यह मानना मश्किल है कि बी अम्मा का देहात हो गया है। अम्मा की उस राजसी मूर्ति को या सार्वजनिक सभाओं में उन- की बुलंद आवाज को कौन नही जानता । बुढापा होते हुए भी उन- में एक नवयुवक की शक्ति थी । खिलाफत और रवराज्य के लिए उन्होंने अथक यात्राएं की। इस्लाम की कट्टर अनुयायिनी होते हुए भी उन्होने देख लिया था कि इस्लाम का कार्य, जहातक मनुष्य के बस की बात है, भारत की आजादी पर आधारित है । इसी निश्चय के साथ उन्होने यह भी महसूस कर लिया था कि हिदुस्तान की आजादी हिंदू-मुस्लिम ऐक्य और खादी के बिना अराभव है । इसलिए वह अविराम एकता का प्रचार करती थी । यह उनके लिए एक अटल सिद्धात हो गया था । उन्होंने अपने तमाम विदेशी और मिल के कपडों का परित्याग कर दिया था और खादी इस्तेमाल करती थी । मौलाना मुहम्मदअली मुझसे कहते है कि बी अम्मा ने उन्हें यह हुवम दे रखा था कि मेरे जनाजे पर सिवा खादी के और कुछ न होना चाहिए जब-जब मुझे उनके बिछौने के नजदीक जाने का सौभाग्य प्राप्त होता तब-तब वह स्वराज्य और एकता की बातें पूछती । उनके बाद ही प्रायः वह खुदाताला से दुआ करती -- "या खुदा, हिंदुओं और मुसलमानों को ऐसी अक्ल बख्शे कि जिससे ये एकता की जरूरत को समझें और रहम करके स्वराज्य देखने के लिए मुझे जिदा रहने दे ।"
इस बहादुर और भद्र आत्मा की यादगार को बनाये रखने की सबसे अच्छी रीति यही है कि हम सर्व - सामान्य कार्यो के प्रति उनके उत्साह और उमंग का अनुकरण करें । हिदूधर्म भी बिना स्वराज्य के उतना ही सकट में है जितना कि इस्लाम । परमात्मा करे कि हिदुओ और मुसलमानो को इस प्रारंभिक बात की कदर करने की बी अम्मा जैसी बुद्धि दे। परमात्मा उनकी आत्मा को शांति और अली भाइयों को उनके सौपे कार्य को जारी रखने की शक्ति दे ।
अम्मा की मृत्यु की रात के उस गभीर और प्रभावकारी " दृश्य का वर्णन किये बिना मैं नहीं रह सकता। उस समय मुझे उनके पास ही रहने का सद्भाग्य प्राप्त हुआ था । यह सुनते ही कि अब वह अपने जीवन की अतिम सासे ले रही है मैं और सरोजिनीदेवी वहा दौड़े गये । उनके कुटुब के कितने ही लोग आस-पास जमा थे। उनके डाक्टर और हितचितक डा० असारी भी मौजूद थे। वहां रोने की आवाज नही सुनाई देती थी, अलबत्ते मौ० मुहम्मदअली के गालो पर से आसू जरूर टपक रहे थे। बड़े भाई ने बड़ी कठिनाई से अपने शोकावेग को रोक रखा था । हा, उनके चेहरे पर एक असाधारण गंभीरता अलबत्ते थी । सब लोग अल्ला का नामोच्चार कर रहे थे। एक सज्जन अंत समय की प्रार्थना गा रहे थे । 'कामरेड प्रेस' बी अम्मा के कमरे के इतना पास है कि आवाज सुनाई दे सकती है। परतु एक मिनिट के लिए वहा के काम मे गडबड नही हुई और न मौलाना ने ही अपने सपादकीय कर्तव्यों मे रुकावट आने दी। और सार्वजनिक काम तो कोई भी मुल्तवी नहीं किया गया। मौलाना शौकतअली ने तो सपने तक में न सोचा था कि मैं अपना रामजस कालेज जाना मुल्तवी करूंगा। वह एक सच्चे सिपाही की तरह मुजफ्फरनगर के हिंदुओं को दिये गये निश्चित समय पर उनसे मिले, हालाकि अम्मा की मृत्यु के बाद उन्हें तुरत ही वहा से चला जाना पड़ा था। यह सब जैसाकि होना चाहिए था, वैसा ही हुआ । जन्म और मरण ये दो भिन्न-भिन्न दशाए नही है, बल्कि एक ही दशा के दो भिन्न-भिन्न स्वरूप है । न मृत्यु से दुखी होने की जरूरत है, न जन्म से खुशी मनाने की । "