जागो जागो निद्रित भारत !
त्यागो समाधि हे योगिराज !
शृंगी फूँको, हो शंखनाद,
डमरू का डिमडिम नव-निनाद !
हे शंकर के पावन प्रदेश !
खोलो त्रिनेत्र तुम लाल लाल !
कटि में कस लो व्याघ्रांबर को
कर में त्रिशूल लो फिर सँभाल !
विस्मरण हुआ तुमको कैसे
वह पुण्य पुरातन स्वर्णकाल ?
अपमान तुम्हारे कुल का लख
हो गई पार्वती भस्म क्षार!
वह दक्ष प्रजापति का महान
मख ध्वंस हुआ, भर गया शोर,
कँप उठी धरा, कँप उठा व्योम,
सागर में लहरी प्रलयरोर !
किस रोषी ऋषि का क्रुद्ध शाप
है किए बंद स्मृति-नयन छोर?
जागो मेरे सोने वाले
अब गई रात, आ गया भोर!
देखा तुमने निज आँखों से
जब भी दुनियाँ में सघन रात,
गूँजें वेदों के गान यहाँ
फूटा जग में जीवन प्रभात !
देखा तुमने निज आँखों से
कितनों ही के उत्थान पतन,
इतिहास विश्व के दृष्टा तुम
सृष्टा कितनों के जन्म-मरण!
देखा तुमने निज आँखों से
सतयुग, त्रेता, द्वापर, समस्त,
कैसे कब किसका हुआ उदय,
कैसे कब किसका हुआ अस्त !
हो गया सभी तो नष्ट भ्रष्ट
अवशिष्ट रहा क्या यहाँ हाय !
विस्मरण हो रहे दिवस पर्व
संवत्सर भी विस्मरण प्राय !
ईंटें पत्थर प्राचीर खड़ी
क्या और पास में है विशेष
देखो अबतो ध्वंसावशेष
देखो अबतो भग्नावशेष !
किसका इतना उत्थान हुआ,
श्री किसका इतना अधःपात !
हे महामहिम क्या और कहूँ
क्या तुम्हें और है नहीं ज्ञात ?
सब ज्ञात तुम्हें तो फिर क्यों यों
तुम जान जान बनते अजान,
जागो मेरे सोने वाले!
जागो भारत ! जागो महान !
बोलो, वे द्रोणाचार्य कहाँ ?
वह सूक्ष्म लक्ष्य-संधान कहाँ ?
हैं कहाँ वीर अर्जुन मेरे
गाँडीव कहाँ है ? वाण कहाँ ?
गीता - गायक हैं कृष्ण कहाँ ?
वह धीर धनुर्धर पार्थ कहाँ ?
है कुरुक्षेत्र वैसा ही पर
वह शौर्य कहाँ ? पुरुषार्थ कहाँ ?
हैं कहाँ महाभारत वाले
योधा, पदातिगण, सेनानी ?
गुरु, कर्ण, युधिष्ठिर, भीष्म, भीम,
वे रण प्रण व्रण के अभिमानी!
हैं कालिदास के काव्यशेष
विक्रमादित्य का राज कहाँ ?
मेरा मयूर सिंहासन वह
मेरे भारत का ताज कहाँ ?
वह चन्द्रगुप्त का राज कहाँ
अपना विशाल साम्राज्य कहाँ ?
वह महा क्रान्ति के संचालक
गुरुदेव कहाँ ? चाणक्य कहाँ !
वैभव विलास के दिवस कहाँ ?
उल्लास हास के दिवस कहाँ ?
है कहाँ हर्षवर्धन मेरे
अंकित केवल इतिहास यहाँ !
है यत्र तत्र बस कीर्ति-स्तंभ
सम्राट अशोक महान कहाँ ?
दुर्जय कलिंग के मद-ध्वंसक
शूरों के युद्ध प्रयाण कहाँ ?
प्राचीरों में बंदिनी बनी
बैठी है सीता सुकुमारी
गल रहे कुसुम से अंग अंग
दृग से अविरल धारा जारी!
धन्वाधारी हैं राम कहाँ !
वे बलधारी हनुमान कहाँ ?
है खड़ी स्वर्ण लंका अविचल
अपमानित के अरमान कहाँ ?
जब प्रणय बना जग में विलास
तब तो अपना ही बना काल ।
सब तुम्हें ज्ञात था पृथ्वीराज
तब क्यों न चले पथपर सँभाल !
जग जाती तुम ही संयोगिते !
मत सोती, यों बेसुध रानी !
तो क्यों होते हम पराधीन ?
खोते अपने कुल का पानी !
अब कब जागोगे पृथ्वीराज ?
खोलो अलसित पलकें अजान!
अंगड़ाई लेती है ऊषा,
हट गई निशा, आया विहान!
जागो दरिद्रता के विप्लव !
जागो भूखों की प्रलय-तान !
जागो आहत उर की ज्वाला!
युग युग के बंदी मूक गान !
कणिका - सोहन लाल द्विवेदी
उदय हुआ जीवन में ऐसे
परवशता का प्रात ।
आज न ये दिन ही अपने हैं
आज न अपनी रात!
पतन, पतन की सीमा का भी
होता है कुछ अन्त !
उठने के प्रयत्न में
लगते हैं अपराध अनंत !
यहीं छिपे हैं धन्वा मेरे
यहीं छिपे हैं तीर,
मेरे आँगन के कण-कण में
सोये अगणित वीर!