अगर कहीं बादल बन जाता,
तो मैं जग में धूम मचाता !
कड़कड़ गड़गड़ कड़कड़ गड़गड़,
घड़घड़ गड़गड़ कड़कड़ गड़गड़,
करता जग में भारी गर्जन
कपते हाथी शेरों के मन !
मैं दुनिया का दिल दहलाता,
अगर कहीं बादल बन जाता ?
नहीं ज़रा आँधी से डरता,
मैं ओलों की वर्षा करता,
उमड़ घुमड़ नभ में छा जाता
जल-धारा प्रतिपल बरसाता।
जल थल सागर एक बनाता!
अगर कहीं बादल बन जाता ?
सागर से सब जल भर लाता,
सारी पृथ्वी पर बरसाता,
जब मैं अपना क्रोध दिखाता,
पल भर ही में सिंधु सुखाता,
मैं दसरा अगस्त कहाता !
अगर कहीं बादल बन जाता ?
सूरज, चन्द्र और ये तारे,
रहते मेरे वश में सारे,
जब चाहता जिसे ढक लेता
कभी न बाहर आने देता !
जग में अंधकार घिर जाता !
अगर कहीं बादल बन जाता ?
किन्तु, शक्ति पाकर मैं इतनी,
सेवा करता बनती जितनी !
कभी नहीं मद में इतराता
दीन दुखी का दुःख मिटाता।
मैं सुख की समीर लहराता !
अगर कहीं बादल बन जाता ?
उग रही घास - सोहन लाल द्विवेदी
उग रही घास, उग रही घास ।
कल चावल चावल दीख पड़ी,
तो अंगुल भर है आज खड़ी,
कल होगी जैसे बड़ी छड़ी,
हरियाली लाती आस पास !
उग रही घास, उग रही घास ।
किस समय कहाँ कब आती है ?
कुछ बात न जानी जाती है !
गुप चुप गुप चुप छा जाती है,
उगती है घुलमिल पास पास !
उग रही घास, उग रही घास ।
गिरती नन्हीं बँदें सुन्दर,
तब घास दिखाती है मनहर !
लहराती झोंके खा खाकर,
खिल उठती हैं आँखें उदास!
उग रही घास, उग रही घास ।
उजड़े में चमन बसाती है,
यह नंदन बाग लगाती है,
यह प्रभु की याद दिलाती है।
यह उसकी करुणा का विकास !
उग रही घास, उग रही घास ।
मोर - सोहन लाल द्विवेदी
है मोर मनोहर दिखलाता !
यह किसका हृदय न ललचाता ?
चलता कैसा सिर ऊँचा कर ?
मस्ती से धीरे पग धर धर ।
सिर पर है ताज छटा लाता
है मोर मनोहर दिखलाता !
गर्दन इसकी प्यारी प्यारी,
सुन्दर सुन्दर न्यारी न्यारी।
इसका रंग है कितना भाता?
है मोर मनोहर दिखलाता !
जब घिर आती हैं घटा घोर,
तब मोर मचाता बड़ा शोर ।
आनन्द बहुत ही सरसाता,
है मोर मनोहर दिखलाता !
जब वन में अपने पर पसार,
यह नाचा करता है अपार ।
तब कितना मन को ललचाता,
है मोर मनोहर दिखलाता !
यह है वन का शोभा सिंगार,
इससे है उपवन की बहार ।
यह पग पग छवि को छिटकाता,
है मोर मनोहर दिखलाता !
मीठी मीठी इसकी अवाज़,
इस पर है इसको बड़ा नाज़ ।
जब जी आता तब यह गाता,
है मोर मनोहर दिखलाता !
नीले पीले बैंजनी लाल,
रेशम से सुन्दर सुघर बाल ।
इसका रंग अजब रंग लाता,
है मोर मनोहर दिखलाता।
इतना सुन्दर इतना मनहर ?
है और नहीं पंछी भू पर!
जो दिल को इतना बहलाता ।
है मोर मनोहर दिखलाता !
शरद्ऋतु - सोहन लाल द्विवेदी
पहन चाँदनी की साड़ी तन
आई खूब शरदऋतु बनठन ।
कैसा गोरा रंग निराला ?
छाया चारों ओर उजाला !
नीले नभ में सुन्दर तारे,
छिटक गये मोती से प्यारे ।
तालाबों में कोकाबेली,
बागों में खिल उठी चमेली!
दिवस सुनहला, रात रुपहली,
बनी शरद क्या खूब दुपहली!
हवा बहुत ही सुख उपजाती,
मीठी मीठी ख़ुशबू लाती !
अब नभ में बादल न दिखाते,
बेखटके रवि रथ दौड़ाते ।
मिटा चाँद को भी अब खटका
देता रोज चाँदनी छिटका।
पृथ्वी निर्मल सागर निर्मल,
गिरवर निर्मल, सरवर निर्मल,
हुआ शरद का क्या ही आना ?
सबने पहना निर्मल बाना !