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लौटा बचपन

3 अक्टूबर 2023

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"खुशबू,मैं नीचे टहलने जा रहा हूँ, तुम भी चलोगी क्या?" मैंने सोफे से उठते हुए पूछा।

इससे पहले कि खुशबू कोई जबाब देती,माया ने उसे आंखें दिखते हुए कहा,“खुशबू को अभी होम-वर्क पूरा करना है,आप जाइये।“

खुशबू मेरी 6 साल की नातिन थी। मैं अपने एक शोधकार्य के सिलसिले में अपनी बेटी माया के शहर में,जो एक महानगर था,कुछ दिनों के लिए आया हुआ था और अधिकतर समय उसके साथ गुजार कर जीवन का आनंद ले रहा था।

नीचे उतारकर माया की कालोनी के सुन्दर बगीचे में टहलते हुए मैं सोच रहा था कि खुशबू हमारे छोटे से
कस्बे के मोहल्ले के बच्चों से कितनी अलग थी,और अगर समय रेखा में पीछे जाकर देखा जाये तो मेरे बचपन के दिनों के गांव के दोस्त इनसे भी कितने अलग हुआ करते थे।

हमारे बचपन में हमारा वास्ता मशीनों से नहीं पड़ता था। मशीन के नाम पर वैसे तो घर या गांव में गिनी
चुनी ही चीजें होती थीं जैसे सिलाई की मशीन या चारा काटने की मशीन या फिर साइकिल,पर बच्चों को उन सब से दूर ही रखा जाता था किकहीं कोई चोट न लग जाय। घर हमेशा ही बहुत से लोगों से भरा रहता था-‘माँ-बाप के अलावा कितने सारे भाई-बहन, दादा-दादी और चाचा-चाची’। मेहमानों का तो
ताँता सा लगा रहता था, इतना कि अक्सर सोने के लिए चारपाई कम पड़ जाती थी और कुछ लोगों को जमीन पर सोना पड़ता था। अकेलापन क्या होता है, हमने अपने बचपन में जाना ही नहीं।पर आजकल हमारे कस्बे के बच्चों की जिंदगी को देखें तो हमारे ज़माने के मुकाबले काफी बदलाव आये हैं। उनके जीवन में कई मशीनों की घुसपैठ हो गयी है जैसे फ्रिज, मोबाईल-फ़ोन, टीवी, स्कूटर वगैरह। फिर परिवार भी इतने बड़े नहीं होते और मेहमानों का आना जाना भी काफी कम को गया है।

पर यहाँ खुशबू की जिंदगी देख कर तो मेरा दिमाग ही घूम गया था। उसकी ज़िंदगी पर तो लगता है मशीनों का ही कब्ज़ा है। पूरे दिन वो अपने टेबलेट में आंखे गढ़ाए रहती थी। फिर अलेक्सा हमेशा
उसकी वॉइस-कमांड पर काम करने को तैयार बैठी रहती थी और उसके अधिकतर खिलोने भी इलेक्ट्रॉनिक थे। उसका टाइम-टेबल बिलकुल बंधा-बंधाया था जिसमेउन्न्नीस-बीस की कोई गुंजाइश न थी।फिर घर में माँ-बाप के अलावा कभी-कभाद ही कोई आता था जैसे आजकल मैं आया हुआ था। और माँ बाप भी घर में देर रात अक्सर थके थकाए आते थे और उसको अपना समय मुश्किल से ही दे पाते थे।उसका वास्ता दिन भर जिन लोगों से पड़ता था वो दादा-दादी, भाई-बहन या मामा-मामी, चाचा-चाची जैसे प्यार और अपनत्व से भरे लोग नहीं थे बल्कि पैसा लेकर काम करने वाले लोग थे।

मैंने कई बार माया से इस बारे में बात करने की कोशिश की, पर वह तो अपनी ऑफिस में काम करने की मजबूरी और तेज गति से भागती शहरी जिंदगी का हवाला देकर मुझे चुप करा दिया करती थी।पर उसदिन बात दूसरी थी। माया और किशोर तेज स्वर में बहस कर रहे थे और माया अब मेरी कही बातों को गंभीरता से लेते हुए किशोर को समझा रही थी कि खुशबू की देखभाल के लिए उसे अपनी नौकरी छोड़नी ही पड़ेगी। दरसल उनकी कॉलोनी की एक काम वाली बाई की गंदी हरकत उस मकान के मालिक द्वारा ख़ुफ़िया सीसीटीवी कैमरा लगाने की वजह सेलोगों की निगाह में आ गयी थी। वह उनकी छोटी बच्ची, जिसकी देखभाल के लिए उस बाई के भरोसे छोड़ कर दोनों पति पत्नी काम पर जाते थे, को भिखारियों को किराये पर दे देती थी क्योंकि भिखारी की गोद में मासूम बच्ची को देख लोग तरस खा कर ज्यादा भीख देते थे। पुलिस उसे गिरफ्तार कर के ले गयी थी और सारी कालोनी में उसी की चर्चा हो रही थी। किशोर और माया भी उसी बात को लेकर बहस में उलझे हुए थे। किशोर अपनी ईऍमआई और घर-खर्चों का हवाला देकर माया को नौकरी छोड़ने से रोकना चाहता था। उसका एक तर्क यह भी था की अगले ही साल माया का प्रमोशन भी होना लगभग तय था जिससे उसकी तनखा और सुविधाएँ एकदम से बढ़ जाने वाली थीं। पर माया अंदर से हिल चुकी थी अपनी कालोनी की उस घटना से जिसमें शायद मेरी समझाइश का भी असर रहा होगा।

अगले दो तीन दिन पूरे घर में तनाव भरा माहौल रहा। माया और किशोर के बीच लगातार हो रही लम्बी बहस जिसमें मैं भी कभी-कभी शामिल हो जाया करता था, बे-नतीजा रहती थीं। यह सब देख कर मैं अंदर से बेहद दुखी था। समस्या वास्तव में गंभीर थी और उसका निराकरण होना ही चाहिए था पर कोई भी सम्मानजनक समाधान समझ में नहीं आ रहा था।

जब इसका समाधान आया तो अचानक से ही एक अप्रत्याशित रूप में। खुशबू के कहने पर मैंने उसके स्कूल के गेट के पास एक सेल्फी अपने फ़ोन से खींच ली थी जिसे घर आकर माया को दिखाया। माया की तेज नजर हमारे चेहरों पर न पड़ कर हमारे पीछे लगे हुए एक पोस्टर पर पड़ी जिसमें उसके स्कूल में एक ‘आर्ट टीचर’ की जरूरत दर्शायी थी। बस माया को तो मानो एक खज़ाना सा मिल गया। उसने झट से इस पोस्ट के लिए अप्लाई करने का मन बना लिया। शाम को किशोर के आने पर जब उसने उसे अपने फैसले के बारे में बताया तो पहले तो वो चिहुंक सा गया, " तुमने इतने अच्छे कॉलेज से ऍमबीए की डिग्री आर्ट-टीचर बनाने के लिए ली है?"

पर जब माया ने उसे समझाया कि पेंटिंग में उसे शुरू से ही बड़ा सुकून मिलता है और उसने इसके लिए
डिप्लोमा भी किया हुआ है तो वह कुछ नरम पड़ा। पर फिर भी उसने कहा, " तुम्हारी सैलरी तो अब जो ले रही हो उसकी आधी भी नहीं रह जाएगी। लोग तो ज्यादा सैलरी के पीछे भागते हैं और तुम अपनी सैलरी घटना चाहती हो।
" पर माया ने आश्वस्त स्वर में जबाब दिया, " तुम भूल रहे हो कि इंसान काम में सिर्फ पैसा नहीं बल्कि साथ मिल रही सुविधा और मन कि शांति भी देखता है। और मुझे इतने अच्छे ‘वर्कऑवर’ मिल रहे है और काम के वक्त भी मैं खुशबू के आस पास रह सकूंगी। फिर भी पैसा इतना तो मिल रहा है कि अगर हम जरा सी फ़िज़ूलख़र्ची पर लगाम लगा लें तो जिंदगी आराम से गुजर जाएगी।

सीधे तरीके से कही गयी माया की तर्कपूर्ण, तथ्य युक्त बातें धीरे-धीरे किशोर के समझ में आने लगीं। थोड़े ना-नुकुर के बाद उसने हाँ कर दी। माया ने झटपट इंटरव्यू दिया और ईश्वर की अनुकम्पा से उसे यह नौकरी मिल भी गयी। जॉइनिंग-लैटर जब वह घर आई तो उसका चेहरा खुशी से चमक रहा था। वापस जाने से पहले मेरे दिमाग से भी एक बड़ा बोझ उतर गया था और उम्मीद बंध गयी थी की खुशबू का बचपन अब शायद लौट आएगा। एक पल के लिए तो मुझे भी लगा कि मैं समय रेखा में 60 साल पीछे जाकर फिर से बच्चा बन गया हूं।

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