‘……. यात्री गण कृपया ध्यान दें ,छत्रपति शिवाजी टर्मिनल को जानेवाली पुष्कर एक्सप्रेस अपने निर्धारित समय से चालीस मिनट की देरी से चल रही है। आपको हुई असुविधा के लिए हमें खेद है।’ इस एनाउंसमेंट को सुनकरसुदीप ने प्लेटफोर्म पर खाली बेंच तलाशना शुरू कर दिया। जल्दी ही एक मोटे सरदारजी अपनी जगह खाली करते उसकी नजर में आये और इससे पहले कि कोई और उस खाली जगह को भर देता सुदीप ने लपक कर उस पर अपना
अधिकार जमा लिया।
प्लेटफोर्म पर हमेशा की तरह आपाधापी और शोर था। पर बाहर के शोर से कहीं ज्यादा सुदीप के दिमाग में आवाजें और हलचल थी। और वो उनमें गुम होता चला गया। एक कनफर्म टिकट पाने के लिए उसने क्या कुछ नहीं किया पिछले दो दिनों में, पर हर जगह से निराशा ही हाथ आयी। अभी ‘करंट रिसर्वेशन’ और कल ‘तत्काल रिसर्वेशन’ के काउन्टर पर कितना इंतज़ार और धक्कामुक्की को सहन करना पड़ा, पर सब बेकार। क्या गुप्ताजी के जानने वाले एजेंट को ८०० रुपये देकर टिकट बनवाना ठीक रहता? पर ८०० रूपये!! अगर ट्रेन में चढने से पहले ही उसके पास मौजूदा कुल रकम ५००० रूपये में से ये ८०० रूपये कम हो जाते तो ३ दिन का ये ट्रिप वो झेल पाता? आगे भी ना जाने और क्या क्या खर्चे होने है ।शायद ट्रेन आने पर उसका भाग्य साथ दे जाये और एक बर्थ का जुगाड़ हो जाये! नहीं तो फिर जनरल डिब्बे में सफर करना होगा जो किसी महाभारत से कम नहीं। और इसके बाद शायद वो इंटरव्यूदेने के काबिल ही ना बचे जिसके लिए वो जा रहा था मुंबई।
८ सालों बाद उसका मुंबई जाना हो रहा था। कितना बदल गया होगा वो बड़ा शहर? क्या यह नौकरी हासिल कर वह इस स्वप्न नगरी में फिर से रह पायेगा? लखनऊ में भी जिंदगी कट रही थी पर मुंबई सा मजा कहाँ! और फिर पिछले ४ महीने की बेराजगारी नें तो उसे लगभग तोड़ ही डाला था। जो थोड़ी से जमापूंजी बचा कर रखी थी वो कितनी जल्दी उड़न छू हो गयी। अब तो घर के जेवर गिरवी रख कर गोल्ड लोन लेने की नौबत आती जा रही थी। ये इंटरवियू एक ‘करो यो मरो’ जैसा मौका था जिसे खोना वो नहीं चाहता था किसी भी कीमत पर। और ये पुष्पक एक्सप्रेस आखिरी ट्रेन थी अगर उसे समय से मुंबई पहुँचना है तो। पर हर ट्रेन में इतनी सारी भीड़ देख कर वो घबरा सा गया था। आखिर इतने सारे लोग क्यूँ और कहाँ भागते रहते है ? क्या इन्हें अपने घरों में आराम नहीं मिलता? किसी भी ढंग की ट्रेन
में हफ्ते –दस दिन पहले भी चाहो तो रिसर्वेशन नहीं मिलता कभी। इन्टरनेट से ऑन-लाइन रिसर्वेशन की सुविधा का फायदा भी पता नहीं किन लोगों को मिल रहा है? उसके हालात तो पहले जैसे ही है। जब भी रिसर्वेशन की जरूरत होती है उसे परेशानी का ही सामना करना होता है। अब आदमी डेढ़ दो महीने पहले से तो हर चीज़ प्लान नहीं कर सकता। अक्सर यात्रा जरूरत के वक्त ही करनी होती है, घूमने और सिर सपाटे के लिए तो कई सालों में ही निकलना हो पाता है। और जरूरत कभी भी पहले से बता कर नहीं आती।
ख्यालों की इसी उधेड़-बुन में वह और भी खोया रहता अगर प्लेटफोर्म पर अचानक हलचल ना बढ जाती। प्लेटफॉर्म पर मौजूद कुली, सामान बेचने वाले और यात्री जो अपनी अपनी दुनिया में मशगूल थे अचानक बेचैन हो गए और पटरियों की तरफ झांकने लगे। लगता है उसने अपने ख्यालों में डूब कर ऐनाउन्समेंट भी अनसुना कर दिया होगा और अब ट्रेन आने ही वाली है।
और अगले दो तीन मिनटों के भीतर आखिर ट्रेन प्लेटफॉर्म पर लग ही गयी। उसकी बेचैन निगाहों ने तेजी से सारे डिब्बों के हालात का जायजा लिया। ऑफिस के काम के सिलसिले में अक्सर वह ऑडिटर को छोडने इसी ट्रेन पर आया करता था और उसे मालूम था कि लखनऊ कोटा किस किस डिब्बे में और कौन कौन सी बर्थ पर था। उसे ये
भांपते देर ना लगी कि लखनऊ कोटे की सारी सीटें भरी नहीं थी और अगर टीटी चाहे तो एक सीट आराम से मिल सकती है।
अब उसकी नज़र इस डिब्बे के पास काले कोटधारी टीटी को तलाशने में लगी थी। जल्दी ही उसे इस काम में सफलता भी मिल गयी। हाथ में रिसर्वेशन चार्ट लिए दुबले पतले टीटी की भीड़ में झलक पाते ही वो उसकी तरफ लपक लिया। ‘सर, मुंबई के लिए एक बर्थ मिल जायेगी ?’ उसने हांफते हुए टीटी के साथ साथ चलते हुए पूंछा। सूखे हुए गले से शब्द इस तरह निकल रहे थे मानो कोई बकरी मिमिया रही हो। ‘कोई जगह नहीं है’ ,बेरुखी से कहता हुआ वह एक टी-स्टाल के पास खड़ा हो गया।
कुछ दूर पर उसने एक ग्रुप के लोगों को बतियाते सुना, ‘टीटी को देखो और बर्थ का जुगाड़ कर लो’। उसे लगा कि उसकी जगह शायद ये लोग बर्थ जुगाडने में कामयाब हो जायेंगे। पहनावे से तो पैसे वाले और बातचीत से तेज तर्रार लग रहे थे। उसने चट पट ५०० रूपये का एक मुड़ा नोट जो पहले से ही अलग पॉकेट में इस काम के लिए रखा हुआ था निकाल कर हथेली में रख लिया और हाथों को टीटी की तरफ याचना भरे अंदाज में घुमाते हुए बोला, ‘सर,कुछ हो सकता है क्या,जरूरी काम से जाना है’। महात्मा गांधी की फोटो वाले इस छोटे से कागज के जादुई टुकड़े ने अपना चमत्कार आखिर दिखा ही दिया। ‘जाओ बीस नंबर की बर्थ पर चले जाओ’ ,टीटी के चेहरे से बेरुखी अब गायब हो चुकी थी। हरे रंग का नोट सुदीप की जेब से निकल कर टीटी की जेब में अपनी जगह बना चुका था।
बीस नंबर की सीट पर थका हुआ सुदीप घोड़े बेच कर सोया। अगले दिन सुबह शोर सुन कर उसकी आंख खुली। ट्रेन रुकी हुयी थी और कोई स्टेशन भी नहीं था। ‘भ्रष्टाचार मिटाओ’ का बैनर लेकर भीड़ का एक रेला उसे तेजी से एक ओर जाता दिखा। ‘रोज रोज के इस बंद और नारेबाजी से आम आदमी को तो परेशानी ही होती है ,बाकी किसको क्या
मिलता है ,भगवान ही जाने’, अगली सीट पर बैठे बुजुर्ग ने चिड़चिड़ा कर कहा। खिडकी के पास वाली सीट पर बैठे लडके के हाथ में अखबार था जिस पर ‘२० मार्च को जनमोर्चा द्वारा मुंबई बंद – रेल,बस रोकने की तैयारी...’ इतना
सुदीप पढ़ सका।
पास बैठे नोजवान ने रिश्वतखोरी पर बहस का आगाज़ कर दिया जिसमें धीरे धीरे टाइम पास के लिए सब शामिल होने लगे। सुदीप भी ना चाहते हुए उनमें शामिल हो गया। रेलवे में भ्रष्टाचार पर उसने अपनी भड़ास निकली ,शायद इससे उन ५०० रुपयों के बिछडने का गम हल्का होता नज़र आया। रेल फिर चल पडी थी पर मंजिल से अभी दूर थी।