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फूल हमेशा मुसकाता

16 जून 2022

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चाहे हवा बहे मतवाली

फूल हमेशा मुसकाता ।

चाहे हवा चले लूवाली

फूल हमेशा मुसकाता ।


बरसे प्यारी ओस मनोहर

फूल हमेशा मुसकाता ।

चाहे ओले पड़ें शीश पर

फूल हमेशा मुसकाता ।


काँटों की नोकों को सहकर

फूल हमेशा मुसकाता।

पत्तों की गोदी में रहकर

फूल हमेशा मुसकाता।


ऊपर रह डालों पर खिलकर

फूल हमेशा मुसकाता ।

नीचे टपक धूल में मिलकर

फूल हमेशा मुसकाता ।


रोना नहीं फूल को आता

फूल हमेशा मुसकाता ।

इसीलिए वह सबको भाता

फूल हमेशा मुसकाता।

सोहन लाल द्विवेदी की अन्य किताबें

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रचनाएँ
सोहनलाल द्विवेदी की प्रसिद्ध रचनाएँ
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सोहन लाल द्विवेदी (22 फरवरी 1906 - 1 मार्च 1988) हिन्दी के प्रसिद्ध कवि थे। ऊर्जा और चेतना से भरपूर रचनाओं के इस रचयिता को राष्ट्रकवि की उपाधि से अलंकृत किया गया। महात्मा गांधी के दर्शन से प्रभावित, द्विवेदी जी ने बालोपयोगी रचनाएँ भी लिखीं। 1969 में भारत सरकार ने उन्हें पद्मश्री उपाधि प्रदान कर सम्मानित किया था। सोहनलाल द्विवेदी स्वतंत्रता आंदोलन युग के एक ऐसे विराट कवि थे, जिन्होंने जनता में राष्ट्रीय चेतना जागृति करने, उनमें देश-भक्ति की भावना भरने और नवयुवकों को देश के लिए बड़े से बड़े बलिदान के लिए प्रेरित करने में अपनी सारी शक्ति लगा दी। वे पूर्णत: राष्ट्र को समर्पित कवि थे। सोहनलाल द्विवेदी जी की कविताओं का मुख्य विषय राष्ट्रीय उद्बोधन है। उनमें जागरण का सन्देश है। खादी-प्रचार, ग्राम-सुधार, देशभक्ति, सत्य, अहिंसा और प्रेम उनकी कविता के मुख्य विषय हैं।
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कोशिश करने वालों की हार नहीं होती

16 जून 2022
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लहरों से डर कर नौका पार नहीं होती कोशिश करने वालों की हार नहीं होती नन्हीं चींटी जब दाना लेकर चलती है चढ़ती दीवारों पर, सौ बार फिसलती है मन का विश्वास रगों में साहस भरता है चढ़कर गिरना, गिरकर च

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पूजा-गीत

16 जून 2022
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वंदना के इन स्वरों में एक स्वर मेरा मिला लो। राग में जब मत्त झूलो तो कभी माँ को न भूलो, अर्चना के रत्नकण में एक कण मेरा मिला लो। जब हृदय का तार बोले, शृंखला के बंद खोले; हों जहाँ बलि शीश अगणित,

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नववर्ष

16 जून 2022
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स्वागत! जीवन के नवल वर्ष आओ, नूतन-निर्माण लिये, इस महा जागरण के युग में जाग्रत जीवन अभिमान लिये; दीनों दुखियों का त्राण लिये मानवता का कल्याण लिये, स्वागत! नवयुग के नवल वर्ष! तुम आओ स्वर्ण-वि

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जगमग जगमग

16 जून 2022
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हर घर, हर दर, बाहर, भीतर, नीचे ऊपर, हर जगह सुघर, कैसी उजियाली है पग-पग? जगमग जगमग जगमग जगमग! छज्जों में, छत में, आले में, तुलसी के नन्हें थाले में, यह कौन रहा है दृग को ठग? जगमग जगमग जगमग जगम

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युगावतार गांधी

16 जून 2022
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चल पड़े जिधर दो डग मग में चल पड़े कोटि पग उसी ओर, पड़ गई जिधर भी एक दृष्टि गड़ गये कोटि दृग उसी ओर, जिसके शिर पर निज धरा हाथ उसके शिर-रक्षक कोटि हाथ, जिस पर निज मस्तक झुका दिया झुक गये उसी पर क

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जय राष्ट्रीय निशान

16 जून 2022
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जय राष्ट्रीय निशान! जय राष्ट्रीय निशान!!! लहर लहर तू मलय पवन में, फहर फहर तू नील गगन में, छहर छहर जग के आंगन में, सबसे उच्च महान! सबसे उच्च महान! जय राष्ट्रीय निशान!! जब तक एक रक्त कण तन में,

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आया वसंत आया वसंत

16 जून 2022
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आया वसंत आया वसंत छाई जग में शोभा अनंत। सरसों खेतों में उठी फूल बौरें आमों में उठीं झूल बेलों में फूले नये फूल पल में पतझड़ का हुआ अंत आया वसंत आया वसंत। लेकर सुगंध बह रहा पवन हरियाली छा

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अलि रचो छंद

16 जून 2022
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अलि रचो छंद आज कण कण कनक कुंदन, आज तृण तृण हरित चंदन, आज क्षण क्षण चरण वंदन विनय अनुनय लालसा है। आज वासन्ती उषा है। अलि रचो छंद आज आई मधुर बेला, अब करो मत निठुर खेला, मिलन का हो मधुर मेला

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खादी गीत

16 जून 2022
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खादी के धागे-धागे में अपनेपन का अभिमान भरा, माता का इसमें मान भरा, अन्यायी का अपमान भरा। खादी के रेशे-रेशे में अपने भाई का प्यार भरा, मां-बहनों का सत्कार भरा, बच्चों का मधुर दुलार भरा। खादी की

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गिरिराज

16 जून 2022
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यह है भारत का शुभ्र मुकुट यह है भारत का उच्च भाल, सामने अचल जो खड़ा हुआ हिमगिरि विशाल, गिरिवर विशाल! कितना उज्ज्वल, कितना शीतल कितना सुन्दर इसका स्वरूप? है चूम रहा गगनांगन को इसका उन्नत मस्तक

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नयनों की रेशम डोरी से

16 जून 2022
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नयनों की रेशम डोरी से अपनी कोमल बरजोरी से। रहने दो इसको निर्जन में बांधो मत मधुमय बन्धन में, एकाकी ही है भला यहाँ, निठुराई की झकझोरी से। अन्तरतम तक तुम भेद रहे, प्राणों के कण कण छेद रहे। म

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मातृभूमि

16 जून 2022
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ऊँचा खड़ा हिमालय आकाश चूमता है, नीचे चरण तले झुक, नित सिंधु झूमता है। गंगा यमुन त्रिवेणी नदियाँ लहर रही हैं, जगमग छटा निराली पग पग छहर रही है। वह पुण्य भूमि मेरी, वह स्वर्ण भूमि मेरी। वह

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प्रकृति संदेश

16 जून 2022
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पर्वत कहता शीश उठाकर, तुम भी ऊँचे बन जाओ। सागर कहता है लहराकर, मन में गहराई लाओ। समझ रहे हो क्या कहती हैं उठ उठ गिर गिर तरल तरंग भर लो भर लो अपने दिल में मीठी मीठी मृदुल उमंग! पृथ्वी कहती

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तुम्हें नमन

16 जून 2022
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चल पड़े जिधर दो डग, मग में चल पड़े कोटि पग उसी ओर ; गड़ गई जिधर भी एक दृष्टि गड़ गए कोटि दृग उसी ओर, जिसके शिर पर निज हाथ धरा उसके शिर- रक्षक कोटि हाथ जिस पर निज मस्तक झुका दिया झुक गए उसी पर

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भारत

16 जून 2022
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भारत तू है हमको प्यारा, तू है सब देशों से न्यारा। मुकुट हिमालय तेरा सुन्दर, धोता तेरे चरण समुन्दर। गंगा यमुना की हैं धारा, जिनसे है पवित्र जग सारा। अन्न फूल फल जल हैं प्यारे, तुझमें रत्न

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रे मन

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प्रबल झंझावत में तू बन अचल हिमवान रे मन। हो बनी गम्भीर रजनी, सूझती हो न अवनी, ढल न अस्ताचल अतल में बन सुवर्ण विहान रे मन। उठ रही हो सिन्धु लहरी हो न मिलती थाह गहरी नील नीरधि का अकेला बन स

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वंदना

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वंदिनी तव वंदना में कौन सा मैं गीत गाऊँ? स्वर उठे मेरा गगन पर, बने गुंजित ध्वनित मन पर, कोटि कण्ठों में तुम्हारी वेदना कैसे बजाऊँ? फिर, न कसकें क्रूर कड़ियाँ, बनें शीतल जलन–घड़ियाँ, प्राण

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हिमालय

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युग युग से है अपने पथ पर देखो कैसा खड़ा हिमालय! डिगता कभी न अपने प्रण से रहता प्रण पर अड़ा हिमालय! जो जो भी बाधायें आईं उन सब से ही लड़ा हिमालय, इसीलिए तो दुनिया भर में हुआ सभी से बड़ा हिमालय

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कौन?

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किसने बटन हमारे कुतरे? किसने स्‍याही को बिखराया? कौन चट कर गया दुबक कर घर-भर में अनाज बिखराया? दोना खाली रखा रह गया कौन ले गया उठा मिठाई? दो टुकड़े तसवीर हो गई किसने रस्‍सी काट बहाई? कभी क

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बढे़ चलो, बढे़ चलो

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न हाथ एक शस्त्र हो, न हाथ एक अस्त्र हो, न अन्न वीर वस्त्र हो, हटो नहीं, डरो नहीं, बढ़े चलो, बढ़े चलो । रहे समक्ष हिम-शिखर, तुम्हारा प्रण उठे निखर, भले ही जाए जन बिखर, रुको नहीं, झुको नहीं, बढ

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कबूतर

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कबूतर भोले-भाले बहुत कबूतर मैंने पाले बहुत कबूतर ढंग ढंग के बहुत कबूतर रंग रंग के बहुत कबूतर कुछ उजले कुछ लाल कबूतर चलते छम छम चाल कबूतर कुछ नीले बैंजनी कबूतर पहने हैं पैंजनी कबूतर करते मुझको

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ओस

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हरी घास पर बिखेर दी हैं ये किसने मोती की लड़ियाँ? कौन रात में गूँथ गया है ये उज्‍ज्‍वल हीरों की करियाँ? जुगनू से जगमग जगमग ये कौन चमकते हैं यों चमचम? नभ के नन्‍हें तारों से ये कौन दमकते हैं य

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एक किरण आई छाई

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एक किरण आई छाई, दुनिया में ज्योति निराली रंगी सुनहरे रंग में पत्ती-पत्ती डाली डाली एक किरण आई लाई, पूरब में सुखद सवेरा हुई दिशाएं लाल लाल हो गया धरा का घेरा एक किरण आई हंस-हंसकर फूल लगे म

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पूजा-गीत

16 जून 2022
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वंदना के इन स्वरों में एक स्वर मेरा मिला लो। राग में जब मत्त झूलो तो कभी माँ को न भूलो, अर्चना के रत्नकण में एक कण मेरा मिला लो। जब हृदय का तार बोले, शृंखला के बंद खोले; हों जहाँ बलि शीश अगणित,

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युगावतार गांधी

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चल पड़े जिधर दो डग मग में चल पड़े कोटि पग उसी ओर, पड़ गई जिधर भी एक दृष्टि गड़ गये कोटि दृग उसी ओर, जिसके शिर पर निज धरा हाथ उसके शिर-रक्षक कोटि हाथ, जिस पर निज मस्तक झुका दिया झुक गये उसी पर क

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जय राष्ट्रीय निशान

16 जून 2022
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जय राष्ट्रीय निशान! जय राष्ट्रीय निशान!!! लहर लहर तू मलय पवन में, फहर फहर तू नील गगन में, छहर छहर जग के आंगन में, सबसे उच्च महान! सबसे उच्च महान! जय राष्ट्रीय निशान!! जब तक एक रक्त कण तन में,

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वह आया

16 जून 2022
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मन में नूतन बल सँवारता जीवन के संशय भय हरता, वंदनीय बापू वह आया कोटि कोटि चरणों को धरता; धरणी मग होता है डगमग जब चलता यह धीर तपस्वी, गगन मगन होकर गाता है गाता जो भी राग मनस्वी; पग पर पग धर-धर

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मज़दूर

16 जून 2022
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पृथ्वी की छाती फाड़, कौन यह अन्न उगा लाता बहार? दिन का रवि-निशि की शीत कौन लेता अपनी सिर-आँखों पर? कंकड़ पत्थर से लड़-लड़कर, खुरपी से और कुदाली से, ऊसर बंजर को उर्वर कर, चलता है चाल निराली ले। मज़दूर

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अभियान-गीत

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चलो आज इस जीर्ण पुरातन भव में नव निर्माण करो, युग-युग से पिसती आई मानवता का कल्याण करो ! बोलो कब तक सडा करोगे तुम यों गन्दी गलियों में ? पथ के कुत्तों से भी जीवन  अधम संभाल पसलियों में ? द

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कणिका

16 जून 2022
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उदय हुआ जीवन में ऐसे परवशता का प्रात । आज न ये दिन ही अपने हैं आज न अपनी रात! पतन, पतन की सीमा का भी होता है कुछ अन्त ! उठने के प्रयत्न में लगते हैं अपराध अनंत ! यहीं छिपे हैं धन्वा मेरे

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भावों की रानी से

16 जून 2022
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कल्पनामयी ओ कल्यानी! ओ मेरे भावों की रानी! क्यों भिगो रही कोमल कपोल बहता है आंखों से पानी ! कैसा विषाद ? कैसा रे दुख ? सब समय नहीं है अंधकार ! आती है काली रजनी तो दिन का भी है उज्ज्वल प्रसार

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उमंग

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उठ उठ री मानस की उमंग! भर जीवन में नव रूप रंग! उठ सागर की गहराई सी, पर्वत की अमित उँचाई सी, नभ की विशाल परछाँही सी, लय हों अग जग के रंग ढंग! उठ उठ री मानस की तरंग! छा जीवन में बन एक भाग,

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गढ़वाल के प्रति

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जाग रे जाग पहाड़ी देश जगा बंगाल, जगा पांचाल, जगा है सारा देश अशेष, जाग! तू भी मेरे गढ़वाल, हिमाचल के प्यारे गढ़देश ! साज सुंदर केसरिया देश जाग ! रे जाग! पहाड़ी देश ! बह रहा है नयनों से

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जागो बुद्धदेव भगवान

16 जून 2022
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कुशी नगर के भग्न भवन में कैसे सोये हो बोलो ? युग युग बीते तुम्हें जगाते अब तो प्रिय, आखें खोलो! पत्थर के कारा में बंदी तुम नीरव निस्तब्ध पड़े, एक बार जागो फिर गौतम! हो जायो अविलंब खड़े ! स

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अकबर और तुलसीदास

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अकबर और तुलसीदास, दोनों ही प्रकट हुए एक समय, एक देश, कहता है इतिहास; 'अकबर महान' गूँजता है आज भी कीर्ति-गान, वैभव प्रासाद बड़े जो थे सब हुए खड़े पृथ्वी में आज गड़े! अकबर का नाम ही है शेष स

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प्रसाद जी की पुण्य स्मृति में

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भारतीय सुसंस्कृति के गर्व औ अभिमान ! बुद्ध की सबुद्धि के कल्याण- मय आख्यान ! आर्य-गौरव के अलौकिक दिव्य उज्ज्वल गान! राष्ट्रभाषा के विधाता, श्री, सुरभि, सम्मान ! नित्य मौलिक, ऐतिहासिक, चिर-

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भैरवी के जन्मदिवस पर

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आज अवंध्या बनी, स्वर्ण संध्या में प्रतिभा रागमयी, आज महोत्सव हो मेरे गृह, रसना हो अनुरागमयी ; रोमों में ले पुलक, साधना बैठी बनी सुहागमयी, गत विहाग की निशा; उषा है आज 'भैरवी' रागमयी! चलो आज कवि! अम

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अभियान-गीत

16 जून 2022
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चल रे चल! अडिग! अचल! घन गर्जन, हिम वर्षण! तिमिर सघन, तड़ित पतन ! शिर उन्नत, मन उन्नत ! प्रण उन्नत, क्षत विक्षत ! रुक न विचल! झुक न विचल! गति न बदल ! अनिल ! अनल! चल रे चल! चिर शोषण, चि

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प्रभाती

16 जून 2022
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जागो जागो निद्रित भारत ! त्यागो समाधि हे योगिराज ! शृंगी फूँको, हो शंखनाद, डमरू का डिमडिम नव-निनाद ! हे शंकर के पावन प्रदेश ! खोलो त्रिनेत्र तुम लाल लाल ! कटि में कस लो व्याघ्रांबर को कर में

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नयनों की रेशम डोरी से

16 जून 2022
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नयनों की रेशम डोरी से  अपनी कोमल बरजोरी से।  रहने दो इसको निर्जन में  बांधो मत मधुमय बन्धन में,  एकाकी ही है भला यहाँ,  निठुराई की झकझोरी से।  अन्तरतम तक तुम भेद रहे,  प्राणों के कण कण छेद

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लहरों से डर कर

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लहरों से डर कर नौका पार नहीं होती कोशिश करने वालों की हार नहीं होती नन्हीं चींटी जब दाना लेकर चलती है चढ़ती दीवारों पर, सौ बार फिसलती है मन का विश्वास रगों में साहस भरता है चढ़कर गिरना, गिरकर च

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यह है बसन्त का पहला दिन

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कुछ कुछ सुगंध के लेकर कण, अब देखो बहने लगी पवन, कुछ कुछ निकले हैं नये सुमन, यह है बसन्त का पहला दिन ! है कभी कभी आती कोयल, दो चार बोल गाती कोयल, फिर चुप हो छिप जाती कोयल, यह है बसन्त का प

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बसन्ती पवन

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जब करने को मैं चला भ्रमण, तब मिली आज कुछ नई पवन । भीनी भीनी इसकी सुगंध, जिससे भौरे बन जायँ अंध, यह पवन भरी थी मधुर गंध, तन हुआ मगन, मन हुआ मगन, जब मिली सुगंधित नई पवन । कुछ कुछ ऐसा तब हुआ

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बादल

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बादल भी बड़े खिलाड़ी हैं मानो कुछ इनको नहीं काम। बस, आठ पहर, चौबिस घंटे, खेला करते हैं सुबह शाम ! इनको है नींद नहीं आती थकते भी इनके नहीं पैर, जब देखो तब बन सैलाने करते रहते हैं सदा सैर !

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अगर कहीं बादल बन जाता ?

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अगर कहीं बादल बन जाता, तो मैं जग में धूम मचाता ! कड़कड़ गड़गड़ कड़कड़ गड़गड़, घड़घड़ गड़गड़ कड़कड़ गड़गड़, करता जग में भारी गर्जन कपते हाथी शेरों के मन ! मैं दुनिया का दिल दहलाता, अगर कहीं

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दीवाली

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हर घर, हर दर, बाहर, भीतर, नीचे ऊपर, हर जगह सुघर, कैसी उजियाली है पग-पग? जगमग जगमग जगमग जगमग! छज्जों में, छत में, आले में, तुलसी के नन्हें थाले में, यह कौन रहा है दृग को ठग? जगमग जगमग जगमग जगम

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अगर कहीं मैं पैसा होता?

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पढ़े-लिखों से रखता नाता, मैं मूर्खों के पास न जाता, दुनिया के सब संकट खोता ! अगर कहीं मैं पैसा होता ? जो करते दिन रात परिश्रम, उनके पास नहीं होता कम, बहता रहता सुख का सोता ! अगर कहीं मैं

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पहाड़ की चोटी से

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यदि पहाड़ की चोटी पर चढ़कर देखो बच्चो भू पर, तो अजीब चीजें आयेंगी तरह तरह की तुम्हें नज़र ! नहीं आदमी देख सकोगे, चलते फिरते सिर केवल, दिखा पड़ेंगे तुम्हें अजब से, चलते ज्यों चींटी के दल !

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रेल की खिड़की से

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छक छक, फक फक, छक छक, भक भक है रेल चली जाती धक धक । मैं बैठा डिब्बे के अंदर, जब नज़र डालता हूँ बाहर । तो दुनिया अजब नज़र आती, सब चीजें भगती दिखलाती। ये पेड़ भगे, ये पात भगे, जंगल के बड़े जमा

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क़लम की आत्मकहानी

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है मेरी अति करुण कहानी ! वही मुझे है यहाँ सुनानी ! मैंने बहुत कष्ट है पाया, इससे मूखी मेरी काया, मुझे लोग जंगल से लाते, मात पिता से साथ छुटाते । मेरा सुन्दर रङ्ग मिटाते, काला और कुरूप बना

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समुद्रतट

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यदि समुद्रतट पर तुम जाओ तो देखोगे अजब बहार, जल ही जल दिखलाता इतना मानो जलमय हो संसार ! बड़ी बड़ी लहरें उठती हैं मचता रहता हाहाकार, होता शोर ज़ोर से ज्यों ही लहरें टकराती हर बार ! रङ्ग बिरं

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तुम क्या करते, हम क्या करते ?

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लग जाते अंगूर नीम में और कुए से दूध निकलता, बिना तेल के डाले ही यदि घर में दिया रात दिन जलता। जोते बोये बिना खेत में गेहूँ, धान, चना उग आते, केला, सेब, नासपाती, संतरा, आम हर ऋतु में आते ।

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सपने में

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अम्मा आकर काजल देतो औ अनखनियाँ सपने में। भैया आकर मुझे उठा लेता है कनियाँ सपने में । मुन्नू आता, चाचा आते, दादा आते सपने में। खुल जाता है चन्द मदरसा गुरू पढ़ाते सपने में। करती म्याऊँ म्याऊ

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प्रयाण-गीत

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काम करेंगे हम हम हम ! नाम करेंगे हम हम हम !! बढ़े चलेंगे, चढ़े चलेंगे; हिम्मत से दिल मढ़े चलेंगे। बोलेंगे हर हर बम बम ! काम करेंगे हम हम हम! नहीं रुकेंगे, नहीं झुकेंगे, आये बला चिनौती

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शरद्ऋतु

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पहन चाँदनी की साड़ी तन आई खूब शरदऋतु बनठन । कैसा गोरा रंग निराला ? छाया चारों ओर उजाला ! नीले नभ में सुन्दर तारे, छिटक गये मोती से प्यारे । तालाबों में कोकाबेली, बागों में खिल उठी चमेली!

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मोर

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है मोर मनोहर दिखलाता ! यह किसका हृदय न ललचाता ? चलता कैसा सिर ऊँचा कर ? मस्ती से धीरे पग धर धर । सिर पर है ताज छटा लाता है मोर मनोहर दिखलाता ! गर्दन इसकी प्यारी प्यारी, सुन्दर सुन्दर न्यारी

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उग रही घास

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उग रही घास, उग रही घास । कल चावल चावल दीख पड़ी, तो अंगुल भर है आज खड़ी, कल होगी जैसे बड़ी छड़ी, हरियाली लाती आस पास ! उग रही घास, उग रही घास । किस समय कहाँ कब आती है ? कुछ बात न जानी जाती

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यह भारतवर्ष हमारा है!

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यह भारतवर्ष हमारा है! हमको प्राणों से प्यारा है!! है यहाँ हिमालय खड़ा हुआ, संतरी सरीखा अड़ा हुआ, गंगा की निर्मल धारा है! यह भारतवर्ष हमारा है! क्या ही पहाड़ियाँ हैं न्यारी? जिनमें सुंदर झ

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फूल हमेशा मुसकाता

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चाहे हवा बहे मतवाली फूल हमेशा मुसकाता । चाहे हवा चले लूवाली फूल हमेशा मुसकाता । बरसे प्यारी ओस मनोहर फूल हमेशा मुसकाता । चाहे ओले पड़ें शीश पर फूल हमेशा मुसकाता । काँटों की नोकों को सहकर

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अगर कहीं मैं पैसा होता?

16 जून 2022
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पढ़े-लिखों से रखता नाता, मैं मूर्खों के पास न जाता, दुनिया के सब संकट खोता ! अगर कहीं मैं पैसा होता ? जो करते दिन रात परिश्रम, उनके पास नहीं होता कम, बहता रहता सुख का सोता ! अगर कहीं मैं

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खादी गीत

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खादी के धागे-धागे में अपनेपन का अभिमान भरा, माता का इसमें मान भरा, अन्यायी का अपमान भरा। खादी के रेशे-रेशे में अपने भाई का प्यार भरा, मां-बहनों का सत्कार भरा, बच्चों का मधुर दुलार भरा। खाद

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गाँवों में

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जगमग नगरों से दूर दूर हैं जहाँ न ऊँचे खड़े महल, टूटे-फूटे कुछ कच्चे घर दिखते खेतों में चलते हल; पुरई पाली, खपरैलों में रहिमा रमुआ के नावों में, है अपना हिन्दुस्तान कहाँ ? वह बसा हमारे गाँवों

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कणिका

16 जून 2022
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उदय हुआ जीवन में ऐसे परवशता का प्रात । आज न ये दिन ही अपने हैं आज न अपनी रात! पतन, पतन की सीमा का भी होता है कुछ अन्त ! उठने के प्रयत्न में लगते हैं अपराध अनंत ! यहीं छिपे हैं धन्वा मेरे

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हल्दीघाटी

16 जून 2022
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वैरागन-सी बीहड़ बन में कहाँ छिपी बैठी एकान्त ? मातः ! आज तुम्हारे दर्शन को मैं हूँ व्याकुल उद्भ्रान्त ! तपस्विनी, नीरव निर्जन में कौन साधना में तल्लीन ? बीते युग की मधुरस्मृति में क्या तुम रह

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राणा प्रताप के प्रति

16 जून 2022
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कल हुआ तुम्हारा राजतिलक बन गये आज ही वैरागी ? उत्फुल्ल मधु-मदिर सरसिज में यह कैसी तरुण अरुण आगी? क्या कहा, कि-, 'तब तक तुम न कभी, वैभव सिंचित शृङ्गार करो' क्या कहा, कि-, 'जब तक तुम न विगत-

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महर्षि मालवीय

16 जून 2022
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तुम्हें स्नेह की मूर्ति कहूँ या नवजीवन की स्फूर्ति कहूँ, या अपने निर्धन भारत की निधि की अनुपम मूर्ति कहूँ ? तुम्हें दया-अवतार कहूँ या दुखियों की पतवार कहूँ, नई सृष्टि रचनेवाले या तुम्हें नया

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आज़ादी के फूलों पर

16 जून 2022
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सिंहासन पर नहीं वीर! बलिवेदी पर मुसकाते चल ! ओ वीरों के नये पेशवा ! जीवन-जोति जगाते चल! रक्तपात, विप्लव अशान्ति औ' कायरता बरकाते चल। जननी की लोहे की कड़ियाँ रह रहकर सरकाते चल ! कल लखनऊ गूं

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मुक्ता

16 जून 2022
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ज़ंजीरों से चले बाँधने आज़ादी की चाह । घी से आग बुझाने की सोची है सीधी राह ! हाथ-पाँव जकड़ो, जो चाहो है अधिकार तुम्हारा । ज़ंजीरों से कैद नहीं हो सकता हृदय हमारा!

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नववर्ष

16 जून 2022
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स्वागत! जीवन के नवल वर्ष आओ, नूतन-निर्माण लिये, इस महा जागरण के युग में जाग्रत जीवन अभिमान लिये; दीनों दुखियों का त्राण लिये मानवता का कल्याण लिये, स्वागत! नवयुग के नवल वर्ष! तुम आओ स्वर्ण-वि

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सुना रहा हूँ तुम्हें भैरवी

16 जून 2022
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सुना रहा हूँ तुम्हें भैरवी जागो मेरे सोनेवाले! जब सारी दुनिया सोती थी तब तुमने ही उसे जगाया, दिव्य ज्ञान के दीप जलाकर तुमने ही तम दूर भगाया; तुम्हीं सो रहे, दुनिया जगती यह कैसा मद है मतवाले

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एक शस्त्र हो

16 अगस्त 2022
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न हाथ एक शस्त्र हो,  न हाथ एक अस्त्र हो,  न अन्न वीर वस्त्र हो,  हटो नहीं, डरो नहीं, बढ़े चलो, बढ़े चलो ।  रहे समक्ष हिम-शिखर,  तुम्हारा प्रण उठे निखर,  भले ही जाए जन बिखर,  रुको नहीं, झुको न

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भावों की रानी से

16 अगस्त 2022
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कल्पनामयी ओ कल्यानी! ओ मेरे भावों की रानी! क्यों भिगो रही कोमल कपोल बहता है आंखों से पानी ! कैसा विषाद ? कैसा रे दुख ? सब समय नहीं है अंधकार ! आती है काली रजनी तो दिन का भी है उज्ज्वल प्रसार

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