विमान में प्रवेश की उद्घोषणा के साथ रमा एक झटके से उठ बैठी और लपक कर लाइन में लग गयी। वहीं सुरेश आराम से अपने लैपटॉप पर काम करता रहा। दोनों दम्पतिअक्सर हवाई जहाज से यात्रा करते थे और हर बार ऐसा ही घटनाक्रम दोहराया जाता था।
सुरेश अकसर लाइन ख़त्म होने का इंतज़ार करता और तब आराम से टहलता हुआ जाकर दरवाजे में प्रवेश करता था
और इस तरह से बचाये हुए तीन-चार मिनट के समय का सदुपयोग अपने अपूर्ण कामों को निबटने में करता था। अपने कई बार के यात्रा अनुभव से वह जानता था कि उद्घोषणा होने के बाद अकसर कुछ समय बाद ही एयरलाइंस के कर्मचारी वहां पर आते थे और तब तक रमा सरीखे बेसब्र यात्री लाइन बना कर उनका इंतज़ार करते थे। उसे मालूम था कि कि ये कोई रेलवे का अनारक्षित डिब्बा नहीं था जहाँ अपनी सीट संघर्ष करके हड़पना पड़ता है अन्यथा कोई और ले उडता है ।विमान उसे छोड़ कर नहीं जायेगा और उसकी सीट पर कोई और यात्रा नहीं कर सकता। वह अपने आप को व्यर्थ में लाइन में खड़े रह कर न तो समय बर्बाद करना चाहता था और न ही अपने शरीर को कष्ट देना चाहता था।
इस बात पर कई बार उनमें झगड़ा भी हो चुका था पर उसका कोई नतीजा नहीं निकला।
रमा भी ये सब बातें समझती तो थी पर उसमें बचपन से ही ऐसे संस्कार ठूंसे गए थे कि हर जगह भाग कर सबसे पहले पहुंचना है। ये संस्कार अब उसकी आदत का हिस्सा बन चुके थे जिसे वह चाह कर भी नहीं बदल पा रही थी।
वो अपनी आदत से मजबूर थी।
क्या आप भी अपनी किसी आदत की मजबूरी की डोरी से बंधे हुए हैं?