टेलीविजन पर शंकराचार्य और मंडन मिश्र के शास्त्रार्थ का प्रसंग चल रहा था। जीत और हार के लिए जो मानक निर्धारित किए गए थे मुझे उस समय वह बड़े हास्यास्पद लग रहे थे। दोनों के गले में फूलों की एक-एक माला थी और जिस की माला मुरझा जाएगी उसी को हारा हुआ माना जाएगा। मैंने इस बेहूदा बकवास से भरे चैनल को बदलते हुए मजाकिया स्वर में संजय को बोला, “यह पोंगा-पंडित लोग भी कितनी दूर दूर की हांकते हैं। प्रवचन में बाबा जी समझा रहे हैं कि गले की माला अगर सूख जाएगी तो आदमी वाद-विवाद में हारा माना जाएगा। कितना अवैज्ञानिक तरीका है यह काम करने का।
कैसे लोग इस बकवास पर विश्वास कर लेते हैं?”
संजय यूं तो उम्र में मुझसे दो-तीन साल बड़ा था, पर हम लोग बचपन के मित्र थे और एक ही कॉलेज में पढ़े थे। हमारे घर भी आसपास थे। मैंने इंजीनियरिंग की पढ़ाई पूरी कर के भारतीय सेना की नौकरी को चुना जबकि संजय ने अपनी मेडिकल की पढ़ाई करके सेना में अपना कैरियर बनाने की सोची।
आजकल हम एक ही जगह पर पोस्टेड थे और शाम को एक साथ बैठकर ड्रिंक करते थे और इस दौरान दुनिया-जहान की बातें करते थे। हमारी बातों का विषय कुछ भी हो जाया करता था- पॉलिटिक्स, फिल्म, आर्मी, घर और यहां तक की व्यक्तिगत बातें भी। इसको हम एंजॉय करते थे।
मेरी बात को संजय ने हल्के में नहीं लिया, बल्कि गंभीर होते हुए बोला,“मेरे भाई यह बात बिल्कुल वैज्ञानिक है।”
संजय के मुंह से जो, खुद एक डॉक्टर था, ऐसी बात सुनकर मुझे बड़ा अजीब सा लगा।
मैंने पूछा, “यह वैज्ञानिक कैसे हो सकता है? भला फूलों के मुरझाने से किसी के ज्ञान का क्या संबंध हो सकता है?”
संजय ने सीधा जवाब ना देते हुए मुझसे एक प्रश्न कर लिया, “बताओ किसी को बुखार क्यों होता है, और यह क्या दर्शाता है?”
मैंने कहा, “बुखार तो बीमारी की एक दशा है, और यह कई तरह का हो सकता है जैसे निमोनिया, टाइफाइड, वायरल-फीवर और आजकल करोना।”
संजय समझाते हुए बोला, “देखो हमारा शरीर एक बड़ी जटिल पर आश्चर्यजनक मशीन की तरह से है, और यह एक व्यवस्था पर काम करता है जिसको वैज्ञानिक ढंग से समझा जा सकता है। शरीर अपना तापमान एक निर्धारित तापमान (98.60 C) को बनाये रखता है पर जब शरीर में कुछ ठीक नहीं होता यानि कोई बीमारी की अवस्था बन जाती है तो इसका तापमान बढ़ जाता है। बुखार अपने आप में बीमारी नहीं, यह तो बीमारी का एक संकेत मात्र है। असली बीमारी कुछ भी हो, पर जैसे ही किसी के शरीर का तापमान बढ़ जाता है, डॉक्टर बिना कहे ही समझ जाता है कि कुछ तो समस्या है। अब आगे की उपचार की विधि तरह-तरह के टेस्ट करने के बाद तय करता है। और यह बात सिर्फ शारीरिक बीमारियों पर ही लागू नहीं होती बल्कि मानसिक अवस्था के ऊपर भी उतनी ही प्रभावी रहती है बल्कि देखा जाए तो अधिकतर बीमारियां पहले मानसिक रूप से ही जन्म लेती है।
“ये सब तो ठीक है पर शरीर के तापमान बढ़ने से कोई शास्त्रार्थ में हार कैसे सकता है?”, मैंने पूछा। इस पर संजय बोला, “आजकल करोना के चलते हर जगह पर शरीर का तापमान नापा जा रहा है और जैसे ही किसी का तापमान सामान्य से ज्यादा होता है उसे अंदर जाने की अनुमति नहीं दी जाती। इसके पीछे सोच यह होती है कि बढ़ा हुआ तापमान करोना की सम्भावनाये दर्शाता है और कोई भी इससे संक्रमण फ़ैलाने का खतरा मोल नहीं लेना चाहता। भले ही बाद में यह साबित हो सकता है कि उस व्यक्ति को करोना नहीं हो और ये भी हो सकता है कि जिन व्यक्तियों को बुखार न हो वे भी करोना से पीड़ित हों। पर हम लोग सटीक जानकारी न होने पर संभावनाओं पर ही फैसले करते हैं।
हमारे ऋषि मुनि हजारों साल पहले इस सत्य को जानते थे और उन्होंने इसी पर आधारित यह प्रणाली निकली जो आज के परिपेक्ष में तो देखने में बेहद सरल और मूर्खतापूर्ण लगती है, वास्तव में इसके पीछे एक विशेष सोच थी। वाद-विवाद में जब किसी भी एक व्यक्ति को अपनी बात कहने के लिए तर्कपूर्ण और असरदार बिंदु (पॉइंट) नहीं मिलेंगे
तो उसके सामने दो ही विकल्प रह जाते हैं या तो वह मान ले कि वह इस बारे में कुछ नहीं जानता और इस तरह अपनी हार स्वीकार कर ले अथवा इस पर चिढ़ जाए या क्रोधित हो जाए। पर इस क्रोध की अवस्था, जो कि एक तरह की बीमारी है, इसमें जाते ही शरीर का तापमान बढ़ जाता है, जैसा कि किसी भी बीमारी की स्थिति में अक्सर होता है। इस तापमान के बढ़ते ही ताजे फूलों की माला मुरझाने लगेगी और इस तरह से बिना कुछ भी बताये पता लग जाता है कि यह व्यक्ति क्रोध की अवस्था में है। इस तरह क्रोध या चिढ़ के ना आने पर ही स्वस्थ वाद-विवाद माना जाता था और इस अवस्था में पहुंचने पर तर्क सही होने पर भी प्रतियोगी को अयोग्य घोषित किया जाता था। धीरे-धीरे यह परंपरा बन गई और दर्शक लोग जो कि शास्त्रार्थ का तकनीकी ज्ञान नहीं रखते थे वह भी इस छोटी सी विधि से हार
जीत को देख सकते थे और इसमें बेईमानी की कोई गुंजाइश भी नहीं है।”
मैंने कुछ-कुछ समझते हुए कहा, “ चलो मान लेते हैं, पर शरीर के तापमान से फूल कैसे मुरझा सकते हैं?”
इस पर संजय मुस्कुराते हुए बोला,“ हमारे देश के प्रसिद्द वैज्ञानिक जगदीश चंद्र बोस और पश्चिम में हुए कई प्रयोगों से ये साबित हुआ है कि पेड़ पौधों और फूलों में भी इंसान जैसी ही संवेदनाएं होती है जिसका असर उन पर स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है। ये समझो जिस तरह से हम आर्मी में स्निफर डॉग के जरिये बारूद का पता जान लेते है जिसे हमारी आंख या नाक आसानी से पहचान नहीं पाती उसी तरह उस समय शायद यह तकनीक प्रयोग में लाई जाती थी और शायद इसके लिए कुछ विशेष प्रकार के अधिक संवेदनशील फूलों का उपयोग भी किया जाता रहा होगा। हमें यह भी ध्यान रखना होगा कि हज़ारों साल पहले थर्मामीटर जैसी मशीने नहीं थीं जिनसे तापमान मापा जा सके।”
विस्की का एक पेग और बनाते हुए मैंने एक सवाल और दाग दिया, क्योंकि मुझे भी अपनी नोक-झोक में मज़ा आने लगा था, “ क्रोध से शरीर का तापमान बढ़ जाय, यह कोई तर्क संगत बात नहीं लगती?” संजय ने उत्तर दिया, “ ऐसी बात नहीं है। तुमने शायद ‘माइंड वेव’ के बारे में पढ़ा हो और ये भी जाना होगा कि क्रोध और तनाव की स्तिथि में इसकी फ्रिक्वेंसी बढ़ जाती है। हो सकता है उस समय कुछ विशेष प्रकार के फूल हों