आचार्य सुशील रुद्र का देहात ३० जून, १९२५ को होगया । वह मेरे एक आदरणीय मित्र और खामोश समाज सेवी थे। उनकी मृत्यु से मुझे जो दुख हुआ है उसमे पाठक मेरा साथ दे | भारत की मुख्य बीमारी है राजनैतिक गुलामी | इसलिए वह उन्हीको मानता है, जो उसे दूर करने के लिए खुले आम सरकार से लडाई लडते है, और जिसने कि अपनी जल और थल - सेवा तथा धन-बल और कूट-नीति के द्वारा अपनी मजबूत मोर्चाबदी कर ली है । इससे स्वभावत उसे उन कार्यकर्ताओ का पता नही रहता जो " निस्वार्थ होते है, और जो जीवन के दूसरे विभागो में, जो कि राजनीति से कम उपयोगी नही होते है, अपनेको खपा देते है । सेट-स्टीफस कालेज, दिल्ली, के प्रिसिपल सुशीलकुमार रुद्र ऐसे ही विनीत कार्यकर्त्ता थे । वह पहले दरजे के शिक्षा शास्त्री थे । प्रिसिपल के नाते वह चारो ओर लोकप्रिय हो गये थे । उनके और उनके विद्यार्थियो के बीच एक प्रकार का आध्यात्मिक सबध था । यद्यपि वह ईसाई थे, तथापि वह अपने हृदय में हिदू-धर्म और इस्लाम के लिए भी जगह रखते थे । इन्हे वह बड़े आदर की दृष्टि से देखते थे । उनका ईसाई धर्म औरो से फटक कर अलग रहनेवाला न था, जो अकेले ईसामसीह को दुनिया का तारनहार न मानता हो उसके सर्वनाश की दुहाई देनेवाला न था । अपने धर्म पर दृढ रहते हुए भी वह औरो को सहन करते थे । वह राजनीति के बडे तेज और चिता- शील स्वाध्यायी थे । अग्रगामी कहे जानेवाले लोगो के प्रति अपनी सहानुभूति की कवायद जहा वह न दिखाते थे, वहा वह छिपाते न थे । जब से, १९९५ से, मै अफ्रीका से लौटा मै जब कभी दिल्ली जाता, उन्हीका अतिथि होता । रौलट कानून के सिलसिले मे जबतक मैने सत्याग्रह नही छेडा तबतक यह कार्य निर्विघ्न जारी रहा । ऊचे हल्को में उनके कितने ही अग्रेज मित्र थे । एक पूरे अंग्रेजी मिशन से उनका सबध था । अपने कालेज के वह पहले ही हिंदुस्तानी प्रिसिपल थे । इसलिए मेरे दिल ने कहा कि मेरा उनके साथ समागम रहने और उनके घर में ठहरने से शायद लोगो को यह गलत खयाल हो कि मेरा उनका मतैक्य है और उनके साथियो को अनावश्यक सकट का सामना करना पड़े । इसलिए मैने दूसरी जगह ठहरना चाहा । उनका जवाब अपने ढंग का था -- “मेरा धर्मं लोगो के अनुमान से अधिक गहरा है । मेरे कुछ मल तो मेरे । tathara है । वे गहरे और दीर्घकाल के मनन और * प्रार्थना के बाद निश्चित हुए है। मेरे अग्रेज मित्र उन्हें जानते है । यदि अपने सम्माननीय मित्र और अतिथि के रूप मे मै आपको अपने घर मे रखू तो वे इसका गलत अर्थ नही कर सकते ।
और कभी मुझे इन दो बातो मे से कि अग्रेज के अदर जो कुछ मेरा प्रभाव है वह चला जाय या आप किसी एक को चुनना पड़े तो मै जानता हू कि मैं किस चीज को पसंद करूंगा । आप मेरे घर को नही छोड़ सकते ।" तब मैने कहा - "लेकिन मुझसे तो हर किस्म के लोग मिलने के लिए आते है । आप अपने मकान को सराय तो बना नही सकते।" उन्होने उत्तर दिया--"सच पूछो तो मुझे यह सब अच्छा मालूम होता है । आपके मित्रो का आना-जाना मुझे पसंद है । यह देखकर मुझे आनद होता है कि आपको अपने मकान में ठहराकर मेरे हाथो कुछ देश सेवा हो रही है ।" पाठको को शायद मालूम न हो कि खिलाफत के दावे को प्रत्यक्ष रूप देने के लिए जो पत्र मैंने वायसराय को लिखा था उसका विचार और मसविदा प्रिसिपल रुद्र के मकान मे तैयार हुआ था। वह तथा चार्ली एंड्रज उसमे सुधार सुझानेवाले थे । उन्हीके घर की छाह में बैठकर असहयोग की कल्पना उत्पन्न और प्रवर्तित हुई । मौलानाओ, दूसरे मुसलमानों तथा अन्य मित्रो और मेरे बीच जो निजी मत्रणा हुई उसकी कार्रवाही को वह बडी दिलचस्पी के साथ चुपचाप देखते थे। उनके तमाम कार्य धर्म-भाव से प्रेरित होते थे ऐसी हालत में दुनियावी सत्ता छिन जाने का कोई डर न था- तथापि वही धर्म-भाव उन्हें सासारिक सत्ता के अस्तित्व और उप- योग तथा मित्रता के मूल्य को समझने में सहायक होता था । जिस धार्मिक भाव से मनुष्य को विचार और आचार के सुदर मेल का यथार्थ ज्ञान होता है, उसकी सत्यता को उन्होने अपने जीवन मे चरितार्थ कर दिखाया था । आचार्य रुद्र ने अपनी ओर इतने उच्च . चरित्र लोगो को आकर्षित किया था, जिनके सहवास की इच्छा किसीको हो सकती है । बहुत लोग नही जानते है कि श्री सी० एफ० एडू यज हमे प्रिसिपल रुद्र के ही कारण प्राप्त हुए है । वे जुड़े भाई जैसे थे । उनका स्नेह आदर्श मित्रता के अध्ययन का विषय था ।
प्रिसिपल रुद्र अपने पीछे दो लड़के और एक लडकी को छोड़ गये है ।"