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चप्पल

20 जुलाई 2022

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कहानी बहुत छोटी सी है मुझे ऑल इण्डिया मेडिकल इंस्टीटयूट की सातवीं मंज़िल पर जाना था। अाई०सी०यू० में गाड़ी पार्क करके चला तो मन बहुत ही दार्शनिक हो उठा था। क़ितना दु:ख और कष्ट है इस दुनिया में...लगातार एक लड़ाई मृत्यु से चल रही है...अौर उसके दु:ख और कष्ट को सहते हुए लोग -- सब एक से हैं। दर्द और यातना तो दर्द और यातना ही है -- इसमें इंसान और इंसान के बीच भेद नहीं किया जा सकता। दुनिया में हर माँ के दूध का रंग एक है। ख़ून और आंसुओं का रंग भी एक है। दूध, खून और आँसुओं का रंग नहीं बदला जा सकता...शायद उसी तरह दु:ख़, कष्ट और यातना के रंगों का भी बँटवारा नहीं किया जा सकता। इस विराट मानवीय दर्शन से मुझे राहत मिली थी.... मेरे भीतर से सदियाँ बोलने लगी थीं। एक पुरानी सभ्यता का वारिस होने के नाते यह मानसिक सुविधा ज़रूर है कि तुम हर बात, घटना या दुर्घटना का कोई दार्शनिक उत्तर खोज सकते हो। समाधान चाहे न मिले, पर एक अमूर्त दार्शनिक उत्तर ज़रूर मिल जाता है।

और फिर पुरानी सभ्यताओं की यह खूबी भी है कि उनकी परम्परा से चली आती संतानों को एक आत्मा नाम की अमूर्त शक्ति भी मिल गई है -- और सदियों पुरानी सभ्यता मनुष्य के क्षुद्र विकारों का शमन करती रहती है...एक दार्शनिक दृष्टि से जीवन की क्षण-भंगुरता का एहसास कराते हुए सारी विषमताओं को समतल करती रहती है...

मुझे अपने उस मित्र की बातें याद आईं जिसने मुझे संध्या के संगीन ऑपरेशन की बात बताई थी ओर उसे देख आने की सलाह दी थी। उसी ने मुझे आई०सी०यू० में संध्या के केबिन का पता बताया था -- आठवें फ्लोर पर ऑपरेशन थिएटर्स हैं और सातवें पर संध्या का आ०सी०यू०। मेजर ऑपेरशन में संध्या की बड़ी आँत काटकर निकाल दी गई थी और अगले अड़तालीस घण्टे क्रिटिकल थे...

रास्ता इमरजेंसी वार्ड से जाता था। एक बेहद दर्द भरी चीख़ इमरजेंसी वार्ड से आ रही थी... वह दर्द-भरी चीख़ तो दर्द-भरी चीख़ ही थी-- कोई घायल मरीज असह्य तकलीफ़ से चीख़ रहा था। उस चीख़ से आत्मा दहल रही थी... दर्द की चीख़ और दर्द की चीख़ में क्या अन्तर था! दूध, ख़ून और आँसुओं के रंगों की तरह चीख़ की तकलीफ़ भी तो एक-सी थी। उसमें विषमता कहाँ थी?...

मेरा वह मित्र जिसने मुझे संध्या को देख आने की फ़र्ज अदायगी के लिए भेजा था,वह भी इलाहाबाद का ही था। वह भी उसी सदियों पुरानी सभ्यता का वारिस था। ठेठ इलाहाबादी मौज में वह भी दार्शनिक की तरह बोला था-- अपना क्या है ? रिटायर हाने के बाद गंगा किनारे एक झोपड़ी डाल लेंगे। आठ-दस ताड़ के पेड़ लगा लेंगे... मछली मारने की एक बंसी...दो चार मछलियाँ तो दोपहर तक हाथ आएँगी ही... रात भर जो ताड़ी टपकेगी उसे फ्रिज में रख लेंगे...

फ्रिज में ?

और क्या... माडर्न साधू की तरह रहेंगे ! मछलियां तलेंगे, खाएँगे और ताड़ी पीएँगे...और क्या चाहिए... पेंशन मिलती रहेगी। और माया-मोह क्यों पालें? पालेंगे तो प्राण अटके रहेंगे... ताड़ी और मछली... बस, आत्मा ताड़ी पीकर, मछली खाके आराम से महाप्रस्थान करे... न कोई दु:ख, न कोई कष्ट... लेकिन तुम जाके संध्या को देख ज़रूर आना...वो क्रिटिकल है...

मेरा मित्र अपने भविष्य के बारे में कितना निश्चिन्त था, यह देखकर मुझे अच्छा लगा था।

यह बात सोच-सोचकर मुझे अभी तक अच्छा लग रहा था, सिवा उस चीख़ के जो इमरजेंसी वार्ड से अब तक आ रही थी...और मुझे सता रही थी...इसीलिए लिफ्ट के आने में जो देरी लग रही थी वह मुझे खल रही थी।

आखिर लिफ़्ट आयी! सेवन-सात -- मैंने कहा और संध्या के बारे में सोचने लगा। दो-तीन वार्ड बॉय तीसरी और चौथी मंज़िल पर उतर गए।

पाँचवीं मंज़िल पर लिफ़्ट रुकी तो कुछ लोग ऊपर जाने के लिए इन्तज़ार कर रहे थे। इन्हीं लोगों में था वह पाँच साल का बच्चा-- अस्पताल की धारीदार बहुत बड़ी-सी कमीज़ पहने हुए...शायद उसका बाप, वह ज़रूर ही उसका बाप होगा, उसे गोद में उठाए हुए था... उस बच्चे के पैरों में छोटी-छोटी नीली हवाई चप्पलें थी, जो गोद में होने के कारण उसके छोटे-छोटे पैरों में उलझी हुई थीं।

अपने पैरों से गिरती हुई चप्पलों को धीरे से उलझाते हुए बच्चा बोला-- बाबा! चप्पल...।

उसके बाप ने चप्पलें उसके पैरों में ठीक कर दीं। वार्ड बॉय व्हील-चेयर बढ़ाते हुए बोला-- आ जा, इसमें बैठेगा! बच्चा हल्के से हँसा। वार्ड बॉय ने उसे कुर्सी में बैठा दिया... उसे बैठने में कुछ तकलीफ़ हुई पर वह कुर्सी के हत्थे पर अपने नन्हें-नन्हें हाथ पटकता हुआ भी हँसता रहा। दर्द का अहसास तो उसे भी था पर दर्द के कारण का अहसास उसे बिल्कुल नहीं था। वह कुर्सी में ऐसे बैठा था जैसे सिंहासन पर बैठा हो... क़ुर्सी बड़ी थी और वह छोटा। वार्ड बॉय ने कुर्सी को पुश किया। वह लिफ्ट में आ गया। उसके साथ ही उसका बाप भी। उसका बाप उसके सिर पर प्यार से हाथ फेरता रहा।

लिफ़्ट सात पर रूकी, पर मैं नहीं निकला। दो-एक लोग निकल गए। लिफ्ट आठ पर रूकी। यहीं ऑपरेशन थिएटर थे। दरवाज़ा खुला तो एक नर्स जिसके हाथ में सब पर्चे थे, उसे देखते हुए बोली-- आ गया तू!

उस बच्चे ने धीरे से मुस्कराते हुए नर्स से जैसे कहा -- हाँ ! उसकी आँखें नर्स से शर्मा रही थीं और उनमें बचपन की बड़ी मासूम दूधिया चमक थी। व्हील-वेयर एक झटके के साथ लिफ्ट से बाहर गई नर्स ने उसका कंधा हल्के से थपका...।

'बाबा ! चप्पल-- वह तभी बोला-- 'मेरी चप्पल'...

उसकी एक चप्पल लिफ्ट के पास गिर गई थी उसके बाप ने वह चप्पल भी उसे पहना दी। उसने दोनों पैरों की उँगलियों को सिकोड़ा और अपनी चप्पलें पैरों में कस लीं।

लिफ्ट बंद हुई और नीचे उतर गई.।

वार्ड बॉय बच्चे की कुर्सी को पुश करता हुआ ऑपरेशन थिएटर वाले बरामदे में मुड गया। नर्स उसके साथ ही चली गई। उसका बाप धीरे-धीरे उन्हीं के पीछे चला गया।

तब मुझे याद आया कि मुझे तो सातवीं मंज़िल पर जाना था। संध्या वहीं थी। मैं सीढ़ियों से एक मंज़िल उतर आया। संध्या के डॉक्टर पति ने मुझे पहचाना और आगे बढ़कर मुझसे हाथ मिलाया। हाथ की पकड़ में मायूसी और लाचारी थी। क़ुछ पल खामोशी रही। फ़िर मैंने कहा -- मैं कल ही वापस आया तभी पता चला। यह एकाएक कैसे हो गया?

नहीं, एकाएक नहीं, ब्लीडिंग तो पहले भी हुई थी, पर तब कंट्रोल कर ली गई थी। पंद्रह दिनों बाद फिर होने लगी। एक्सेसिव ब्लीडिंग। ...चार घण्टे ऑपरेशन में लगे...एण्ड यू नो, वी डॉक्टर्स आर वर्स्ट पेशेंट्स ! वो संध्या के बारे में भी कह रहे थे। संध्या भी डॉक्टर थी।

यस ! आप तो सब समझ रहे होंगे। संध्या को भी एक-एक बात का अंदाज़ हो रहा होगा ! मैंने कहा .

लेकिन वो बहुत करेजसली बिहेव कर रही है ! संध्या के डॉक्टर पति ने कहा -- बोल तो सकती नहीं...पल्स भी गर्दन के पास मिली... अार्टीफ़िशियल रेस्पटेशन पर है...एक तरह से देखिए तो उसका सारा शरीर आराम कर रहा है और सब कुछ आर्टीफ़िशिल मदद से ही चल रहा है। संध्या के डाक्टर पति ज़्यादातर बातें मुझे मेंडिकल टर्म्स में ही बताते रहे और मैं उन्हें समझने की कोशिश करता रहा। बीच -बीच मैं इधर-उधर की बातें भी करता रहा।

संध्या का भाई भी आज सुबह पहुँच गया...क़िसी तरह उसे जापान होते हुए टिकट मिल गया ! उन्होंने बताया।

यह बहुत अच्छा हुआ। मैंने कहा।

आप देखना चाहेंगे?

हाँ, अगर पॉसिबिल हो तो ...।

आइए, देख तो सकते हैं। भीतर जाने की इजाज़त नहीं है। वैसे तो सब डॉक्टर फ्रेंड्स ही हैं, पर ...।

नहीं-नहीं, वो ठीक भी है...।

वो बोल भी नहीं सकती... वैसे आज कांशस है... क़ुछ कहना होता है तो लिख के बता देती है। उन्होंने कहा और एक केबिन के सामने पहुँचकर इशारा किया।

मैंने शीशे की दीवार से संध्या को देखा। वह पहचान में ही नहीं आई। दो डॉक्टर और नर्स उसे अटैण्ड भी कर रहे थे... अौर फिर इतनी नलियाँ और मशीनें थीं कि उनके बीच संध्या को पहचानना मुश्किल भी था।

संध्या होश में थी। डॉक्टर को देख रही थी। डॉक्टर उसका एक हाथ सहलाते हुए उसे कुछ बता रहा था। मैंने संध्या को इस हाल में देखा तो मन उदास हो गया। वह कितनी लाचार थी। बीमारी और समय के सामने आदमी लाचार होता है...क़ुछ कर नहीं पाता। मैंने मन ही मन संध्या के लिए प्रार्थना की, किससे की यह नहीं मालूम -- -ऐसी जगहों पर आकर भगवान पर ध्यान जाता भी है और किसी के शुभ के लिए उसके अस्तित्व को स्वीकार कर लेने में अपना कुछ नहीं जाता -- सिवा प्रार्थना के कुछ शब्दों के।

हम आई०सी०यू० से हटकर फिर बरामदे में आ गए। वहाँ बैठने के लिए कोई जगह नहीं थी। बरामदे बैठने के लिए बनाए भी नहीं गए थे। संध्या या डॉक्टर की बहन नीचे चादर बिछाए बैठी थी ड़ॉक्टर के कुछ दोस्त एक गुच्छे में खड़े थे।

अभी तो, बाद में, एक ऑपरेशन और होगा। संध्या के डॉक्टर पति ने बताया -- तब छोटी आँत को सिस्टम से जोड़ा जाएगा। ख़ैर, पहले वो स्टेबलाइज़ करे, फिर रिकवरी का सवाल है...इसमें ही क़रीब तीन महीने लग जाएँगे...उसके बाद मैं सोचता हूँ  उसे अमेरिका ले जाऊँगा !

यह ठीक रहेगा !

इसके बाद हम फिर इधर-उधर की बातें करते रहे। मैं संध्या की संगीन हालत से उनका ध्यान भी हटाना चाहता था। इसके सिवा मैं और कर भी क्या सकता था। और डॉक्टर के सामने यों खामोश खड़े रहना अच्छा भी नहीं लग रहा था।

यह जताते हुए कि अस्पताल वालों से छुपाकर मैं सिगरेट पीना चाहता हूँ -- मैं खिड़की के पास जाकर खड़ा हो गया। बाहर लू चल रही थी। नीचे धरातल पर कुछ लोग आ-जा रहे थे। वे ऊपर से बहुत लाचार और बेचारे लग रहे थे। और मेरे मन से सबके शुभ के लिए सद्भावना की नदियाँ फूट रही थीं...एेसे में तुम सोचो -- लगता है मनुष्य ने मनुष्य के साथ तो सघन और उदात्त सम्बन्ध बना लिए हैं, पर ईश्वर के साथ वह ऐसा नहीं कर पाया है। मनुष्य अपने ईश्वर के दु:ख-सुख में शामिल नहीं हो सकता। ईश्वर से उसका सम्बन्ध सिर्फ दाता और पाता का है। वह देता है और मनुष्य पाता है। क़ितना इकतरफा रिश्ता है यह...अौर फिर अगर तुम यह भी मान लो कि ईश्वर ही मनुष्य को बनाता है तो ईश्वर की क्षमता पर विश्वास घटने लगता है -- सृष्टि के आदि से वह मनुष्य को बनाता आ रहा है परंतु असंख्य प्राणियों को बनाने के बावजूद वह आज तक एक सहज सम्पूर्ण और मुकम्मिल मनुष्य नहीं बना पाया। क़ुछ कमी कहीं तो ईश्वर की व्यवस्था में भी है.. हो सकता है उनका आदि -कलाकार कुम्भकार उन्हें मिट्टी सप्लाई करने में कुछ घपला कर रहा हो। ...इस रहस्य का पता कौन लगाएगा? रहस्य ही रहस्य को जन्म देता है। शायद इसीलिए मनुष्य ने ईश्वर को रहस्य ही रहने दिया...जो सत्ता या शक्ति विश्वास के निकष पर खरी न उतरे, उसे रहस्य बना देना ही बेहतर है...अौर किया भी क्या जा सकता है...।

लू के एक थपेड़े ने मेरा मुँह झुलसा दिया। ड़ॉक्टर अपने चिन्ताग्रस्त शुभचिन्तकों के गुच्छे में खड़े थे -- और सबके चेहरे कुछ ज़्यादा सतर्क थे।

ब्लडप्रेशर गिर रहा है...

आई०सी०यू० में डॉक्टरों और नर्सो की आमदरफ़्त से लग रहा था कि कोई कठिन परिस्थिति सामने है। क़ुछ देर बाद पता चला कि नीडिल कुछ ढीली हो गई थी...उसे ठीक कर दिया गया है और ब्लडप्रेशर ठीक से रिकॉर्ड हो रहा है...सबने राहत की साँस ली। मौत से लड़ना कोई मामूली काम नहीं है। ईश्वर ने तो मौत पैदा की ही है, पर मौत तो मनुष्य भी पैदा करता है। एक तरफ जीवन के लिए लड़ता है ओर दूसरी तरफ मौत भी बांटता है -- यह द्वंद्व ही तो जीवन है.. यह द्वंद्व और द्वैत ही जीवित रहने की शर्त है और अद्वैत या समानता तक पहुँचने का साधन और आदर्श भी। आध्यात्मिक अद्वैत जब भौतिकता की सतह पर आता है और मनुष्य के प्रश्न सुलझाता है तभी तो वह समवेत समानता का दर्शन कहलाता है...।

सिगरेट से मुँह कड़वा हो गया था। लू वैसे ही थपेड़े मार रही थी। सीमेण्ट के पलस्तर का दहकता-चिलचिलाता तालाब सामने फैला था -- कोई एक आदमी जलते नंगे पैरों से उसे पार कर रहा था।

मैंने पलटते हुए लिफ्ट की तरफ देखा। डॉक्टर मेरा आशय समझ गए थे, लेकिन तभी राजनीतिज्ञ-से उनके कोई दोस्त आ गए थे। शुरू की पूछताछ के बाद वे लगभग भाषण-सा देने लगे -- अब तो अग्नि मिसाइल के बाद भारत दुनिया का सबसे शक्तिशाली तीसरा देश हो गया है और आने वाले दस वर्षो में हमें अब कोई शक्ति महाशक्ति बनने से नहीं रोक सकती। इंग्लैंड और फ्राँस की पूरी जनसंख्या से ज़्यादा बड़ा है आज भारत का मध्यवर्ग... अपनी संपन्न्ता में...भारतीय मध्यवर्ग जैसी शक्ति और संपन्नता उन देशों के मध्यवर्ग के पास भी नहीं है...।

तभी एक चिन्ताग्रस्त नर्स तेज़ी से गुजर गई और सन्नाटा छा गया। चिन्ता के भारी क्षण जब कुछ हल्के हुए तो मैंने फिर लिफ़्ट की तरफ देखा। डॉक्टर साहब समझ गए -- आपको ढाई -तीन घण्टे हो गए...क्या-क्या काम छोड़ के आए होंगे...। अौर वे लिफ़्ट की ओर बढ़े। लिफ़्ट आई, पर वह ऊपर जा रही थी। डॉक्टर साहब को मेरी ख़ातिर रूकना न पड़े, इसलिए मैं लिफ़्ट में घुस गया।

लिफ़्ट आठ पर पहुँची। वहाँ ज्यादा लोग नहीं थे। पर एक स्ट्रेचर था और दो-तीन लोग। स्ट्रेचर भीतर आया उसी के साथ लोग भी। स्ट्रेचर पर चादर में लिपटा बच्चा पड़ा हुआ था। वह बेहोश था। वह आपरेशन के बाद लौट रहा था। उसके गालों और गर्दन के रेशमी रोएँ पसीने से भीगे हुए थे। माथे पर बाल भी पसीने के कारण चिपके हुए थे।

उसका बाप एक हाथ में ग्लूकोज की बोतल पकड़े हुए था...ग्लूकोज की नली की सुई उसकी थकी और दूधभरी बाँह की धमनी में लगी हुई थी...उसका बाप लगातार उसे देख रहा था...वह शायद पसीने से माथे पर चिपके उसके बालों को हटाना चाहता था, इसलिए उसने दूसरा हाथ ऊपंर किया, पर उस हाथ में बच्चे की चप्पलें उसकी उंगलियों में उलझी हुई थीं... वह छोटी-छोटी नीली हवाई चप्पलें....।

मैंने बच्चे को देखा। फ़िर उसके निरीह बाप को।

मेरे मुँह से अनायास निकल ही गया -- इसका...

इसकी टाँग काटी गई है -- वार्ड बॉय ने बाप की मुश्किल हल कर दी।

ओह ! कुछ हो गया था? मैंने जैसे उसके बाप से ही पूछा। वह मुझे देखकर चुप रह गया... उसके ओठ कुछ बुदबुदाकर थम गए... लेकिन वह भी चुप नहीं रह सका। एक पल बाद ही बोला -- जांघ की हड्डी टूट गई थी...।

चोट लगी थी ?

नहीं, सड़क पार कर रहा था...एक गाड़ी ने मार दिया-- वह बोला और मेरी तरफ ऐसे देखा, जैसे टक्कर मारने वाली गाड़ी मेरी ही थी।

फिर वह वीतराग होकर अपने बेटे को देखने लगा।

पाँचवीं मंज़िल पर लिफ़्ट रूकी। बच्चों का वार्ड इसी मंजिल पर था। लिफ्ट में आने वाले कई लोग थे। वे सब स्ट्रैचर निकाले जाने के इन्तज़ार में बेसब्री से रूके हुए थे... वार्ड बॉय ने झटका देकर स्ट्रेचर निकाला तो बच्चा बोरे की तरह हिल उठा, अनायास ही मेरे मुंह से निकल गया -- धीरे से ...।

ये तो बेहोश है इसे क्या पता? स्ट्रेचर को बाहर पुश करते हुए वार्ड बॉय ने कहा।

उस बच्चे का बाप खुले दरवाज़े से टकराता हुआ बाहर निकला तो एक नर्स ने उसके हाथ की ग्लूकोज की बोतल पकड़ ली।

लिफ्ट के बाहर पहुँचते ही उसके बाप ने उसकी दोनों नीली हवाई चप्पलें वहीं कोने में फेंक दीं...फ़िर कुछ सोचकर कि शायद उसका बेटा होश में आते ही चप्पलें माँगेगा, उसने पहले एक चप्पल उठाई...फ़िर दूसरी भी उठा ली और स्ट्रेचर के पीछे-पीछे वार्ड की तरफ जाने लगा।

मुझे नहीं मालूम कि उसका बेटा जब होश में आएगा तो क्या माँगेगा, चप्पल माँगेगा या चप्पलों को देखकर अपना पैर माँगेगा ।

बेसब्री से इन्तज़ार करते लोग लिफ़्ट में आ गए थे। लिफ़्टमैन ने बटन दबाया। दरवाज़ा बन्द हुआ। और वह लोहे का बन्द कमरा नीचे उतरने लगा।

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रचनाएँ
कमलेश्वर जी की हिन्दी कहानियाँ
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कमलेश्वर का जन्म ६ जनवरी १९३२ को उत्तरप्रदेश के मैनपुरी जिले में हुआ। उन्होंने १९५४ में इलाहाबाद विश्वविद्यालय से हिन्दी साहित्य में एम.ए. किया। उन्होंने फिल्मों के लिए पटकथाएँ तो लिखी ही, उनके उपन्यासों पर फिल्में भी बनी। 'आंधी', 'मौसम (फिल्म)', 'सारा आकाश', 'रजनीगंधा', 'मिस्टर नटवरलाल', 'सौतन', 'लैला', 'रामबलराम' की पटकथाएँ उनकी कलम से ही लिखी गईं थीं। हिन्दी लेखक कमलेश्वर बीसवीं शती के सबसे सशक्त लेखकों में से एक समझे जाते हैं। कहानी, उपन्यास, पत्रकारिता, स्तंभ लेखन, फिल्म पटकथा जैसी अनेक विधाओं में उन्होंने अपनी लेखन प्रतिभा का परिचय दिया। कमलेश्वर का लेखन केवल गंभीर साहित्य से ही जुड़ा नहीं रहा बल्कि उनके लेखन के कई तरह के रंग देखने को मिलते हैं। उनका उपन्यास 'कितने पाकिस्तान' हो या फिर भारतीय राजनीति का एक चेहरा दिखाती फ़िल्म 'आंधी' हो, कमलेश्वर का काम एक मानक के तौर पर देखा जाता रहा है। कमलेश्वर के कुछ ख़ास सृजन में 'काली आंधी', 'लौटे हुए मुसाफ़िर', 'कितने पाकिस्तान', 'तीसरा आदमी', 'कोहरा' और 'माँस का दरिया' शामिल हैं। हिंदी की कई पत्रिकाओं का संपादन किया लेकिन पत्रिका 'सारिका' के संपादन को आज भी मानक के तौर पर देखा जाता है। कमलेश्वर ने तीन सौ से ऊपर कहानियाँ लिखी हैं।
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बात असल में यों हुई। उन दिनों शहर में प्रदर्शनी चल रही थी। जाने की कभी तबीयत न हुई। आखिर एक दिन मेरे मित्र मुझे घर से पकड़ ले गए। शायद आखिरी दिन था उसका। चला गया, पर ऐसे जमघटों में अब मन नहीं जमता। वह

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हवा है, हवा की आवाज नहीं है

20 जुलाई 2022
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कैरीन उदास थी। उसे पता था कि सुबह हमें चले जाना है। लेकिन उदास तो वह यों भी रहती थी। उस दिन भी उदास ही थी, जब पहली बार मिली थी। हम हाल गाँव का रास्ता भूलकर एण्टवर्प के एक अनजाने उपनगर में पहुँच गये थे

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शास्त्रज्ञ मूर्ख (हितोपदेश)

20 जुलाई 2022
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किसी नगर में चार ब्राह्मण रहते थे। उनमें खासा मेल-जोल था। बचपन में ही उनके मन में आया कि कहीं चलकर पढ़ाई की जाए। अगले दिन वे पढ़ने के लिए कन्नौज नगर चले गये। वहाँ जाकर वे किसी पाठशाला में पढ़ने लगे।

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अपनी-अपनी दौलत

20 जुलाई 2022
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पुराने ज़मींदार का पसीना छूट गया, यह सुनकर कि इनकमटैक्स विभाग का कोई अफसर आया है और उनके हिसाब-किताब के रजिस्टर और बही-खाते चेक करना चाहता है। अब क्या होगा मुनीम जी ? ज़मींदार ने घबरा कर कहा-कुछ करो म

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आत्मा की आवाज़

20 जुलाई 2022
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मैं अपना काम खत्म करके वापस घर आ गया था। घर में कोई परदा करने वाला तो नहीं था, पर बड़ी झिझक लग रही थी। गोपाल दूर के रिश्ते से बड़ा भाई होता है, पर मेरे लिए वह मित्र के रूप में अधिक निकट था। आंगन में च

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इंटेलैक्च्युअल

20 जुलाई 2022
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हिन्दी के एक बड़े आदरणीय आचार्य थे। आस्था से वे घनघोर सनातनी थे। लेकिन एक दिन न जाने क्‍या हुआ कि आचार्य जी ने सनातन धर्म की धज्जियाँ निकाल दीं। आर्य समाजियों को ख़बर मिली। वे बड़े प्रसन्‍न हुए। उन्ह

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एक अश्लील कहानी

20 जुलाई 2022
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नग्नता में भयानक आकर्षण होता है, उससे आदमी की सौन्दर्यवृत्ति की कितनी सन्तुष्टि होती है और कैसे होती है, यह बात बड़े दुःखद रूप में एक दिन स्पष्ट हो ही गयी। अनावृत शरीर से न जाने कैसी किरनें फूटती हैं,

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कर्त्तव्य

20 जुलाई 2022
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शाही हरम की बेगमों की डोलियाँ बीजापुर से दिल्ली की ओर जा रही थीं : रास्ता बीहड़ और सुनसान था। रास्ते में मराठा महाराज शिवाजी का इलाका तो पड़ता ही था। सेना के अपने दुश्मन और अपनी दक्षता होती है, साथ ही

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कामरेड

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लाल हिन्द, कामरेड!--एक दूसरे कामरेड ने मुक्का दिखाते हुए कहा। लाल हिन्द--कहकर उन्होंने भी अपना मुक्का हवा में चला दिया। मैं चौंका, और वैसे भी लोग कामरेड़ों का नाम सुन कर चौंकते हैं! वास्तव में किसी ह

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कोहरा

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पियरे की बात मुझे बार-बार याद आ रही थी-पैसे से उजाला नहीं होता ! अगर होता, तो हमारा देश सूरज को खरीद लेता ! लेकिन तुम सूरज नहीं खरीद सकते ! उस वक्त हम एक छोटी-सी घाटी में खड़े हुए थे। रीथ भी साथ थी।

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खामोशी एडगर ऐलन पो

20 जुलाई 2022
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'मेरी बात सुनो,' शैतान ने मेरे सिर पर हाथ रखते हुए कहा, 'जिस जगह की मैं बात कर रहा हूँ, वह लीबिया का निर्जन इलाका है - जेअर नदी के तट के साथ-साथ, और वहाँ न तो शांति है, न खामोशी। नदी का पानी भूरा मटमै

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गार्ड आफ ऑनर

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मिली-जुली गठबन्धन सरकार के एक मन्त्री। पुलिस लाइन में उनका दौरा था। कार से उतरते ही वे प्रशंसकों-चापलूसों से घिर गए। गले में मालाएँ पड़ने लगीं। फूलों की बौछार। नारों की जय-जयकार। तब एक पुलिस अफसर भी

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चौकी-चौका -बंदर

20 जुलाई 2022
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एक पण्डित जी घर के चबूतरे पर चौकी लगाकर बैठते थे। मोहल्ले के लोग कभी धर्म पर, कभी स्वास्थ्य पर, कभी ध्यान योग पर उनके उपयोगी प्रवचन सुनते थे। उसी चौकी पर लोग दान-दक्षिणा रख देते थे। उसी से पण्डित जी

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तलाश

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उसने बहुत धीरे-से दरवाज़े को धक्का दिया। वह भीतर से बंद था। जब तक वह सोई थी, तब तक बीचवाला दरवाज़ा बंद नहीं किया गया था। भिड़े हुए दरवाज़े की फाँक से रोशनी का एक आरा-सा गिरता रहा था, रोशनी मोमिया कागज

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तीसरा संस्करण

20 जुलाई 2022
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एक बौद्ध भिक्षु था। उसने छह खण्डों में भगवान गौतम बुद्ध की जीवनी लिखी। लगभग तीन हजार पृष्ठों के उस भारी-भरकम ग्रन्थ को प्रकाशित करने के लिए कोई प्रकाशक तैयार नहीं हुआ। भिक्षु बहुत निराश हुआ। तब समाज क

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दिल्ली में एक मौत

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मैं चुपचाप खडा सब देख रहा हूँ और अब न जाने क्यों मुझे मन में लग रहा है कि दीवानचंद की शवयात्रा में कम से कम मुझे तो शामिल हो ही जाना चाहिए था। उनके लडके से मेरी खासी जान-पहचान है और ऐसे मौके पर तो दुश

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पत्थर की आँख

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यह दो दोस्तों की कहानी है। एक दोस्त अमेरिका चला गया। बीस-बाईस बरस बाद वह पैसा कमाके भारत लौट आया। दूसरा भारत में ही रहा। वह गरीब से और ज्यादा गरीब होता चला गया। अमीर ने बहुत बड़ी कोठी बनवाई। उसने अपने

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भूख

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पूस की दाँतकाटी सर्दी पड़ रही थी। बच्चा भूखा था। माँ के स्तनों में दूध नहीं था। थोड़ी दूर पर एक अलाव जल रहा था। भूखा बच्चा माँ के स्तनों को निचोड़ता पर जब दूध नहीं निकलता था तो वह बच्चे को लेकर अलाव क

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मुक़ाबला

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सभी को मालूम है कि शेर बहुत सफाई पसन्द होता है। एक बार हुआ यह कि किसी बात पर शेर और जंगली सुअर में झगड़ा हो गया। जंगल के लगभग सभी जानवर शेर से भयभीत रहते थे। उन्हें मौका मिल गया। उन्होंने सोचा, जंगली

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रावल की रेल

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तो दोस्तो, हुआ ऐसा कि मैं कच्छ के दिशाहारा रेगिस्तान की यात्रा से ध्वस्त और त्रस्त किसी तरह भुज (गुजरात) पहुँचा। स्टेशन के अलावा और कोई भरोसे की जगह नहीं थी, इसलिए वहीं चला गया। स्टेशन पर मीटर गेज की

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वीपिंग-विलो

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हैम्पटन कोर्ट पैलेस से निकलकर गरम चाय पीने की तलब सता रही थी। पुराने किलों या महलों से निकलकर जैसी व्यर्थता हमेशा भीतर भर जाती है, वैसी ही व्यर्थता मन में भरी हुई थी। एक निहायत बेकार-सी अनुभूति। उदासी

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सर्कस

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सर्कस तो आपने जरूर देखा होगा। उसमें तरह-तरह के ख़तरनाक और दिल दहलाने वाले करतब दिखाए जाते हैं। शायद आपने वह बेमिसाल खेल भी देखा हो, जिसमें लकड़ी का एक बड़ा चक्‍का घूमता हुआ आता है। उसी के साथ एक छरहरे

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सिपाही और हंस

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तो दोस्तो ! आपको एक कहानी सुनाकर मैं अपनी बात समाप्त करूँगा। हुआ यह कि अंग्रेज भारत छोड़ कर जा चुके थे। राजे-महाराजों-नवाबों की रियासतों का विलय विभाजित भारत में हो चुका था। इंदिरा गांधी ने इनके लाखो

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सुख

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यह किस्सा मुझे वरसोवा के एक मछुआरे ने सुनाया था। तब मैं अपने वीक-एण्ड घर 'पराग' में आकर रुकता था और सागर तट पर घूमता और डूबते सूरज को देखा करता था। तब मेरी जिन्दगी को अफ़वाहों का पिटारा बना दिया गया थ

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हमलावर कौन ?

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दोस्तो! यह आज के यथार्थ को पेश करती एक दारुण कहानी है। इसके लेखक हैं-मुद्राराक्षष। यह कालजयी कहानी मैं आपको सुनाता हूँ- भारत-पाकिस्तान युद्ध । भारत की सेनाएँ पाकिस्तानी इलाकों को जीतती हुई भीतर तक पा

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लघु-कथाएँ

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घूँघटवाली बहू बात वृन्दावन की है। मैं मन्दिरों में नहीं जाता। देखना हो तो जाने से परहेज भी नहीं करता। कहा गया कि बिहारी जी का मन्दिर तो देख ही लीजिए। यानी दर्शन कर लीजिए। गया। पर रास्ते और आस-पास की

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इनसान और भगवान्

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यह एक अजीब विस्मयकारी और चौंकानेवाला दृश्य था। भादों का महीना और कृष्ण जन्माष्टमी का अवसर। निर्जला व्रत किए लाखों लोगों का हुजूम, जो कृष्ण जन्माष्टमी के महोत्सव में शामिल होने आए थे। कृष्ण मंदिरों के

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अष्टावक्र का विवाह

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एक बार महर्षि, अष्टावक्र महर्षि वदान्य की कन्या के रूप पर मोहित हो गये। उन्होंने उसके पिता के पास जाकर उस कन्या के साथ विवाह करने की इच्छा प्रकट की। तब महर्षि वदान्य ने मुस्कराते हुए अष्टावक्र से कहा,

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दीर्घतमा और प्रद्वेषी

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प्राचीन काल में उतथ्य नाम के एक ऋषि थे। उनकी स्त्री का नाम ममता था। ममता अत्यन्त रूपवती थी। जब वह चलती तो आश्रम में एक बार तो उस रूप की गन्ध चारों ओर बिखर जाती। ममता के इस अनुपम रूप को देखकर उतथ्य के

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बिलाव और चूहे

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किसी विशाल घने वन में एक विशाल बरगद का वृक्ष था। उसकी जड़ों में सौ मुँह वाला बिल बनाकर पालित नाम का एक चूहा रहता था। उसी वृक्ष की डाल पर लोमश नाम का एक बिलाव रहता था। कुछ दिनों बाद एक चाण्डाल भी आकर उ

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कबूतर और बहेलिया

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प्राचीन काल में एक क्रूर और पापात्मा बहेलिया रहता था। वह सदा पक्षियों को मारने के नीच कर्म में प्रवृत्त रहता था। उस दुरात्मा का रंग कौए के समान काला था और उसकी आकृति ऐसी भयानक थी कि सभी उससे घृणा करते

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मृत्यु ही ब्रह्म है

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याज्ञवल्क्य ने जाने कितने छात्रों को, जाने कितनी बार पढ़ाया होगा यह सूक्त। कितनी बार दुहराया होगा वह अर्थ जो उन्होंने अपने गुरु से सुना था। पर आज पहला मन्त्र पढ़ना आरम्भ किया, “न असत् आसीत् न सत् आसीत

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गुरु मिले तो

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वरुण एक जमाने में सबसे बड़े देवता थे। इन्द्र से भी बड़े। जिस काम के लिए बाद में इन्द्र बदनाम हुए उसका भी कुछ सम्बन्ध वरुण से था। नतीजा यह कि अनेक ऋषियों को वरुण की सन्तान होने का सौभाग्य प्राप्त हुआ।

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कुत्ते का ब्रह्म ज्ञान

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बात बहुत पुरानी है। उस समय कुत्ते आदमी की और आदमी कुत्तों की भाषा जानते थे और कुछ कुत्ते तो सामगान करते हुए भौंकते थे। जो लोग कुत्तों की भाषा समझ लेते थे वे कुत्तों के ज्ञान पर आदमी के ज्ञान से अधिक भ

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वररुचि की कथा

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वररुचि के मुँह से बृहत्कथा सुनकर पिशाच योनि में विन्ध्य के बीहड़ में रहने वाला यक्ष काणभूति शाप से मुक्त हुआ और उसने वररुचि की प्रशंसा करते हुए कहा, आप तो शिव के अवतार प्रतीत होते हैं। शिव के अतिरिक्त

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गुणाढ्य

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गुणाढ्य राजा सातवाहन का मन्त्री था। भाग्य का ऐसा फेर कि उसने संस्कृत, प्राकृत और अपभ्रंश तीनों भाषाओं का प्रयोग न करने की प्रतिज्ञा कर ली थी और विरक्त होकर वह विन्ध्यवासिनी के दर्शन करने विन्ध्य के वन

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राजा विक्रम और दो ब्राह्मण

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संसार में प्रसिद्ध उज्जयिनी नगरी महाकाल की निवासभूमि है। उस नगरी के अमल धवल भवन इतने ऊँचे-ऊँचे हैं कि देखकर लगता है जैसे कैलास के शिखर भगवान शिव की सेवा के लिए वहाँ आ गये हों। उस नगरी में यथा नाम तथा

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शूरसेन और सुषेणा

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गोमुख ने कहा, श्रावस्ती में शूरसेन नाम का एक राजपुत्र था। वह राजा का ग्रामभुक था। राजा के लिए उसके मन में बड़ी सेवा भावना थी। उसकी पत्नी सुषेणा उसके सर्वथा अनुरूप थी और वह भी उसे अपने प्राणों की तरह च

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कैवर्तक कुमार

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राजगृह में मलयसिंह नाम के राजा राज्य करते थे। उनके मायावती नाम की अप्रतिम रूपवती एक कन्या थी। एक बार वह राजोद्यान में खेल रही थी तभी एक कैवर्तककुमार (मछुआरे के बेटे) की दृष्टि उस पर पड़ गयी। सुप्रहार

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