आज अवंध्या बनी, स्वर्ण संध्या में प्रतिभा रागमयी,
आज महोत्सव हो मेरे गृह, रसना हो अनुरागमयी ;
रोमों में ले पुलक, साधना बैठी बनी सुहागमयी,
गत विहाग की निशा; उषा है आज 'भैरवी' रागमयी!
चलो आज कवि! अमृत-अर्घ ले
श्रान्त, कलान्त पद को धोने,
जीवन के ऊजड़ ऊसर में
हरे - भरे अंकुर बोने !
कवि ! सोचो मत अब तक तुमने नहीं नई उपमायें दी,
नई कल्पना, नये छंद, गति, नहीं नई रचनायें दी !
अमृत-कलाकरों का अब तक तुमने नहीं किया सम्मान,
नंगे-भिखमंगों में गाये तुम ने भूख-प्यास के गान ;
नहीं चाहिए गीत और अब,
है न माँग मृदुतानों की,
शोणित की, शिर की, प्राणों की,
है पुकार बलिदानों की!