छक छक, फक फक, छक छक, भक भक
है रेल चली जाती धक धक ।
मैं बैठा डिब्बे के अंदर,
जब नज़र डालता हूँ बाहर ।
तो दुनिया अजब नज़र आती,
सब चीजें भगती दिखलाती।
ये पेड़ भगे, ये पात भगे,
जंगल के बड़े जमात भगे।
ये खेत भगे, खलिहान भगे,
लम्बे चौड़े मैदान भगे।
ये गाँव भगे, ये शहर भगे,
दिखलाते पुल औ नहर भगे।
फिर चीजें दिखती मिलती सीं,
ज्यों एक तार में सिलती-सी।
यह एक मील, दूसरा मील,
लो, आया यह तीसरा मील ।
यों मीलों पर सैकड़ों मील,
मिलते पग पग, होती न ढील।
पंजाब गई, बंगाल गई,
यह रेल चली भूपाल गई।
मद्रास गई, नैपाल गई,
यह शिमला नैनीताल गई।
पुल पर चढ़, नभ तत्काल चली,
नीचे नीचे पाताल चली।
पृथ्वी पर धीमी चाल चली,
चढ़ पर्वत उच्च विशाल चली।
यह नदी चली, यह ताल चली,
यह ढाल चली, उत्ताल चली।
टाले न किसी के कहीं टली,
घूमी दुनिया की गली गली!
फिर चीजें दिखती सटती-सी,
आपस में गले लिपटती-सी,
जा खंभे फैले भगे भगे,
वे दिखलाते हैं लगे लगे,
आती है स्टेशन पर स्टेशन,
आ जाता है जंगी जंक्शन,
नज़दीक दिखाते नगर नगर,
हम चलते रहते डगर डगर,
खंभे पर खंभे चढ़ जाते,
पेड़ों पर टीले बढ़ जाते,
झीलों पर जंगल मढ़ जाते,
यों आँखों में हैं गड़ जाते !
यह कलकत्ता तो यह काशी
यह कानपूर तो यह झाँसी,
दिखता है अजब तमाशा-सा
मन घलता दूध बताशा-सा