“क्या दुविधा है?”
राजयोगी ने दूधेश्वर से पूंछा, जो अपने चहरे पर उलझन के भाव लिए हुआ था। उसे समझ में नहीं आ रहा था कि कैसे वह अपनी बात शुरू करे। वह अपनी बात की भूमिका बनाने का भरसक प्रयास कर रहा था। उसका पूरा नाम दूधेश्वर प्रसाद पुंडीर था पर अपने लोगों के बीच में वह डीपी के नाम से जाना जाता था। उसके पूर्वज सौ साल पहले जम्बूरा
देश में भारत से आये थे और वहां चावल की खेती करने लगे थे। जम्बूरा अशांत सागर में एक छोटा सा द्वीप था जो पहले अंग्रेजी उपनिषदवाद का एक हिस्सा था और भारत को आजादी मिलने के दस साल बाद उसे भी स्वतंत्रता मिली थी। यहाँ स्थानीय लोगों के अलावा एक बड़ा तबका भारतीय प्रवासियों का था।
दूधेश्वर के पिता ने अपनी जमीन बेच कर चावल निर्यात करने का व्यवसाय अपना लिया था और खूब पैसा कमाया था। दूधेश्वर को इसमें कोई दिलचस्पी नहीं थी और राजयोगी के व्यक्तित्व से प्रभावित होकर उसने राजनीति को अपना लिया था। वहां राष्ट्रीय स्तर की दो ही पार्टियां थी - टोया और बोया । स्थानीय भाषा में टोया का अर्थ होता है 'बंद'। यह एक रूढ़ीवादी पार्टी थी जो अक्सर संस्कारों की दुहाई देती थी। दूधेश्वर और राजयोगी इसी पार्टी में थे । दूसरी तरफ बोया एक उदारवादी पार्टी थी जिसमें बुद्धिजीवी और समाजसुधारकों का वर्चस्व था। लम्बे समय से टोया पार्टी वहां शासन करती आयी थी पर इस बार स्थिति कुछ अलग थी। इस बार दोनों पार्टियों को बराबर सीट मिली थीं और सरकार बनाने की कयावद दोनों तरफ से तेज थी।
बोया पार्टी के सचिव दूधेश्वर के पास मंत्री पद का प्रस्ताव लेकर आये थे, अगर वह उनकी पार्टी में आ जाता तो। दूधेश्वर के लिए ये एक लुभावना प्रस्ताव था। उसकी पार्टी में उसके काम की सराहना तो होती थी पर उसे एक सांसद से अधिक कोई पद या जिम्मेदारी अभी तक नहीं मिली थी। वह इसका कारण अपना चापलूसी स्वभाव का न होने को मानता था। पर मंत्री पद हमेशा से उसकी ख्वाहिश रही थी और आज इसका अवसर उसके सामने आ गया था । पर क्या वह अपनी ही पार्टी से गद्दारी करके इसकी कीमत अदा कर सकता था? यही दुविधा उसके दिमाग को मथ रही थी और इसके निवारण के लिए वह अपने गुरु राजयोगी जी के पास आया था।
दूधेश्वर अपनी उधेड़बुन में व्यस्त था और राजयोगी उसके कुछ भी उत्तर न दे सकने के बाद भी उसकी उलझन समझ चुके थे। वो राजनीती के कुशल खिलाडी थे और जम्बूरा के हालातों पर उनकी पकड़ बहुत अच्छी थी। 'बड़ा फैसला लेने से डर रहे हो?' राजयोगी ने मुस्कुराते हुए पूंछा ।
'आपने तो मेरा मन पढ़ ही लिया है, फिर भी आप पूंछ रहे हैं तो बताता हूँ कि बोया पार्टी से दल-बदल के एवज में मंत्री पद का प्रस्ताव आया है जिसपर मैं फैसला नहीं ले पा रहा हूँ।”, दूधेश्वर ने झिझकते हुए कहा।
राजयोगी एक गुरु की तरह समझते हुए बोले, 'देखो तुम्हारे सामने बस दो ही विकल्प हैं -या तो उनका प्रस्ताव स्वीकार कर लो या अस्वीकार कर दो । चलो एक-एक करके इन दोनों विकल्पों पर विचार करते है।”
' अगर तुम यथा स्थिति बनाये रखते हुए उनका प्रस्ताव अस्वीकृत कर देते हो तो ये एक सुरक्षित विकल्प होगा। चाहे जो भी पार्टी सत्ता में आये , तुम्हारी स्थिति नहीं बदलेगी , बल्कि अपनी पार्टी में तुम्हारा सम्मान बढ़ेगा ही। पर तुम्हारे मन में ये कसक हमेशा बनी रहेगी कि तुमने एक अच्छे अवसर का लाभ नहीं उठाया। अगर बोया पार्टी सत्ता में आ जाती है तो शायद तुम्हें पछतावा भी हो।
' लेकिन अगर तुम उनके प्रस्ताव को स्वीकार करते हो तो तुम मंत्री पद के बेहद करीब होंगे जो तुम्हारी मनोकामना है ।'
'पर क्या ये अपनी पार्टी के विश्वासघात नहीं होगा?', दूधेश्वर ने संदेहपूर्ण दृष्टि से पूछा।
'क्या तुमने जीवन पर्यन्त इस पार्टी से बंधे रहने का कोई प्रण किया है?'
'नहीं तो।'
' फिर इस कठिन फैसले पर शांत मन से विचार करने का प्रयास करो। तुम्हारी दुविधा मैं समझता हूँ पर तुम अकेले नहीं हो जो इस तरह की स्थिति से गुजर रहे हो। हर लड़की जिसकी शादी हो रही होती है ,उसे इस तरह की दुविधा से गुजरना ही होता है। जिस घर-परिवार में वह पली-बड़ी होती है वह एक नए बंधन की घटना में एकदम से पराया हो जाता है। यह जरूरी नहीं कि नया रिश्ता पहले से बेहतर ही साबित हो ,पर यह जोखिम उसे लेना ही होता है। कुछ इस तरह की स्थिति एक कर्मचारी की होती है जिसके पास किसी नयी नौकरी का प्रस्ताव आता है।'
'आपकी बात तो ठीक है, पर मैं अपराध बोध से मुक्त नहीं हो पा रहा हूँ।”, दूधेश्वर ने गंभीरता से कहा।
इस पर राजयोगी कुछ सोचते हुए बोले, मैं तुम्हें एक यूनानी राजा ईडिपस की कहानी सुनाता हूँ ,जिससे तुम्हें अपनी इस स्थिति से उबरने में मदद मिलेगी।'
'जी, गुरूजी'
'हज़ारों साल पहले यूनान में एक राजा था जिसकी संतान के पैदा होने पर ज्योतिषियों ने बताया कि यह बालक बड़ा होकर अपनी ही माँ क़े साथ सम्भोग करेगा। घबराकर राजा ने अपने सेवक को आदेश दिया कि बालक को जंगल में ले जाकर उसकी हत्या कर दी जाय। पर सेवक से यह दुष्कर्म न हुआ और उसने बालक को जंगल में ले जाकर छोड़ दिया जो किसी तरह से जीवित बच गया।
कई वर्ष बीत जाने पर उस राजा की मृत्यु हो गयी । क्योंकि उसके कोई संतान नहीं थी अत: ज्योतिषियों ने एक शुभ मुहूर्त में एक विशेष दिशा से उस राज्य की सीमा में आने वाले व्यक्ति को राज्य का नया राजा बनाने का फरमान दिया जो उस समय की परम्पराओं कि अनुरूप था। पर विधि का विधान देखिये कि यह व्यक्ति कोई और नहीं बल्कि उस राजा का अपना ही वह बेटा था जिसकी उसने अपनी तरफ से हत्या कर दी थी। उसे उस राज्य का राजा बनाया गया और उस समय की परम्पराओं के अनुसार पहले राजा (यानी अपने पिता) की रानी पत्नी के रूप में उपहार में मिली । अब वह अनजाने में अपनी ही माँ के साथ पत्नी जैसा व्यवहार करता रहा। पर एक दिन जब वास्तविकता उसके सामने आयी तो वह आत्मग्लानि से भर गया।
इस कथा की पृष्ठभूमि में मनोचिकित्सक आज भी एक पुत्र के अपनी माँ के प्रति (या एक पुत्री के अपने पिता के प्रति) स्वाभाविक आकर्षण को ‘ईडिपस-ग्रंथि’ का नाम देते हैं। जब भी हम अपने या समाज के बनाये हुए अ-लिखित नियम भंग करते हैं तो हमें इसके दंश से गुजरना होता है, क्योंकि जानवरों की तरह हम उन्मुक्त जीवन नहीं जीते बल्कि सामाजिक और अनुशासित जीवन जीने का प्रयास करते है। आदम और हव्वा की वर्जित फल खाने की कथा को भी इस सन्दर्भ में जोड़ कर देखा जा सकता हैं।”
'पर अगर नियम भंग ही न किये जायँ तो क्या स्थिति बेहतर नहीं होगी?', दूधेश्वर ने प्रश्न किया।
'नियम तो समय और परिस्थिति के अनुसार बनते और बिगड़ते रहते है। ‘सिग्मंड फ्रायड’ को आधुनिक मनोविज्ञान का पितामह कहा जाता है। उसके अनुसार मनुष्य ने पाशविक जीवन से ऊपर उठाने के लिए दो मूल नियम बनाये –‘पहला कि कोई भी अपनी माँ के साथ सम्भोग नहीं करेगा और दूसरा वह अपने ही पिता की हत्या नहीं करेगा।‘ इन नियमों पर ही हमारी संस्कृति की बुनियाद रखी है। पर नियम अपने आप में कोई स्थिर या अचल तत्व नहीं हैं। नियमों कि खूबसूरती ही इस बात से हैं कि रचनात्मक लोग उनपर प्रयोग करके उनमें निरंतर सुधार करते रहते हैं।'
दूधेश्वर का मन अब तक काफी शांत हो गया था।
राजयोगी अपनी बातें आगे बढ़ाते हुए बोले,' अब हम इस बात का विश्लेषण करते हैं कि वर्तमान समय में सत्ता परिवर्तन इस देश के हित में हैं या नहीं?”
“इस देश ने पिछले कई दशकों से टोया पार्टी का मर्यादित और अनुशासित शासन देखा है। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद उत्पन्न अस्थिर हालातों में यह एक वांछित चुनाव था। पर अब हमारा देश संपन्न और आत्मनिर्भर हो आया है और वर्षों के शासन के बाद टोया पार्टी रूढ़िवादी होती जा रही है। इस समय देश को एक प्रगतिवादी और आधुनिक सोच की जरूरत है जिससे हम विश्व में एक सम्मानजनक स्थान पा सकें।”
'गुरूजी, चुनाव प्रचार के दौरान जनता से परिवर्तन की मांग की तीव्र आंधी को तो मैंने भी अनुभव किया था।”, दूधेश्वर बोला।
'जब तुम सब-कुछ समझ ही चुके हो तो देश में हो रही एक महा-घटना का कारण बनो वरना कोई और बाजी मार कर भी ले जा सकता है।' ,उन्होंने कहा।
राजयोगी के समझने से दूधेश्वर के मन से संशय के बादल पूरी तरह हट गए थे। फैसला करने में जरा भी परेशानी नहीं हुयी। अपने फैसले से बोया पार्टी के सचिव को अवगत करने के लिए उसने अपना फोन उठाया ही था कि राजयोगी ने मुस्कुराते हुए उसे रोक लिया और कहा, 'अपने गुरु को साथ नहीं ले जाना चाहोगे, बालक?'
दूधेश्वर चौंक पड़ा। कुछ पलों बाद उसके दिमाग में एक बिजली चमकी और वह भी मुस्कुरा उठा।
बोया पार्टी के सचिव को फोन मिला कर उसने कहा, 'सरजी, मेरे साथ हमारी पार्टी के एक वरिष्ठ मंत्री भी आपकी पार्टी में आना चाहते हैं।
क्या आप उन्हें उप-प्रधानमंत्री का पद दे सकते हैं ?'
'मैं आपको अन्य लोगों से सलाह कर बताता हूँ।', उधर से उत्तर दिया गया।
आधे घंटे बाद उनकी तरफ से इसकी स्वीकृति दे दी गयी।
स्वीकृति मिलते ही दूधेश्वर और राजयोगी एक ही गाड़ी में बोया पार्टी के दफ्तर को रवाना हो पड़े । गाड़ी में गाना चल रहा था, 'दिल भी
साला पार्टी बदले,
कैसा जमाना ,
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आती है क्या खंडाला ?