“भिक्षाम देहि:”, कहते हुए अजय ने भिक्षा-पात्र संदीप के सामने खटखटाया तो संदीप को उन भिखारियों
का ध्यान आया जो रोज ऑफिस जाते समय मेट्रो में इस तरह कटोरे खड़काते हुए घूमते रहते थे। उसने
मुस्कुराते हुए 500 रुपये का एक नोट अपनी जेब से कटोरे में डाल दिया। इस पर अजय उलाहना देते हुए
बोला, “चाचा, ये महंगाई का जमाना है, 500 से काम नहीं चलेगा, हज़ार रूपये तो दे दो।” संदीप ने यह
सुनकर एक और 500 का नोट कटोरे में डाल दिया। वह अपनी पत्नी माया के इशारे नहीं देख पाया जो
कुछ दूर पर बैठी उसे ऐसा करने से मना कर रही थी। अपनी इच्छा पूरी ना होते देख माया दबी आवाज़ में
पास बैठी अपनी सहेली से बोली, “ये समझ रहे हैं कि उनके दिए हुए पैसे अजय के पास जाएंगे और लाड़
दिखा रहे हैं। पर समझते नहीं कि ये पैसे तो पंडित जी कि जेब में जाने है। मेरी बात तो ना सुनते हैं, ना
समझते हैं। अब सबके सामने जोर से बोल कर रोक भी तो नहीं सकती इन्हे।”
संदीप और माया अपने भतीजे अजय की शादी के अवसर पर हो रही यज्ञोपवीत विधि का आनंद ले रहे
थे। पंडित जी अजय ' को समझा रहे थे, प्राचीन काल में आश्रम में गुरु अपने शिष्यों को भिक्षा मांग कर
खाने का संस्कार सिखाते थे, क्योंकि साधु संत ऐसे ही अपना पेट भरते थे। साथ ही स्वस्थ जीवन जीने
के लिए अपने संकल्प को यज्ञोपवीत के धागे की तरह धारण करना पड़ता है और हमेशा इसके प्रति
सचेत रहना पड़ता है। '
चाय की चुस्कियां लेते हुए संदीप ने सोचा, ' जमाना कितनी तरक्की कर गया हैं पर ये पोंगा पंडित लोग
अपने शास्त्रों की पुरानी घिसी पिटी बातें ही दोहराया करते हैं। एक दो दिन तो ठीक हैं, पर ऐसा कैसे हो
सकता हैं कि कोई सम्मानित व्यक्ति सिर्फ दूसरों के छोड़े गए भोजन को खाकर खुशी-ख़ुशी अपना काम
करे। ऐसा तो कैदी ही कर सकते हैं पर मज़बूरी में ही, और वे ऐसा करके खुश तो नहीं रह सकते। सब
कपोल कल्पनाएं हैं। जरूर साधु संत भिक्षा से ही जीवन निर्वाह नहीं करते होंगे, उनका साइड-बिज़नेस
भी रहता होगा और दिखावे के लिए भीख मांगते होंगें।”
इस बात को कुछ दिन ही बीते होंगे कि करोना की महामारी ने पूरे विश्व को लॉकडाउन की स्थिति में
रहने पर विवश कर दिया। सुदीप भी औरों की तरह ही कई महीनों तक अपने घर में कैद रहने के लिए
मज़बूर हो गया। इसी दौरान संदीप के फ्रैक्चर हो गया और उसे घर के अंदर तक ही बिस्तर तक सिमट
कर ही कई दिन गुजारने पड़े। इन दिनों में ऑफिस का काम ऑनलाइन करने और इंटरनेट पर कुछ
समय बिताने के बाद भी संदीप के पास बहुत सा समय बचता था । उसे समझ नहीं आता था कि वह यह
समय व्यतीत कैसे करे। उसकी पत्नी सुधा तो ज्यादातर समय घर के काम में ही व्यस्त रहती थी।
सुधा का काम उसकी कामवाली बाई के ना आने पर और संदीप के दिन भर घर पर बैठे रहने से और
करोना महामारी के चलते अतिरिक्त सावधानी बरतने के कारण कई गुना बढ़ गया था, जो उसकी
क्षमता से कहीं अधिक था पर, वह सब करना उसकी मजबूरी थी। संदीप ने सोचना आरम्भ किया कि
सुधा ये सब कैसे मैनेज करती होगी। उसकी झुंझलाहट चेहरे तक कैसे नहीं आ पाती ? ऐसे में उसके
खोजी मन ने अपनी पत्नी के काम करने के ढंग को ध्यान से देखा और उसका विश्लेषण करने का
प्रयास किया।
एक विशेष बात जो संदीप ने नोटिस की वह यह कि, सुधा कभी भी खाना उसके साथ बैठ कर नहीं खाती
थी, उसके बार-बार अनुरोध पर भी। संदीप को गर्म देने का बहाना करके उसके अनुरोध को अस्वीकृत
कर देती और रसोई से उसकी टेबल तक थाली में एक-एक रोटी गरम लेकर आती। जब उसने जिद कर
साथ बैठ कर खाने को कहा, और यह भी कहा कि वह साथ में ही खायेगा, ठंडा ही सही, तो भी वह
कनखियों से उसे देखकर धीरे-धीरे एक रोटी टूंगती रही। इससे उसे समझ में आया कि सुधा को यह
चिंता खाये जा रही थी कि मेरे लिए रोटी, दाल-सब्जी कम तो नहीं पड़ जायेंगे। वैसे तो वह गिनती की
तीन रोटी खाता था, पर शायद वह सोचती होगी कि, ‘किसी दिन उसने इरादा बदल लिया तो, अच्छा
खाना देख कर या भूख के वश।’ इसलिए जब तक वह बस नहीं कर देता , सुधा दूसरी रोटी और बची हुयी
दाल सब्जी खुद नहीं लेती थी।
उसके द्वारा खाना ख़त्म करने के बाद ही, वह बची हुए खाने से अपना काम चलाती थी, और यह सब
करते हुए अक्सर खाना कम पड़ने के बाद भी उसके चेहरे और मन में परम संतुष्टि का भाव रहता था।
बल्कि उसे मन ही मन खुशी होती थी कि अगर संदीप ज्यादा खा ले, यह सोच कर कि खाना उसे पसंद
आया है।
ये सब विचार उसके मन में चल ही रहे थे की उसकी पत्नी ने अजय की शादी का वीडियो चला दिया।
यज्ञोपवीत के समय पंडित की कही हुयी बातें अब उसे इतनी बकवास नहीं लग रही थी। अपनी पत्नी के
चेहरे पर रोज ही बचा हुआ खाना खाकर भी परम संतोष का भाव देख कर उसको लगने लगा की इस
धरती पर ऐसे प्राणी भी हो सकते हैं जिनकी सोच और संकल्प खाने पीने से कहीं ऊपर हो उसकी पत्नी
की तरह। यह कमाल का अनुशासन था जो उसने स्वयं पर ही स्वेच्छा से आरोपित कर लिया था। तब
उसकी समझ में आया कि पुराने ज़माने में साधु संत कैसे कर पाते होंगें।
मन में ऐसे भाव रख पाना शायद माता-पिता समाज की अनौपचारिक शिक्षा का परिणाम थे। शायद
इसी तरह की शिक्षा पुराने समय में गुरु के आश्रम दी जाती होगी। इन्ही सब संस्कारों के कारण बड़े
होकर जो साधु लोग बन जाते होंगे, वे भी इस आदत से बंधे रहते होंगे और ज्ञान बांटने के बाद उन
लोगों को भी आशीर्वाद देते थे जो उन्हें कुछ नहीं दे रहे।
‘जो दे उसका भला और जो न दे उसका भी भला’ का नारा शायद इसी सोच का परिणाम रहा होगा ।
आज के वैज्ञानिक और शोधकर्ताओं के भीतर भी यही भाव में देखने को मिलता है जो खुद की जरूरत
नजरंअदाज करते हुए मानवजाति की भलाई के लिए अपने काम में डूबे हुए रहते हैं। शायद यही वह
भाव है जो हमारे जीवन और देश कि संस्कृति को जीवंत बनाये हुए है। उसका मन अपने पूर्वजों और
साधु-संत तथा अपनी संस्कृति के प्रति आदर से भर गया। ऐसी महान सोच रखने वाली देवतुल्य
आत्मा हमारे यहाँ कल भी थीं और आज भी हैं। उसने मन ही मन इस सोच को शत-शत नमन किया
और फिर अपने काम में लग गया।