हमारे घर में अगर कोई वीआईपी है तो वो मेरी पत्नी नहीं है। जी हाँ , आपने ठीक समझा। उसकी भी एक बॉस है जो उसे भी अपनी उँगलियों पर नचाती है।
वो है हमारी काम वाली बाई –मुन्नी।
इस बात का अनुमान तो मुझे पहले से था पर पिछले एक महीने से जब मेरे पैर में फ्रैक्चर हो गया और मुझे सारा समय घर पर ही बिताना पड़ा तो यह बात ठीक से समझ में आयी।
हर दिन सुबह होने पर श्रीमतीजी का मूड कैसा रहेगा इस बात की कुंजी मुन्नी के ही हाथ में थी। अगर वह नहीं आई या लेट हो गयी तो श्रीमती जी के मूड को भगवान् भी ठीक नहीं कर सकता था।अगर वो आ गयी तो घर में सब काम उसकी पसंद और इच्छा के मुताबिक ही होता था।
आते ही चाय और नाश्ते से उसका स्वागत होता था और इस दोरान वह चाय की चुस्कियों के साथ पूरे मोहल्ले का कच्चा-चिठठा श्रीमती जी के सामने खोलती थी और श्रीमतीजी अपने मनपसंद टी वी चेनल की तरह इस बात का भरपूर आनंद लेती है। किसने किसके बारे में क्या कहा और कौन क्या कर रहा है इसकी रनिंग कामेंट्री में दोनों स्त्रियों को जो आनंद मिलाता था शायद उसका अहसास किसी पुरुष के बूते की बात नहीं।
फिर शुरू होता था झाड़ू-पोंछे का दौर। पहले झाड़ू लगाने के लिए हर जगह पंखे बंद कर दिए जाते थे और इस काम को करने से पहले कोई भी मुझसे पूछने की या बताने की जरूरत नहीं समझता था। जब से घर में इनवेर्टर लगवा लिया था मुझे अचानक ही पंखे के रूक जाने के कष्ट से निजात मिल गयी थी और इसकी आदत भी नहीं रही थी। पर इन दिनों पुराने दिनों की याद ताजा हो गयी जब बिजली कभी भी गुल हो जाया करती थी। मुझे कई दिन लगे आपने आप को इस प्रक्रिया में एडजस्ट करने से। अब जब सुबह शाम पंखा अचानक बंद हो जाता है तो मैं समझ जाता हूँ कि झाड़ू लगाने की रस्म शुरू होने वाली
है। झाड़ू के बाद पोंछे की बारी आती है तो पंखे के साथ इसका उल्टा होता है। इस समय पंखा फुल स्पीड पर दौडाया जाता है, चाहे सर्दी हो या गर्मी । कुछ दिनों की
ट्रेनिंग के बाद इन सर्दियों में भी पोंछे के बाद फुल स्पीड के पंखे के नीचे सामान्य बने रहने की आदत भी अब मैंने डाल ही ली है। फिर बर्तन साफ़ करते समय श्रीमती जी उसकी असिस्टेंट की तरह काम करती
नज़र आती है।
मुन्नी कहीं काम छोड़ कर चली न जाय इसके लिए श्रीमती द्वारा हर तरह का ख्याल रखा जाता था। उसे खुश रखने के लिए हर त्यौहार या आयोजन पर उसकी इच्छाओं के अनुरूप उपहार दिए जाते हैं।
कोई हमारे घर आयेगा या हमें कहीं बाहर जाना है तो हमारे घर में इसके टाइमिंग मुन्नी के आने और जाने के समय से ही तय होते है।
पिछले हफ्ते सुधा भी बीमार पड़ गयी तो घर पर जैसे मुसीबतों का पहाड़ सा टूट पड़ा। सुधा तो पहले भी कई बार बीमार हुयी थी पर तब उसकी समस्याए मेरी आँखों के सामने नहीं रहती थीं। न जाने कैसे मैनेज करती होगी बिचारी, मुझे आफिस में बैठे बैठे कहाँ पता लगाने वाला था।
घर में भी कितने सारे काम होते हैं ,इसका अंदाजा मुझे अब जाकर लगा था। बच्चों को स्कूल बस के समय से पहले तैयार करने और उनका नाश्ता बनाने में कितनी तैयारी करनी होती थी ये जान कर मैं हैरान था। फिर खाना बनाना और झाड़ू पोंछा भी कोई आसान काम नहीं था। ऊपर से सुबह उठने के साथ ही कचरे वाले, दूध वाले , प्रेस वाले ,सब्जी वाले और न जाने किस किस के आने का ताँता लगा रहता था और हर एक से बड़ी मगजमारी करनी पड़ती थी।
और अगर किसी दिन मुन्नी न आये तो बर्तन मांजने का मुश्किल काम भे खुद के सर था। उसमें थाली/ कटोरी तो एक दो दिन के लिए छोड़ भी सकते हो पर प्रेशर कुकर और कढ़ाही तो हर हालत में अगले खाने से पहले धुलना मांगता है। अब मुझे धीरे धीरे मुन्नी की उपयोगिता और सुधा का दर्द समझ में आने
लगा था।
इधर सुधा को भी धीरे धीरे समझ में आने लगा कि मुन्नी से मदद तो बहुत मिलती है पर ऐसा नहीं कि उसके न होने पर घर का सारा काम ही रुक जाय। उसके बिना भी जीने के रास्ते निकले जा सकते है।
आज जब मुन्नी नही आयी तो सुधा ने दोनों मुस्कुराते हुए मेरी तरफ देखा और मैंने जैसे टेलीपैथी से उसका दिमाग पढ़ते हुए कहा, ‘ चलो आज पिक्चर देखने चलते हैं और डिनर भी बाहर करेंगे। ’
सुधा ने खुशी खुशी मेरा हाथ अपने हाथ में लिया और मुझे अपनी जवानी के दिन याद आ गए।