उदय हुआ जीवन में ऐसे
परवशता का प्रात ।
आज न ये दिन ही अपने हैं
आज न अपनी रात!
पतन, पतन की सीमा का भी
होता है कुछ अन्त !
उठने के प्रयत्न में
लगते हैं अपराध अनंत !
यहीं छिपे हैं धन्वा मेरे
यहीं छिपे हैं तीर,
मेरे आँगन के कण-कण में
सोये अगणित वीर!