गुप्ताजी का आज का व्यवहार अप्रत्याशित था । पिछले बारह वर्षों से मैं उनका किरायेदार था पर हम दोनों के परिवारों के बीच इतना आना-जाना था कि लोग उन्हें हमारा रिश्तेदार ही समझते थे। घर में कोई उत्सव हो या बड़ी घटना , गुप्ताजी और उनके परिवार का नाम मेहमानों की सूची में हमेशा रहता था। गुप्ताजी पर जब भी कोई कारोबारी संकट आता था तो वह सलाह के लिए मेरी राय लेना नहीं भूलते थे और एक दो बार तो मैंने उनके बुरे समय में आर्थिक सहायता भी की थी।
पर आज सबके सामने उन्होंने मुझे याद दिला दिया कि मैं सिर्फ एक किरायेदार था और इससे मेरा दिमाग भन्नाया हुआ था। मुझे आज के आज ही मकान खाली करने के लिए कह कर उन्होंने मुझे अचंभित तो किया ही था , साथ ही क्रोधित और आहत भी।
सच पूछो तो मेरे हाथ पैर फूल गए थे । पत्नी ने ढांढस बंधाया तो मन कुछ शांत हुआ और मैंने फिर एक-एक जान पहचान वाले को फोन करने का सिलसिला शुरू कर दिया। वो तो मेरी किस्मत अच्छी थी कि 7 /8 फोन कॉल करने के बाद सुधीर ने बताया कि उसका एक मकान कल ही खाली हुआ था और मैं अभी वहां जा सकता था। यह सुन कर मेरी जान में जान आई ।
फिर जाकर एक 'मूवर्स & पैकर्स' को पकड़ा जो दो घंटे बाद ही आने को तैयार हो गया । उसका स्टाफ बड़ा चुस्त निकला । डेढ़ घंटे बाद ही हाज़िर हो गया और तीन घंटे के अंदर सारा सामान पैक भी कर डाला। सब कुछ बेहद जल्दी-जल्दी हो रहा था । हालाँकि मैं थका हुआ था पर अभी एक काम बाकी था । घर की चाबी को गुप्ताजी के मुंह पर मार के जो आना था । मैंने गाड़ी निकली और इस काम को करने चल पड़ा । मौसम सुहाना था और मेरे सब काम उम्मीद से भी जल्दी हो गए थे अत: मैं कुछ निश्चिन्त और तनाव मुक्त हो गया था। सोचने लगा कि ऐसी क्या आफत आ गयी गुप्ताजी को कि आज ही उन्हें अपना मकान वापस चाहिए था? होगी उनकी अपनी कोई मजबूरी ! मुझे क्या? मुझे तो फिर से एक अच्छा मकान मिल गया था रहने के लिए।
अब मुझे पत्नी की दी हुयी दलीलों में दम नज़र आ रहा था । उसके अनुसार बड़े-बड़े मंत्री और सरकारी अफसर भी किराये के मकान में ही तो रहते हैं , भले ही उनका किराया सरकार भरती हो पर होते तो हैं वो किराये के ही मकान जो उनसे कभी भी खाली कराये जा सकते हैं ।
गुप्ताजी के कंपाउंड में गाड़ी पार्क करना चाहा तो वहां जगह ही नहीं मिली , पहले से ही वहां बहुत सी गाड़ियां खड़ी थी। शायद कोई पार्टी चल रही थी वहां। पास की गली में गाड़ी पार्क करके जब मैं उनके दरवाजे पर पहुंचा तो देखा बाहर बहुत से जूते /चप्पल रखे थे , शायद कोई कथा या हवन वगैरह हो रहा था उनके यहाँ। मैंने भी जूते बाहर ही उतारे और घर में प्रवेश किया। पर ये क्या! जमीन पर सफ़ेद चादर में लिपटा गुप्ताजी का मृत शरीर पड़ा था और उसे घेर कर ग़मगीन लोग बैठे थे। मुझे देखते ही गुप्ताजी कि पत्नी की रुलाई फूट गयी । "ये सब कैसे हुआ , भाभीजी?", मैंने रुंधे हुए गले से पूंछा ।
"क्या बताऊँ भाई साहब ,अचानक दिल का दौरा पड़ा और सब कुछ ख़त्म हो गया। अस्पताल पहुंचते- पहुंचते देर हो गयी।“
कुछ समय वहां बिता कर और घर की चाबी भाभीजी को देकर मैं वापस अपने नए घर की तरफ चल दिया ।
रास्ते में मैं सोच रहा था कि हम लोग अगर किसी मकान के मालिक होते हैं तो कितना इतराते हैं , घमंड करते हैं और किरायेदारों को नीची नज़र से देखने लगते है। पर अपने इस शरीर में भी हमारी हैसियत मकान मालिक की न होकर किरायेदार जैसी ही है । मकान मालिक (ऊपरवाला) न जाने कब इसे खाली करा ले , और हमें तैयारी का मौका भी न मिले गुप्ताजी की तरह !
अब अपने किरायेदार होने पर मुझे कोई कोफ़्त न रही । दिवंगत आत्मा की शांति के लिए मैंने ईश्वर से प्रार्थना की और अपने नए किराये के घर की तरफ गाड़ी मोड़ दी ।