जमुनादास की चाय
तो कुछ खास नहीं थी पर उसकी छोटी सी दुकान पर जमीं रहने वाली भीड़ शायद उसकी लच्छेदार बातों के दम पर ही जुटा करती थी। हर बात वो इतने विश्वास के साथ कहता था कि मानों उसके आँखों के सामने घटी हुयी घटना हो और इससे उसे बिलकुल फर्क नहीं पड़ता था कि वह बात किसी खेल के मैदान की हो या राजनीति के अखाड़े की या फिर मोहल्ले के किसी चर्चित नमूने की। उसके मुहँ से सिर्फ शब्द ही नहीं निकलते थे बल्कि वह पूरे शरीर की हरकत से एक अच्छा खासा मल्टी-मीडिया प्रेजेंटेशन देता था। हर किसी के काम में कमी निकलने में उसे महारत हासिल थी चाहे वह व्यक्ति कोई भी क्यों न हो। और बात यहीं पर ख़त्म नहीं हो जाती। कमी निकालने के बाद वह यह भी बताता था कि उसे कैसे ठीक
किया जा सकता है। मैंने कई बार उसे यह ज्ञान देते सुना था कि नरेन्द्र मोदी को कैसे राजनीति करनी चाहिए और विराट कोहली को कैसे अच्छा क्रिकेट कप्तान बनना चाहिए।
मैं अतुल्य-भारत प्रोजेक्ट के तहत लन्दन में अपनी चाय की फैक्ट्री को बेच कर अपने देश वापस आया था
और आजकल यहाँ अपनी नयीफैक्ट्री के पेपर पास करने की आस में एक दलाल के चक्कर में एक छोटे से सरकारी दफ्तर में अपने दिन का अधिकतर समय गुजार रहा था और आस पास कोई अच्छा रेस्त्रां न होने की कारण जमनादास की दूकान पर ही समय व्यतीत करता था। पिछले पांच दिनों में मैंने कई ऐसी बातें नोट कीं जिससे उसकी चाय की गुणवत्ता और व्यापार और निखर सकता था। क्यांकि मैंने बिज़नेस-मैनेजमेंट में डिग्री ली थी और मैं भी इसी व्यवसाय से जुड़ा हुआ था अत: ये सब कुछ स्वाभाविक रूप से ही हो था। अत: एक दिन मौका देख कर मैंने उसे अपने विचारों से अवगत कराया।
मुझे लगा कि मेरी सलाह का जमनादास स्वागत करेगा क्योंकि यह उसके फायदे और तरक्की की ही तो बात थी। पर मेरी बातों को लगभग अनसुना करके वह एक दम चिढ सा गया और इधर उधर की फालतू बातें करके मुझे उपेक्षित करने लगा। मुझे अजीब तो लगा पर तभी मुझे अपने दलाल की बात याद आई जिसने मुझे इस देश कि बारे में तब कुछ बताया था जब मैं अपनी कंसल्टेंसी सर्विस शुरू करने के बारे में उसकी राय जानना चाहता था। उसने बताया था, “यह भारत है, लंदननही। यहाँ ज्ञान बांटना तो हर कोई चाहता है पर लेते समय बेहद तकलीफ और हीनता महसूस करताहै-और अच्छी सलाह को पैसे देकर खरीदने में सबकी जान निकलती है ।”
मैंने सोचा, “अजीब देश है ये।यहाँ का आम आदमी सदियों से बाबाओं,सत्ताधारियों और दलालों द्वारा इतना छला गया है कि अभावग्रस्त परिस्थिति को उसने अपना भाग्य और एक काल्पनिक दुनिया को सच मान रखा है।” मैं ये सब सोच ही रहा था कि मेरा दलाल खशी-खुशी-खुशी मेरी फैक्ट्री के सारे पेपर लेकर आ गया। यहाँ के माहौल से घबराकर उसे एक तयशुदा रिश्वत की रकम मैंने सुबह ही सौंपी थी। "सौ में से निन्यानवें बेईमान,पर फिर भी मेरा भारत महान", यह कहते हुए उसने कागज मुझे सौंप दिए।
इस अनुभव के बाद मुझे लगा कि मैं अब विदेशी मेहमान से देशी आदमी बन चुका था और अब नए सिरे से एक फैक्ट्री शुरू करने कि लिए पूरी तरह से तैयार था। शायद अब आगे के कामों के लिए
मुझे किसी दलाल की जरूरत भी न पड़े।