हमारी टीम ने अपनी मनपसंद जगह चुन कर कैमरा लगा लिया था। इस जगह से वह मंच बिल्कुल
साफ दिखता था जहाँ से एक वीईपी को आकर कोरोना के प्रकोप से बेघर हुए मजदूरों को खाना बांटना
था। मेरी चैनल के चीफ-एडिटर ने मुझे इस काम के लिए चुना था और इस घटना को ध्यान से
फिल्माने की ख़ास हिदायत दी थी । जब वीईपी के रूप में वहां के आईजी साहब अपनी पत्नी के साथ
आ रहे हों तो ऐसा होना स्वाभाविक ही था।
पुलिस का एक बड़ा अमला लोगों को व्यवस्थित करने में लगा था और खाना लेने वालों की एक लम्बी
लाइन लगी थी । तयशुदा समय से आधा घंटा बाद आईजी साहब पधारे और चार पांच मिनट तक
लोगों को अपने हाथों से खाना बांटा, जब तक वहां मौजूद सभी पत्रकारों ने उनका हर एंगेल से फोटो
/वीडियो नहीं ले लिया । फिर अपनी चमचमाती गाड़ी में बैठ कर सायरन बजाते हुए फुर्र हो लिए ।
उनके जाते ही थानेदार भी वहां से निकल लिये , एसपी साहब तो बड़े साहब के साथ ही चले गए थे ।
वहां रह गए दो इंस्पेक्टर और चार-पांच सिपाहियों के लिए हज़ारों की उस भीड़ को संभालना मुश्किल
हो गया और वहां अफरा तफरी मच गयी । ये देख कर कुछ समाज सेवी संस्थाएं जो खाना बांटने आई
थीं वे भी अपनी गाड़ियां वापस ले गयीं ।
मेरे लिए ऐसे दृश्य कोई नयी बात नहीं थी । अक्सर इस तरह के आयोजन, जिनका मकसद
प्रभावशाली लोगों द्वारा अपनी छवि बनाने का होता था, उनके जाते ही अराजकता का सा माहौल हो
जाना आजकल आम बात थी । कैमरामैन जो नया था उसने जोश में इस भगदड़ को भी कैमरे में कैद
कर लिया पर मैं जानता था कि हमारा अनुभवी और दुनियादार एडिटर इन दृश्यों को मेन-स्टोरी से
निकाल देगा ।
जो गाड़ी हमारी टीम को वहां से ले जाने के लिए आने वाली थी वह खराब हो गयीं थी और दूसरी गाड़ी
का बंदोबस्त होने में अभी समय लगाने वाला था इसलिए वहां के माहौल से उकताकर में सड़क के
दूसरी तरफ जाकर टहलने लगा । वहां पास की एक झोंपड़ी से आती कुछ आवाजों ने मेरा ध्यान खींचा
। मैंने देखा एक आदमी हाथ में खाने का पैकेट लेकर बाहर से वहां आया था और वहां मौजूद दूसरा
व्यक्ति उसे कोस रहा था कि वह सिर्फ एक ही पैकेट लेकर आया था । बात करने पर मालूम हुआ कि
लल्लू नाम के उस मज़दूर की पत्नी और छोटी बच्ची बुखार से तप रहे थे और थोड़ी थोड़ी देर में
क्योंकि उनकी गीली पट्टी बदलनी होती भी इसलिए वह उन्हें छोड़ कर खाना लेने नहीं जा सकता था
अत: उसने अपने साले घसीटाराम को उन सब के लिए तीन खाने के पैकेट लेन के लिए भेजा था जो
दो घंटे बाद भी सिर्फ एक पैकेट ही लेकर आया था । इसी पर वह अपनी नाराज़गी दिखा रहा था । पर
घसीटाराम ने बताया कि पुलिस ने उन्हें डेढ़ घंटे तक तो बिठा कर रखा. बड़े साहब के इंतज़ार में, और
जब खाना बांटना शुरू हुआ तो आधे घंटे में ही ख़त्म हो गया और उसके बाद वहां मौजूद पुलिस ने
लाठियां घुमा कर सबको भगा दिया । उसे तो शायद यह एक पैकेट भी नसीब नहीं होता , पर भला हो
रहीम चाचा के बेटे का जिसकी मदद से ये उसके हाथ आ गया ।
पैकेट को खोला तो उसमें तीन रोटियां और थोड़ी सी सब्जी थी जिसे बाँट कर उन चारों ने थोड़ा-थोड़ा
पेट भर लिया । यह सब देख कर मुझे लगा कि यह भी एक अच्छी कहानी है हमारे दर्शकों के लिए पर
फिर ख्याल आया कि हमारे खंडूस एडिटर को इसमें दिखाने लायक कुछ भी नहीं लगेगा इसलिए मैंने
वहां से निकलना ही सही समझा । हमारे यहाँ सच्चाई के एक पक्ष को ही उभार कर दिखाया जाता है
और दूसरे को अक्सर दबा दिया जाता है । खबरों की दुनियां ऐसे ही चलती है ।
पर वापस जाने से पहले एक पुलिसवाले कि मदद से मैंने उन लोगों के लिए खाने और चिकित्सा
सुविधा का इंतज़ाम करा दिया । पत्रकार होने की हैसियत से भले ही मेरे हाथ बंधे थे पर इंसान होने कि
हैसियत से मैं उन लोगों की इतनी मदद तो कर ही सकता था जो मेरे चाहने भर से उस चैनल की
स्टोरी पर नहीं आ सके ।