‘हे भगवान! ये महीने की पहली तारीख हर बार इतनी देर से क्यों आती है’ दामिनी ने फिर सोचा। हर महीने के तीसरे–चौथी हफ्ते में अक्सर यह ख़याल उसके मन में आता था, खास कर जब कोई पैसे खर्च करने वाली बात होती। अखबार वाला जो पैसे का तकाजा करने आया था,उसे किसी तरह टाल कर उसने रसोई का रुख किया। तभी मोबाईल पर sms आने की घंटी बज उठी। माँ का sms था,वो कल आ रही थी।‘कंगाली में आटा गीला’, उसके मुंह से एक पुरानी कहावत निकल पड़ी। माँ के आने से वैसे तो वो बड़ी राहत महसूस करती थी पर खर्चे के बारे में उसे माँ की फिलासफी समझ में नहीं आती थी बल्कि उसे चिढ़ होती थी। ‘आमदनी कुछ भी हो,उसका एक हिस्सा बचत में निकाल कर रख दो, फिर बाकी पैसे खर्च करो।’ माँ अकसर कहा करती थी। पर माँ को कौन समझाए कि इतनी सी तनखा में कहाँ कोई बचत के बारे में सोच भी सकता है। शायद माँ के ज़माने में ऐसा हो जाया करता होगा। पहले आदमी की जरूरतें भी तो कम होती थी।
दामिनी के हालात शुरू से इतने बुरे ना थे। शादी के बाद के २-३ साल तो बड़े मौज में गुजरे। फिर अचानक पापा की जानलेवा बीमारी ने सब कुछ बदल कर रख दिया। इलाज के चक्कर में जो थोडा-बहुत बचा कर रखा था,पता ही नहीं कब निकल गया। और तो और, उसके गहने भी गिरवी रखने पड़े।
फिर सुदीप की नौकरी भी चली गयी क्योंकि इलाज की वजह से वह कई महीने तक ऑफिस ही न जा सका। अब जब सुदीप किसी दूसरी नौकरी के लिए एडियाँ घिस रहा था उसे ये मामूली सी नौकरी करनी पड़ी, आखिर घर का खर्च तो चलाना ही था, कैसे ना कैसे।
‘बीबी जी, दरवाजा खोलो’, इमरती बाई की तीखी आवाज़ ने दामिनी के विचारों का तांता तोड़ दिया। उसने उठ कर दरवाजा खोला। इमरती हांफ रही थी और उसके चहरे पर बैचनी थी। ‘बीबी जी,मुन्ना अस्पताल में है ,उसका एक्सीडेंट हो गया है’, उसने लगभग रोते हुए बताया। इससे पहले कि वह और सवाल करती इमरती बोली, ‘आपको मेरे साथ बैंक चलना होगा, बीबी जी।’ उसने अपने मुठ्ठी में एक बैंक चेक-बुक और पास-बुक कस कर पकड़ी हुई थी। दामिनी नें गैस का चूल्हा बंद किया और घर में ताला डाल इमरती के साथ हो ली।
इमरती उसी बिल्डिंग के अहाते में बाहर की तरफ एक छोटे से दड़बेनुमा कमरे में रहती थी जिसमें दामिनी का घर था। कपडे प्रेस कर अपना गुजारा करती थी। वो हमेशा अपने काम में लगी रहती और किसी को उससे कोई शिकायत नहीं थी। बिना पढ़ी लिखी होने पर भी उसके हिसाब किताब में कोई गलती नहीं होती थी। मुन्ना उसका १४ साल का बेटा था जिसे वो एक अच्छे स्कूल में पढ़ा रही थी। ‘सुबह सड़क पार करते हुए एक कार ने पीछे से टक्कर मार दी मुन्ना को’, इमरती ने रोते हुए रास्ते में दामिनी को बताया। उसने सांत्वना भरे अंदाज में उसके कंधे पर हाथ रख दिया और कहा,‘हौसला रखो ,भगवान सब ठीक करेगा।’
तेज चलते हुए वो लोग तीन मिनट में ही बैंक पहुँच गए। ‘बीबी जी, अस्पताल के लिए अस्सी हजार रुपये निकालने है’, इमारती ने चेक-बुक और पास-बुक दामिनी को देते हुए बोला। ‘इतने पैसे होंगे तुम्हारे खाते में ?’, मैंने आश्चर्य से बोला। ‘मुझे नहीं पता बीबी जी,ये सब मुन्ना ही जानता है। मैं तो बस अपना नाम लिखना सीख पाई हूँ बड़ी मेहनत के बाद।’ दामिनी ने पास-बुक को अपडेट कराया और बैलेंस पर नज़र डाली तो चौंक गयी–करीब साढ़े चार लाख रुपये थे उसके खाते में उस वक्त। पिछले कई सालों से हर बार सिर्फ पैसे जमा ही कराये गए थे उसमे छोटी छोटी रकम के रूप में, निकालने का ये पहला मौका था। उसने चेक-बुक में अस्सी हज़ार की रकम भरी और इमारती से दस्तखत करवाकर उसे काउंटर पर दिया। वहाँ से रुपये मिलने पर उसने गिन कर तसल्ली की और इमरती को सौंप दिए।
घर लौटते वक्त दामिनी के दिमाग में इमारती की पास-बुक ही घूमती रही। हफ्ते-दस दिन के अंतर से कराई हज़ार/दो हज़ार की रकम कुछ सालों के भीतर ही पहाड़ सी विशालकाय हो गयी थी जो आज उसके बेटे की जान बचाने के काम आ रही थी। चक्रब्रद्धि ब्याज और नियमित बचत का जादू अब उसे धीरे धीरे समझ आने लगा। माँ की बचत की सलाह का मतलब भी अब उसके दिमाग में जगह बनाने लगा।
घर पहुँच कर उसने हर जगह से चिल्लर और खुले रुपयों को मिलकर एक जगह इकठा करा कर बारबार गिना। मुश्किल से दो हज़ार रुपये हो पाए सब कुछ जोड़ कर। उसमें से दो सौ रुपये उसने अलग निकल कर अपने लाल वाले पर्स में डाल दिए और हिसाब लगाने लगी कि कैसे बचा हुआ महीना इतने ही रुपयों में गुज़रेगी। लाल पर्स को उसने ताले में ऐसे रख दिया जैसे कोई बड़ा खजाना हो।