जब तक ये पत्र तुम्हारे हाथ में होगा, मैं अर्पणा और खुशबू को लेकर जा चुका होऊंगा, एक नए शहर में। सच पूछो तो ये ट्रांसफर मैंने जानबूझकर और ज़िद कर के लिया था वर्ना मेरा सबकुछ ठीक चल रहा था ऑफिस में। बल्कि वहीं पर तरक्की होकर ब्रांच-मेनेजर बनने के आसार भी काफी स्पष्ट दिख रहे थे। इसकी वजह ये थी कि मैं तुमसे दूर होना चाहता था। क्योंकि अगर मैं उसी शहर में रहता तुम्हारे पास, तो वो सब हो जाता जो अंतत: मैं नहीं होने देना चाहता था।
सात-आठ महीने पहले जब अर्पणा बीमार होकर बिस्तर पर पड़ गयी थी और बाबूजी ने तुम्हें उसकी तीमारदारी करने के लिए हमारे घर भेज दिया था तब हमारे साथ-साथ अर्पणा की सेवा करते-करते कब इतने अतरंग सम्बन्ध बन गए, भावनाओं के भंवर में इसका ठीक से अहसास ही नहीं हो पाया।
इससे पहले मैं तुम्हें बच्चा ही समझता था और शायद उसी तरह से व्यवहार भी करता था। पर जब उस बार तुम हमारे यहां आईं और अर्पणा की देखभाल के लिए हमें एक टीम की तरह काम करना पड़ा तो मुझे पता लगा कि जिसे मैं बच्ची समझता हूँ वह असल में वयस्क है। फिर अर्पणा दो महीनों के लिए कोमा में चली गयी और हमारे और तुम्हारे पास सिर्फ इंतज़ार करने के और कोई काम न था। समय बिताने के लिए हमने कितनी ही तरह की बातों पर बतियाना शुरू कर दिया और फिर स्त्री-पुरुष के संबंधों को लेकर हमारी हल्की-फुल्की तकरार शुरू हो गयी। यौवन की दहलीज पर खड़ी तुम्हारी कई स्वाभाविक उत्सुकताओं, मान्यताओं और धारणाओं के मकड़जाल को खोलते-खोलते कब मैं तुम्हारे आकर्षण में कैद हो गया पता ही न चला।
फिर जाने-अनजाने भावनाओं और आवेग की लहरें समझदारी और विवेक को बहा कर ले गयी। तुम तो नादान थी पर मुझे अब अपनी हरकतों पर अपराधबोध होता है। न मैं खुद संभल सका, न ही तुम्हें संभलने का मौका दिया। मुझे नहीं मालूम तुम उस समय मेरे बारे में क्या सोचती थी (और न ही अब जानना चाहता हूँ) पर मेरे दिलो-दिमाग पर तुम हावी थी। ऑफिस से अक्सर मैं कोई बहाना बना कर घर आ जाता और तुम्हारे साथ वक्त बिताने का कोई मौका नहीं छोड़ता। इन सब में बिचारी खुशबू भी उपेक्षित होने लगी थी पर मेरा ध्यान तो कहीं और था। तुम्हारी बातों से तुम्हारी पसंद और नापसंद जान कर मैं तुम्हें खुश करने के लिए न जाने कितने प्रपंच करता, इसका अहसास तुम्हें शायद कभी न हो पायेगा। ऐसा करते समय अगर कोई साथी या रिश्तेदार मुझसे उलझता तो में उससे भिड़/चिढ़ जाया करता था।
मैं ऑफिस में होऊॅं या गाड़ी में तुम्हारा भोला चेहरा मेरी नज़रों में घूमता रहता। एक नशे में रहता था मैं हर वक्त। पास आने पर तुम्हें स्पर्श करने के बहाने ढूंढता था और ऐसा मौका मिलने पर इस अवस्था को देर तक साधने का अथक प्रयास करता था। ये सब कुछ परदे के पीछे से होता था ऊपर से दिखावा तो कुछ और ही चलता था। जब कभी तुम मुझे सांत्वना देने के लिए स्वाभाविक रूप से स्पर्श करती तो मैं इस स्पर्श में डूब सा जाता था और एक अलग ही दुनिया में पहुँच जाता था।
दो महीने बाद जब अर्पणाकोमा से बाहर आयी तो धीरे-धीरे मुझे भी होश आया। लगने लगा उसका हक़ छीन कर किसी और को देने का अपराध कर बैठा हूँ, जाने-अनजाने में। शायद हमारे इस गुप्त रिश्ते की खबर किसी और को कभी नहीं होगी। अगर कभी किसी को कुछ पता भी लगा तो हमारे समाज की बनावट और उसमें मेरी स्थिति ऐसी ही है कि मुझे माफ़ कर दिया जायेगा। पर शायद मैं अपने आप को कभी माफ़ कर भी पाऊंगा या नहीं, इस अघोषित प्रेम प्रसंग के लिए?
इस पत्र को मैंने अपने कम्प्यूटर पर लिख तो लिया है पर क्या मैं इसे कभी तुम्हें मेल करने का साहस
कर पाऊंगा? लगता है इसे बदले हुए नामों के साथ एक कहानी का रूप देकर प्रकाशित कर लूँगा तो मुझे कुछ हद तक सुकून मिल जायेगा।
…………………तुम्हारा जीजू