती दिनों से शुरू होकर महात्मा गांधी की हत्या तक समाप्त होता है। निबंधों में असहयोग आंदोलन, भारत छोड़ो आंदोलन और नमक सत्याग्रह सहित कई विषयों को शामिल किया गया है। देश सेवकों के संस्कार में प्रत्येक निबंध भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन पर एक अद्वितीय और व्यक्तिगत दृष्टिकोण प्रदान करता है। प्रभाकर के निबंध केवल ऐतिहासिक वृत्तांत नहीं हैं, बल्कि साहित्य की कृतियाँ भी हैं जो उस समय की भावना और स्वतंत्रता सेनानियों द्वारा किए गए बलिदानों को दर्शाती हैं। देश सेवकों के संस्कार भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन पर साहित्य में एक महत्वपूर्ण और मूल्यवान रचना है।
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नेताजी के जीवन से जो सबसे बड़ी शिक्षा ली जा सकती है वह है उनकी अपने अनुयायियो मे ऐक्यभावना की प्रेरणाविधि, जिससे कि वे सब साप्रदायिक तथा प्रातीय बधनो से मुक्त रह सके और एक समान उद्देश्य के लिए अपना रक

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अध्याय 20: मदनमोहन मालवीय

16 अगस्त 2023
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जब से १९१५ मे हिदुस्तान आया तब से मेरा मालवीयजी के साथ बहुत समागम है और में उन्हें अच्छी तरह जानता हू । मेरा उनके साथ गहरा परिचय रहता है । उन्हें मैं हिंदू-संसार के श्रेष्ठ व्यक्तियो मे मानता हूं । क

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अध्याय 21: श्रीमद् राजचंद्रभाई

16 अगस्त 2023
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में जिनके पवित्र सस्मरण लिखना आरंभ करता हूं, उन स्वर्गीय राजचद्र की आज जन्मतिथि है । कार्तिक पूर्णिमा संवत् १९७९ को उनका जन्म हुआ था । मेरे जीवन पर श्रीमद्राजचद्र भाई का ऐसा स्थायी प्रभाव पडा है कि

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अध्याय 22: आचार्य सुशील रुद्र

16 अगस्त 2023
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आचार्य सुशील रुद्र का देहात ३० जून, १९२५ को होगया । वह मेरे एक आदरणीय मित्र और खामोश समाज सेवी थे। उनकी मृत्यु से मुझे जो दुख हुआ है उसमे पाठक मेरा साथ दे | भारत की मुख्य बीमारी है राजनैतिक गुलामी |

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अध्याय 23: लाला लाजपतराय

16 अगस्त 2023
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लाला लाजपतराय को गिरफ्तार क्या किया, सरकार ने हमारे एक बड़े-से-बडे मुखिया को पकड़ लिया है। उसका नाम भारत के बच्चे-बच्चे की जबान पर है । अपने स्वार्थ-त्याग के कारण वह अपने देश भाइयो के हृदय में उच्च स्

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अध्याय 24: वासंती देवी

16 अगस्त 2023
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कुछ वर्ष पूर्व मैने स्वर्गीय रमाबाई रानडे के दर्शन का वर्णन किया था । मैने आदर्श विधवा के रूप मे उनका परिचय दिया था । इस समय मेरे भाग्य मे एक महान् वीर की विधवा के वैधव्य के आरभ का चित्र उपस्थित करना

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अध्याय 25: स्वामी श्रद्धानंद

16 अगस्त 2023
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जिसकी उम्मीद थी वह ही गुजरा। कोई छ महीने हुए स्वामी श्रद्धानदजी सत्याग्रहाश्रम में आकर दो-एक दिन ठहरे थे । बातचीत में उन्होने मुझसे कहा था कि उनके पास जब-तब ऐसे पत्र आया करते थे जिनमे उन्हें मार डालन

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अध्याय 26: श्रीनिवास शास्त्री

16 अगस्त 2023
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दक्षिण अफ्रीका - निवासी भारतीयो को यह सुनकर बडी तसल्ली होगी कि माननीय शास्त्री ने पहला भारतीय राजदूत बनकर अफ्रीका में रहना स्वीकार कर लिया है, बशर्ते कि सरकार वह स्थान ग्रहण करने के प्रस्ताव को आखिरी

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अध्याय 27: नारायण हेमचंद्र

16 अगस्त 2023
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स्वर्गीय नारायण हेमचन्द्र विलायत आये थे । मै सुन चुका था कि वह एक अच्छे लेखक है। नेशनल इडियन एसो - सिएशनवाली मिस मैंनिग के यहा उनसे मिला | मिस गजानती थी कि सबसे हिल-मिल जाना मैं नही जानता । जब कभी मै

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