कल हुआ तुम्हारा राजतिलक
बन गये आज ही वैरागी ?
उत्फुल्ल मधु-मदिर सरसिज में
यह कैसी तरुण अरुण आगी?
क्या कहा, कि-,
'तब तक तुम न कभी,
वैभव सिंचित शृङ्गार करो'
क्या कहा, कि-,
'जब तक तुम न विगत-
गौरव स्वदेश उद्धार करो!'
माणिक मणिमय सिंहासन को
कंकण पत्थर के कोनों पर,
सोने-चाँदी के पात्रों को
पत्तों के पीले दोनों पर,
वैभव से विह्वल महलों को
काँटों की कटु झोपड़ियों पर,
मधु से मतवाली बेलायें
भूखी बिलखाती घड़ियों पर,
रानी कुमार-सी निधियों को
मा की आँसू की लड़ियों पर,
तुमने अपने को लुटा दिया
आजादी की फुलझड़ियों पर !
निर्वासन के निष्ठुर प्रण में
धुंधुवाती रक्त-चिता रण में,
वाणों के भीषण वर्षण में
फौहारे-से बहते व्रण में,
बेटा की भूखी आहों में
बेटी की प्यासी दाहों में,
तुमने आजादी को देखा
मरने की मीठी चाहों में !
किस अमर शक्ति आराधन में
किस मुक्ति युक्ति के साधन में,
मेरे वैरागी वीर व्यग्र
किस तपबल के उत्पादन में ?
हम कसे कवच, सज अस्त्र-शस्त्र
व्याकुल हैं रण में जाने को,
मेरे सेनापति ! कहाँ छिपे ?
तुम आओ शंख बजाने को;
जागो ! प्रताप, मेवाड़ देश के
लक्ष्यभेद हैं जगा रहे,
जागो ! प्रताप, मा-बहनों के
अपमान-छेद हैं जगा रहे;
जागो प्रताप, मदवालों के
मतवाले सेना सजा रहे,
जागो प्रताप, हल्दीघाटी में
बैरी भेरी बजा रहे !
मेरे प्रताप, तुम फूट पड़ो
मेरे आँसू की धारों से,
मेरे प्रताप, तुम गूंज उठो
मेरी संतप्त पुकारों से;
मेरे प्रताप, तुम बिखर पड़ो
मेरे उत्पीडन भारों से,
मेरे प्रताप, तुम निखर पड़ो
मेरे बलि के उपहारों से;