वैरागन-सी बीहड़ बन में
कहाँ छिपी बैठी एकान्त ?
मातः ! आज तुम्हारे दर्शन को
मैं हूँ व्याकुल उद्भ्रान्त !
तपस्विनी, नीरव निर्जन में
कौन साधना में तल्लीन ?
बीते युग की मधुरस्मृति में
क्या तुम रहती हो लवलीन ?
जगतीतल की समर-भूमि में
तुम पावन हो लाखों में,
दर्शन दो, तव चरणधूलि
ले लूं मस्तक में, आँखों में।
तुममें ही हो गये वतन के
लिए अनेकों वीर शहीद,
तुम-सा तीर्थ-स्थान कौन
हम मतवालों के लिए पुनीत !
आज़ादी के दीवानों को
क्या जग के उपकरणों में ?
मन्दिर मसजिद गिरजा, सब तो
बसे तुम्हारे चरणों में!
कहाँ तुम्हारे आँगन में
खेला था वह माई का लाल,
वह माई का लाल, जिसे
पा करके तुम हो गई निहाल ।
वह माई का लाल, जिसे
दुनिया कहती है वीर प्रताप,
कहाँ तुम्हारे आँगन में
उसके पवित्र चरणों की छाप ?
उसके पद-रज की कीमत क्या
हो सकता है यह जीवन ?
स्वीकृत हो, वरदान मिले,
लो चढ़ा रहा अपना कण कण !
तुमने स्वतन्त्रता के स्वर में
गाया प्रथम प्रथम रणगान,
दौड़ पड़े रजपूत बांकुरे
सुन-सुनकर आतुर आह्वान !
हल्दीघाटी, मचा तुम्हारे
आँगन में भीषण संग्राम,
रज में लीन हो गये पल में
अगणित राजमुकुट-अभिराम!
युग-युग बीत गये, तब तुमने
खेला था अद्भुत रणरंग,
एक बार फिर, भरो हमारे
हृदयों में मा वही उमंग।
गाओ, मा, फिर एक बार तुम
वे मरने के मीठे गान,
हम मतवाले ही स्वदेश के
चरणों में हँस हँस बलिदान!