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नीली झील

20 जुलाई 2022

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बहुत दूर से ही वह नीली झील दिखाई पड़ने लगती है। सपाट मैदानों के छोर पर, पेड़ों के झुरमुट के पीछे, ऐसा मालूम पड़ता है, जैसे धरती एकदम ढालू होकर छिप गया हो, लेकिन गौर से देखने पर ऊँचे-ऊँचे पेड़ों के बीच से एक बहुत बड़ा शीशा झलकता दिखाई पड़ता है।

यही वह झील है।

और इसी झील पर जल-पक्षियों के शिकार के लिए आए हुए अँग्रेज-कलक्टर ने कहा था, “कितनी खूबसूरत है यह झील ! जैसे जमीन में हार जड़ा हो-झील तक पहुँचने के लिए पक्का रास्ता होना चाहिए।”

यह तीस साल पहले की बात है।

और तब बस्ती से झील तक रास्ता बनाने के लिए आए मजदूरों की टोली में वह भी आया था और अँग्रेज साहब की मेम की आखों को देखकर उसने कहा था, 'कित्ती खूबसूरत है मेम ! इसकी आँखें नीली झील की तरह लगती हैं।'

तगड़े और बदसूरत मजदूरों ने तब आँखें बचाकर गन्दे इशारे किए थे। और गहरी और भीगी जमीन में कार के पहिए फँसते ही वह सबसे पहले दौड़कर उस ओर धक्का लगाने के लिए जुट गया था, जिधर मेम बैठी थीं...उसका मन होता था कि बहाने से हाथ डालकर फूल-सी मेम को छुए, पर हिम्मत नहीं पड़ती थी। और मजदूरों को उसकी इस सीनाजोरी पर बड़ा गुस्सा आया था और वे भीतर-ही-भीतर चाहते थे कि उसकी मरम्मत हो जाए।

रात को जब पेड़ तले बीनी हुई लकड़ियों के साले चूल्हे जले और उस वीराने में मजदूरों के मुँह आग की ली में शैतानों की तरह चमकने लगे, तो भजनू ने काँख से तमाखू का बटुआ निकालते हुए कहा, “इस साले को मेट से कहकर निकलवाया जाए ! मेम जान पाती तो चमड़ी उतर जाती !...साला आशिक बनता है !”

“बनने दो, तुम्हारा का लेता है?” भूख से क्लान्त और जल्दी-जल्दी बाटियाँ सेंकते हुए होरी ने बात तोड़ देनी चाही।

“हम सबकी रोज़ी जायेगी।” आग कुरेदते हुए एक और ने जोड़ा ।

तभी दूसरे पेड़-तले से बड़ी भद्दी और मोटी आवाज़ में एक गीत का बोल उभरा-

“होए मेमिया तोरी अँखियाँ बड़ो जुलुम ढायो री...”

और पीतल की धाली ठनक उठी थी और महेसा शैतान की तरह नाच रहा था। बाटियाँ पकाते साथियों की हँसी और वाहवाही से शोर मच गया था। भूखे और थके मज़दूरों की आँखों में एक वहशी चमक आ गयी थी और एक क्षण के लिए वे जैसे तन की पीड़ा भूल गये थे। महेसा गा-गाकर कुछ देर तक नाचता रहा। ...पेड़ों की पत्तियाँ आग की दमक में ताँबे की तरह लग रही थीं और उनके काले, पपोटेदार तने अजगरों की तरह झिलमिला रहे थे। आसमान सीप की पीठ की तरह धुँधला और काला था और झील की ओर से अजीब तरह के सूने-सूने स्वर आ रहे थे।

इसी समय तीखी आवाज़ में चीखता एक सारस गुज़र गया। उसके बड़े-बड़े पंखों से निःश्वास-सा निकल रहा था। सारस की चीख़ की प्रतिध्वनि कुछ क्षण तक आती रही और महेसा का स्वांग रुक गया।

“अब सीधा होके बैठ, रोटी खा ले!” काने मेट की आवाज़ थी यह। नाराज़ साथियों को मेट का इस तरह अपनेपन से बोलना अच्छा नहीं लगा। भजनू ने धीरे से कहा, “बदमाश ने मेट को खुस कर लिया है! काना भी ऐबी है न, उसे भी मज़ा आता है!”

गुदारी बाटियों और उड़द की पकी हुई दाल की महक से सबकी भूख चमक आयी थी। बड़ी रात तक बतकही के बीच खाना चलता रहा। धीरे-धीरे चूल्हों की आग मझाकर राख में दुबक गयी और पेड़ों का अँधियारा घना हो गया। सुबह काम शुरू होते ही सैलानियों की एक पार्टी वहाँ आकर रुक गयी। कुछ हिन्दुस्तानी साहब थे और साथ में कुछ अच्छी-अच्छी औरतें। औरतों के कन्धों पर कैमरे लटक रहे थे और साहबों के कन्धों पर एयरगन और कारतूसों की पेटियाँ। खाने-पीने का सामान कंडियों में था और वह बोझ उनसे चल नहीं रहा था। औरतों के खूबसूरत चेहरों पर पसीने का पनीलापन था और साड़ियों के छोर कमर में खुँसे हुए थे। धूल से बचाने के लिए साड़ियाँ एक तरफ़ से कुछ ऊँची कर ली गयी थीं। उन्हें देखते ही मज़दूरों ने रुकने का मतलब भाँप लिया था और वे अपने काम में इतने मशगूल हो गये थे जैसे उन लोगों की उपस्थिति का उन्हें एहसास ही न हो। पर महेसा हाथ रोककर, फेंटा कसने के बहाने कनखियों से उन्हें ताक रहा था। वही इसी इन्तज़ार में लगता था कि अभी उनमें से कोई औरत सामान उठाने के लिए कहेगी और वह मेट की मर्ज़ी देखकर निश्चय ही उनकी सहायता के लिए तैयार हो जायेगा।

साहब लोग भी किसी मज़दूर से आँखें मिलने की ताड़ में थे। बाक़ी सब आँख बचा रहे थे, सिर्फ़ महेसा आँख मिलाने के लिए उतावला था; पर साहबों से नहीं। जैसे उसने यही तय किया था कि नीली साड़ी वाली औरत अगर कहेगी तो वह फावड़ा छोड़कर सामान उठा लेगा। वह बार-बार उसे ही हैरत से ताक रहा था कि नीली साड़ी वाली औरत ने ही मौका पाकर बड़ी मीठी आवाज़ में कहा, “कोई मज़दूर मिल जायेगा यहाँ?”

महेसा को यह बात नहीं जँची । “मज़दूर ही चाहती हैं तो खोज लें!” उसने ठसक से कहा, “हम लोग सरकारी गैंग के आदमी हैं!” कुछ इस तरह जैसे सरकार से रुपया पाकर मज़दूरी करना कुछ ऊँची बात हो।

“अरे, ज़रा-सी मदद के लिए चाहिए। ...यह सामान झील तक पहुँचाना है।” उसी नीली साड़ी वाली की मीठी आवाज़ थी।

महेसा का दिल बहक उठा। बड़प्पन और शान से बोला, “मदद मिल सकती है, ऐसे बोलिए!”

महेसा के तुच्छ-से गर्व को लक्ष्य करके वह धीरे-से हँसी। और महेसा एक क्षण के लिए अपलक उसके साफ़ दाँतों को देखता रहा। फिर दौड़कर मेट के पास पहुँचा और सामान उठाने की इजाज़त माँगकर चला आया।

आते ही उसने गर्व से उनका सामान उठाया और नीली साड़ी वाली के कन्धे में लटके थरमस को माँगने के बहाने बोला, “यह बोतल भी दे दीजिए।”

मीठी आवाज़ वाली औरत ने कुछ जवाब नहीं दिया। पर वह ऐसे मानने वाला नहीं था। चलते-चलते उसने फिर पूछा, “आप लोग शिकार के लिए आये हैं? कहाँ से आये हैं?

लेकिन वह नीली साड़ी वाली औरत एक आदमी से मुस्करा-मुस्कराकर बातें कर रही थी। महेसा को यह अच्छा नहीं लग रहा था। एक अजीब तरह की परेशानी उसे हो रही थी। कुछ दूर तो उसने बर्दाश्त किया, फिर उसका मन हुआ कि सामान पटककर उसी आदमी से कहे कि उठाइए अपना तामझाम! मैं मजूर नहीं हूँ! पर उनके साथ चल सकना भी उसे कम भला न लग रहा था। उसे बोलने का फिर मौक़ा मिला, गलत रास्ते पर मुड़ते देख वह लपककर नीली साड़ी वाली के पास पहुँचा और एकदम उनके अज्ञान पर जैसे चीख़ पड़ा, “आप लोगों को रास्ता नहीं मालूम, हमारे साथ आइए! इधर से दलदल पड़ेगा"

“दलदल! ओह !” नीली साड़ी वाली कुछ ज़्यादा चौंक गयी थी। उसका यह चौंकना महेसा को बहुत अच्छा लगा था। उसे अनिर्वचनीय सुख-सा मिला था। ...कानपुर में मिल से छुट्टी पाते ही वह चौराहे वाले कोने पर रुककर इसी तरह औरतों को देख-देखकर खुश होता था...

झुरमुट के पास पहुँचते ही सब लोग रुक गये। सामान वहीं उतरवा लिया गया। सभी औरतें हवा की ठण्डक में अपने बालों की लटें ऊपर करती हुई या साड़ियाँ सँभालती हुई बेफिक्री से बैठ गयीं।

हलकी-हलकी हवा झील की ओर से आ रही थी और छाया में कुछ सर्दी भी थी। झील के पानी के भीतर बादल तैर रहे थे और नरकुल धीरे-धीरे काँप रहे थे। ...दूर से जिधर पानी उथला था, देवहंसों, मुर्गाबियों और पतारी के झुण्डों के चुगने की और पंख फड़फड़ाने की आवाज़ें आ रही थीं। देवहंस शायद सिवार खा रहे थे और मुर्गाबी घोंघे या केकड़े खोजने में मशगूल थे। पेड़ों पर चिड़ियाँ चहक रही थीं।

सहसा नीली साड़ी वाली ने झील के पानी की ओर इशारा करते हुए हैरत से कहा, “पानी का साँप! साँप तैर रहा है!”

सभी कौतूहल से देखने लगे। महेसा खिलखिलाकर हँस पड़ा | कैसे समझाये इन साहबों को, वे इतना भी नहीं जानते! वह सिर्फ़ नीली साड़ी वाली को ही बताना चाहता था। एकदम बोला, “पनिया साँप नहीं है, एक चिड़िया है वह!”

“चिड़िया? बकता है!” नीली साड़ी वाली ने प्यार से कहा।

“न मानें तो देखती रहें!” फिर इधर-उधर नज़र दौड़ाकर बोला, “वह उस पानी में उगे ठूँठ को देख रही हैं? ...वह...उस पर जो काली चिड़िया बैठी है, उसी का साथी है यह, सरपपच्छी।”

“वह काली चिड़िया!” नीली साड़ी वाली उससे बात कर रही थी और वह तन्मय होकर बता रहा था, “हाँ-हाँ, वही! सरपपच्छी तैरने का बहुत शौकीन होता है। बस, भाले-सी काली चोंच निकालकर तैरता रहता है।”

“खाता क्‍या है?” उसने उत्सुकता से पूछा।

“मछली!” उसकी आँखों में चमक आती जा रही थी। और बात करने के लिए उसने बात जोड़ दी, “अभी जब थक जायेगा तो किसी ठूँठ पर पंख और दुम फैलाकर सुखायेगा।”

“अभी निकलेगा?” नीली साड़ी वाली का मुख खुला रह गया।

और उसके सफेद दाँतों को महेसा निहारता रहा... नकबा के सफेद पंखों की तरह धुले हुए व चमकदार! उसका मन जाने को नहीं हो रहा था, पर मेट ने कहा था जल्दी लौटना और फिर साथियों के कलेजे पर साँप लोट रहे होंगे!

तभी एक साहब को बन्दूक सँभालते देख उसका मन उचाट हो गया। वह नीली साड़ी वाली भी अब बन्दूक की ओर ज़्यादा ध्यान दे रही थी।

उनके साथ के एक साहब ने उसे कुछ पैसे दिये और अभी एक क्षण पहले का महेसा अपना सारा आकर्षण भूलकर चल पड़ा। उसका मन भारी हो आया था। रह-रहकर उसकी आँखों के सामने वह बन्दूक घूम रही थी और कानों में चिड़िया का शोर समाया हुआ था। हर आवाज वह पहचानता था-उन पक्षियों की भी, जो सालभर इसी झील के किनारे रहते थे और उनकी भी, जो इस ऋतु में दूर पहाड़ों से उतरकर कुछ दिनों के लिए मेहमानों की तरह आते थे। उनकी हर आवाज़ का अर्थ वह समझता था-वे लड़ रहे हैं, या आनन्द से भरकर गा रहे हैं, या साथियों को ख़तरे का बिगुल सुना रहे हैं। झील के पानी में किलोलें करते हर पक्षी के पंखों की सरसराहट का एहसास है उसे, चाहे वह मुर्गाबी हो, सुरखाब, जंगली बत्तख, चाहे बगुला, सारस, नकटा, रेती, सरपपच्छी या सोनापतारी! उनकी सीटियों की मधुर आवाज़ें उसके कानों में बसी हुई हैं...और तभी उसका मन उस बन्दूक की याद से धड़कने लगा।

उधर बन्दूक चली थी और गोली की टूटती हुई आवाज़ बादलों में गूँज गयी थी। और उसके बाद पक्षियों का कातर शोर' मन पर चोट-सी लगी थी। उसका मन उदास हो आया था। दूरी पर साथी मज़दूर काम में लगे दिखाई पड़ रहे थे। एक क्षण ठिठककर उसने पीछे देखा, दलदल ख़ामोश था और ऊपर से उड़कर भागती हुई चिड़ियों की भयातुर आवाज़ को शालीनता से पीता जा रहा था। ...मुड़कर वह तेज़ कदमों से लौट आया और अपने काम में जुट गया।

रात को जब पेड़ों के नीचे साँझे चूल्हे जले, तो महेसा नहीं था। गाँव से प्याज और मसाला लाने वाले चरनसिंह ने बताया, “वह तो बदमास घी की चुपड़ी रोटी खायेगा आज।"

कहाँ? गाँव में है?” भजनू ने आश्चर्य से पूछा।

“वहीं पण्डिताइन के घर है। चबूतरे पर बैठा मिसकौट कर रहा था लुगाई से। ...और वह नासमारी मुस्करा-मुस्कराकर बतिया रही थी, पत्तीदार बाल काढ़े, और ज़ेवर पहने साथ बैठी थी। ...मरा साला!” कहकर चरनसिंह ने पिच्च से थूका और प्याज की गाँठ छीलकर खाने लगा।

“उससे कैसे आसनाई हो गयी?” भजनू ने तसले में आटा सँभालते हुए रहस्य-भरी आवाज में पूछा।

“तू चाहे तो तू कर ले! कौन मुस्किल है! ...लेकिन उस नरक में कूदे कौन? ...बखत था जब हमारे पीछे लग गयी थी...” आदत के मुताबिक चरनसिंह बात अपने से जोड़ रहा था।

“कुबड़ा न होता तो शायद ब्याह रचा लेती!” होरी ने जैसे चरनसिंह के कुबड़ेपन पर गहरा वार किया। “बैठ जा सीधी तरह, हूँ! ...तेरे पीछे लग गयी थी! गाँव के ठाकुर ने जान दे दी, पर नज़र नहीं मिलायी उसने!”

“असल में उसे पैसे का गरूर है!” भजनू ने रोटी गरम तवे पर डालते हुए कहा, “दस गाँव में ऐसी औरत नहीं मिलेगी! का रूप है और का काठी है! रामकसम !”

चरनसिंह ने सिसकारी भरी और भजनू की बात का मतलब साफ़ हो गया। चूल्हे की आँच में उसका कूबड़ कद्दू की तरह लग रहा था। होरी की आँख के नीचे लटका हुआ बड़ा-सा मांस का लोथड़ा सूजा हुआ था। “कीड़े ने काट लिया”, कहते हुए उसने सने हाथ से आँख के नीचे सहलाया और बोलता गया, “घी-मेवा खाती है, ठसक से रहती है पण्डिताइन!”

“चालीस की लगती नहीं,” भजनू ने रोटी पलटी । “महेसा की उमर कितनी होगी?” उसने दरयाफ़्त किया।

“होगा पच्चीस-छब्बीस का!” चरनसिंह बोला।

“फिर तो...” कहकर होरी शैतानी से हँस पड़ा।

झील तक वह सड़क तो पूरी नहीं बन पायी, पर महेसा गैंग से बिछुड़ गया। विधवा पण्डिताइन ने उससे शादी कर ली थी। लोगों ने तरह-तरह की बातें कहीं किसी का कहना था कि जवान देखकर पण्डिताइन ने फाँस लिया और कोई कहता था कि महेसा रुपया-पैसा देखकर ढरक गया... । जो भी हो, दोनों तरह से लोगों को यह अच्छा नहीं लगा था, क्योंकि किसी को बुरा देखकर लोग बर्दाश्त नहीं कर पाते और अच्छा बनते देखना उनसे सहा नहीं जाता। लेकिन महेसा ने किसी की परवाह नहीं की। पण्डिताइन फिर से सुहागिन हुई थी और इतने दिनों बाद जब उसकी माँग में सेंदुर और गोरे माथे पर पत्तीदार बालों के बीच बिंदिया चमचमायी, तो उसका रूप दुगुना हो गया। दुहरे बदन की पण्डिताइन जब चाँदी की करधनी बाँधकर चलती और पैरों में झाँझें जब झन्‍न-झन्‍न बोलतीं तो लोगों के कलेजे दरक जाते। राह में साथ चलते महेसा से पारवती पण्डिताइन कहती, “तुम्हें तो जरा भी सऊर नहीं है! मरद घरवाली के आगे-आगे चलता है, साथ नहीं! ...लोग क्या कहेंगे? ...आगे चलो!”

और सर पर साफा बाँधे महेसा कहता, “बड़ी सरम आय रही है! सहर में मेम लोग इसी माफिक चलती हैं, बल्कि न बाँह में हाथ फँसा के"” और बस्ती के बाज़ार से ख़रीदा, चमकदार केलासन का जम्फर झिलमिलाता देख उसका माथा गर्व से उठ जाता। पारबती कित्ती खूबसूरत है।

और एक दिन देवियों की पूजा के लिए जब पारबती ने महावर लगाया, तो चमचे में घुला लाल रंग उँगली में लेकर उसने पारबती के होंठों पर लगा दिया। पारबती छुटाने लगी तो उसने अपनी कसम दे दी और नुमाइश से लाये शीशे को उसके सामने कर दिया। पारबती ने लजाते हुए अपने लाल होंठों को देखा, पर अपनी खूबसूरती की शोखी से भरकर बोली, “तुम तो मेम से सादी करते! लाली-पौडरवाली से ।” और वह अपने को खुद किसी मेम से कम नहीं लगी थी!

तभी महेसा ने उसकी गुदारी कलाई पकड़ते हुए कहा, “तुम किधर से कम हो! और हँसती पारबती के उजले दाँतों को देखकर उसका मन खिल गया। -पारबती के दाँत ठीक वैसे ही थे, जैसे उसने कभी देखे थे, हंस के पंखों की तरह धुले हुए!

पारबती के कहने से उसने कलमें बड़ी-बड़ी रखवायी थीं, चोटी में मोटी-सी गाँठ बाँधता था और मूँछें छोटी करवा ली थीं। मेले-तमाशे पर जाने के लिए बैलों की एक गोई और छोटा-सा रब्बा भी खरीद लाया था। बैलों को खूब सजाकर रखता था। उनके गलों में चालीस घुँघरुओं की माला थी और सींगों में पालिश । रब्बे की छत के लिए रंगीन झालर पारबती ने सी थी और गछियाँ वह दर्ज़ी से बनवा लावा था। पहियों के ऊपर रथ की तरह हाथा लगवाया था और सन की नहीं, सूत की रंगीन डोरियों से किनारे बुनवाये थे। सतरंगी रब्बा था महेसा का! एक दफ़ा दौड़ में दाँव लगा आया था और पारबती के पीछे पड़ गया था, “तुम साथ नहीं बैठोगी तो दौड़ में नहीं जाऊँगा।” उसने बहुत समझाया था, “हमारा तमासा दिखाओगे? ...बहुत लड़कपन है तुममें।”

महेसा हँस पड़ा था, “और तुम बूढ़ी हो गयी हो न! सरम नहीं आती हमारे सामने कहते? ...बतिया-बछरी-से दाँत हैं अभी, बात बड़ी-बूढ़ियों की तरह करोगी !”

और मेले की दौड़ के लिए जाते-जाते जब ऊसर से रब्बा गुज़र रहा था, तो पारबती ने चतुराई से उसे मना लिया था और मन में कोई मलाल लाये बिना महेसा मेला दिखाकर बगैर दौड़ में हिस्सा लिए लौट आया था।

बस्ती में हरदम महेसा और पारबती की बात होती, पर दोनों को किसी की चिन्ता नहीं थी। पारबती रुपये का लेन-देन करती और सबकी चोटी अपने पाँव के नीचे रखती। बस्ती में कौन ऐसा था, जिसे वक्‍त-बेवक्त चार पैसे की जरूरत नहीं पड़ती! इसलिए वे लोग भी जो पीठ-पीछे पारबती और महेसा को कोसते, सामने आकर चिकनी-चुपड़ी बातें करते।

इसका एहसास दोनों को था, पर दोनों इतने मुक्त थे कि कभी उन्होंने मन नहीं जलाया। महेसा अब निश्चिन्त हो गया था। काम-धाम करने की उसे ज़रूरत नहीं रह गयी थी। पर अब भी, जब वह सैलानी लोगों को झील की ओर जाते देखता और उनके साथ कोई सुन्दर औरत होती, तो वह अपने को रोक न पाता; पीछे-पीछे चला ही जाता और चाहता कि वह औरत उससे बात करे। और जब वह औरत उससे बात नहीं करती, तो वह चिड़ियों में मशगूल हो जाता, शान्त झील के किनारे-किनारे चक्कर काटता, नरकुलों के बीच साबुदाने की तरह फैले हुए मछलियों के अण्डों को देखता और नीलपक्षी के जोड़ों को निहारता...बगुले को ध्यानावस्थित खड़ा देखकर वह साँस रोककर ठहर जाता और उसके शिकार करने की प्रतीक्षा करता; देर हो जाती तो घर की याद आते ही लौट पड़ता।

एक बार वह दिन-भर नहीं आया, आधी रात को लौटा | पारबती ने नाराज़ होकर पूछा, तो सीधेपन से कह दिया, “जंगल तक गया था।”

“झील पर घूमके मन नहीं भरता?” पारबती ने उलाहना दिया, तो बड़ी सफ़ाई से उसने बता दिया, “जंगल में तीतर देखने गया था, ससुरे धूल से नहाते हैं!”

“तीतर-वीतर नहीं, तुम कहीं और गये थे। सच-सच बताओ मुझे !” पारबती कुछ कड़ी पड़ गयी, “तीतर देखना था तो बलदू के घर देख लेते, वह तो तीतर लड़ाता है।”

“पिंजरे में बन्द तीतर का क्‍या देखना!” महेसा ने कहा, “मुझे कोई पालना तो है नहीं, पता नहीं लोग कैसे चिड़ियों को पालते हैं!”

तभी ऊपर आकाश में कुछ पक्षियों का झुण्ड उड़ता गुज़र गया। उसकी आँखें आसमान में टँग गयीं। एकदम बोला, “यह वाक का झुण्ड है...देख पारबती, अब रात-भर ये मछली का शिकार करेंगे।”

पक्षियों के नरम पंखों की रेशमी आवाज़ दूर चली गयी थी।

“वो कुछ भी करें, तुम हमारी बात का जवाब दो। सच-सच बताओ कहाँ गये थे?”

“ईमान से बता दिया ।”

“लेकिन इत्ती रात तक तीतर ही देखते रहे?” पारबती के स्वर में शंका थी।

“हाँ-हाँ, पारबती माना करो! ...देखो, पैरों में कितने काँटे चुभ गये हैं। लड़ना है तो सवेरे लड़ेंगे।” कहकर वह आराम से टाँगें फैलाकर लेट गया।

पारबती ने बात बदल दी, “रुपया बहुत फैल गया है, वसूल नहीं होता, तुम ज़रा लोगों को डाँटो-डपटो ।"

“यह हमसे नहीं होगा ।”

“अच्छा सुनो! मेरा मन है कि कुछ रुपया लगा के यहाँ चबूतरे पर एक मन्दिर बनवा दिया जाये...और बन सके तो मुसाफ़िरों के लिए दो कोठरियाँ भी बन जायें। हारे-थके लोगों को आराम मिलेगा और कुछ रुपया धरम के कारज में लग जायेगा।”

“यह धरम-करम तुम्हें कब से सताने लगा?”

“बहुत दिन की साध है मन में! मिस्त्री को बुला के ज़मीन भी दिखायी थी, फिर कुछ हो नहीं पाया। ...मर जाऊँगी तो नाम का एक मन्दिर तो रहेगा, दस दिलों से असीस निकलेगी!” पारबती ने बड़ी सच्चाई से बात कही।

“बेबखत यह बात कैसे सूझ गयी तुम्हें?” महेसा ने पूछा।

“आज दिन-भर यही सब सोचती रही।”

महेसा ने ग़ौर से देखा पारबती को। चाँदनी उसके चेहरे पर पड़ रही थी। सचमुच पारबती बहुत बदली-सी लगी। आज उसे लगा कि सचमुच पारबती उससे बहुत बड़ी है। ...और उसके चेहरे पर नीली लकीरों का जाल बनना शुरू हो रहा है। बाँहों का खिंचाव ढीला पड़ गया है, कूल्हे पर भारीपन आ गया है। लेकिन फिर भी उसके पत्तीदार बाल उसे अच्छे लग रहे थे।...

“का देख रहे हो?” पारबती ने आँचल का खूँट ऊपर सरका लिया।

महेसा चुपचाप देखता रहा, बोला कुछ नहीं। पारबती ने फिर टोका तो महेसा ने यों ही कह दिया, “मन्दिर बनना ज़रूरी है?”

पारबती समझ गयी कि उसके मन की बात यह नहीं है। महेसा की आँखों में अभी जो सूनापन उसने देखा था, वह कुछ और ही कह रहा था। पारबती ने कुछ उदास स्वर में पूछा, “हमसे सादी करके पछताते तो नहीं हों?”

“ऐं ?” महेसा इस सवाल के लिए तैयार नहीं था।

“आज सोच-सोच के बड़ा दुःख हुआ। ...अपने सुख की ख़ातिर हमने तुम्हें ख़राब कर दिया।” पारबती की आँखों में पनीलापन था, “पछतावा तो होता होगा, सच-सच बताना!”

“काहे का पछतावा पारबती ?” महेसा ने कहा, “हमने कभी यह सब सोचा ही नहीं, जरूरत ही नहीं पड़ी।”

“तुमने कभी कुछ नहीं सोचा? सादी की बाबत भी नहीं सोचा था?” पारबती ने जैसे उसे कुरेदा, “अभी तुम अपने को आज़ाद समझते हो, बाल-बच्चे होते तो समझते!” कहते-कहते उसकी आवाज़ भारी हो आयी। चाँद पर बादल आ जाने से चाँदनी मटमैली हो गयी थी और पारबती का चेहरा धुँधला पड़ गया था। लालटेन चौखट में कुण्डी से लटकी थी और उसकी रोशनी में खाट की अरदावन परछाइयों की सलाखें बना रही थी।

महेसा को एकाएक लगा कि शादी के बाद सब घरों में बच्चे होते हैं, उसके घर में अभी तक कुछ नहीं हुआ। उसने गहरी नज़रों से पारबती को देखा। इस समय की बात वह समझ नहीं पा रहा था। आख़िर पारबती कहना क्या चाहती है? घर में चारों ओर सन्नाटा छाया हुआ था। ऐसे सूनेपन में उसने पारबती के साथ कभी अकेलापन नहीं महसूस किया, पर आज वह इतनी अलग-सी क्‍यों मालूम हो रही है? हमेशा, रात हो या दिन, अकेलेपन में उसके मन में प्यार ही उमड़ा है, और उसने भी कभी ऐसी उखड़ी बातें नहीं कीं।

“तुम्हें हुआ का है?” महेसा ने शायद आज पहली बार इतना सोचकर कुछ पूछा था।

“पता नहीं का हुआ है! बस्ती का अस्पताल बहुत छोटा है, यहाँ मेरी देखभाल नहीं हो पायेगी |"

“अस्पताल! लेकिन अस्पताल की का ज़रूरत है?” महेसा और उलझ रहा था।

“तुम्हारी नासमझी के लिए का कहूँ! यहाँ घर पर मेरी देखभाल कौन करेगा? सगे-सम्बन्धी भी नहीं, जो ज़रूरत-बखत पर आ जाते। ...सुना है अस्पताल में तकलीफ़ भी नहीं होती, ऐसी दवा देते हैं डाकदरजी ।”

महेसा हँसा। अब समझ पाया था वह। उत्साह से भरकर बोला, “जिला अस्पताल में चली चलना! पैसा सब देखभाल करा देगा, भगवान का दिया सब-कुछ है!”

लेकिन पारबती उसकी ख़ुशी में हिस्सा नहीं बँटा पायी। उसके मन में जैसे डर समाया हुआ था। बोली, "एक बात कहूँ? ...हमें बड़ा डर लगता है, लगता है जान चली जायेगी ।”

“बेकार डरती हो तुम!”

“बेकार नहीं, न जाने मन में कैसी-कैसी बातें व्यापती हैं! बड़े डरावने सपने दिखाई पड़ते हैं! साँस रुकने लगती है!” पारबती ने बाँहें छाती पर कस ली थीं।

“तो हमारे साथ लेटा करो,” महेसा ने उपाय बता दिया।

'कुछ तो सोचा करो!”

“हम कहें कि आजकल तुम कतरायी-कतरायी काहे रहती हो! ...बेकार की बातें मन में मत लाया करो पारवती! आ, खाट टीन में कर लें।”

पारबती ने उठकर खाट पकड़ते हुए कहा, “अब इतना बाहर मत रहा करो, न जाने कब क्या हो जाये!”

महेसा ने खटिया से खटिया मिला ली और पाटी के पास सरककर हाथ उसकी बाँह पर रख दिया, “अब डर नहीं लगेगा तुम्हें।”

कुछ देर बाद पारबती सो गयी, पर महेसा को नींद नहीं आ रही थी। पारबती का पैर एकाएक हिला और साँस तेज़ हो आयी, जैसे वह डर रही हो। महेसा ने उठकर उसके माथे पर हाथ फेरा। बड़ी देर तक बैठा देखता रहा और जब उसे नींद आने लगी, तो लोहे का एक चाकू लाकर उसने पारबती के सिरहाने रखा और लेट गया, जैसे पारवती नन्‍हीं-सी बच्ची हो!

इन दिनों उसका मन बहुत भरा-भरा रहता। पारबती इस लायक नहीं थी कि उसे झील तक ले जाता, ख़ुद भी बैठता और उसे भी दिखाता वहाँ की सुन्दरता। इसलिए वह आसपास ही कुछ देर के लिए चला जाता। हाफ़िज़जी की बिसाती की दुकान पर अगर बैठ जाता, तो पारबती के लिए नाखूनों की लाली, कोई छोटा-सा शीशा या और कोई ऐसी चीज़ खरीद लाता जिसे हाफिज़जी नयी चाल की बता देते ...एक दफ़ा हाफ़िज़जी ने उसे फ़ोटो-फ्रेम दिखाकर कहा, “इसमें मियाँ-बीवी की तस्वीर लगती है। बड़े घरों में लोग इसे रखते हैं।” फ़ोटो-फ्रेम तो वह ले आया, पर तस्वीर नहीं थी। तीसरे ही दिन उसने पारबती को तैयार कराया, सारे गहने उसे पहनने को मजबूर किया और ख़ूब तेल लगाकर रामा फ़ोटोग्राफ़र की दुकान पर जा पहुँचा।

साथ-साथ बैठते हुए उसने पारबती के सर का पल्ला कानों के पीछे कर दिया और अपनी कमीज़ की जेब में सतरंगा रेशमी रूमाल रख लिया। अपने गले का तावीज़ भी खींचकर ऊपर कमीज़ पर निकाल लिया, ताकि तस्वीर में सब-कुछ दिखाई पड़े। अपने पीछे बाग का पर्दा लगवाया, जिसमें दो चिड़ियाँ चोंच से चोंच मिलाये बैठी थीं। पारबती को भी वह पर्दा पसन्द आया था।

लेकिन तस्वीर में और सब तो ठीक आ गया, अफ़सोस सिर्फ़ बालों का था।

“ससुरे ने हमें बूढ़ा बना दिया! काहे, पारबती ?”

“तुम्हें ही बड़ा शौक चर्राया था। एक रुपया ख़राब कर दिया!”

पर महेसा को इस बात का मलाल नहीं था। उसने तस्वीर को फ्रेम में लगाकर बरामदे वाली घरोंची पर सजा दिया। ऐसी तस्वीर मुश्किल से किसी के घर निकलेगी...मुख़्तार साहब के घर ही हो सकती है!

उस दिन भी वह हाफ़िज़जी की दुकान पर बैठकर लौट रहा था। पारबती के बालों में लगाने के लिए विलायती पिन लाया था। पिन के पत्ते पर बनी मेम को वह ताक रहा था कि पारबती ने पूछा, “मन्दिर के लिए मिस्त्री से बात हुई?”

“मिस्त्री तो नहीं मिले, पर एक नयी बात सुनने में आयी है।”

“का?” पारबती ने उत्सुकता से जानना चाहा।

“अपनी बस्ती में बिजली लग रही है; चुंगी वाले बड़ी कोशिश में हैं, पर पैसा पास नहीं है चुंगी के ।”

“तो बिजली का लगेगी?”

“सुना, चुंगी अपनी कुछ ज़मीनें बेचने की बात सोच रही है, ऐसी ज़मीनें जो उसके लिए बेकार हैं!” महेसा ने कहा तो पारबती एकदम बोली, “चुंगी अगर बेचे तो अपने चबूतरे के पास वाला कूड़ाख़ाना हम ख़रीद लें! ...चबूतरे पर मन्दिर हो जायेगा और उधर मुसाफ़िरों के लिए छोटी-सी धरमसाला! तुम ज़रा सच्ची बात पता लगाओ!”

“बात तो सच्ची है। हाफ़िज़जी का रोज़ चुंगी में आना-जाना लगा रहता है, गलत ख़बर नहीं लायेंगे, वो ही बता रहे थे।” महेसा ने जैसे उसे इत्मीनान दिलाया, “मौका लगा तो ख़रीद लेंगे।”

“का पता कब तक हो!”

झील की ओर से तभी चिड़ियों का कातर शोर सुनाई पड़ा और उसका मन बहक गया। एकदम बोला, “शायद शिकारी आये हैं।”

ऊपर आसमान से “आंग-आंग' करते चक्रवाकों के जोड़े गुज़र रहे थे। महेसा का मन ग्लानि से भर आया। बोला, “इन्हें मारने से फ़ायदा! इत्ती सुन्दर चिड़िया है, पर मुर्दा खाती है!”

“आजकल नयी-नयी चिड़ियाँ बहुत दिखाई पड़ती हैं, पहचान में भी नहीं आतीं,” पारबती ने कहा, “न जाने कहाँ से इतनी आ जाती हैं!”

“ये चिड़ियाँ मेहमान हैं। ...कातिक ख़त्म होते आती हैं और फागुन-चैत तक चली जाती हैं।” महेसा पारबती को बता रहा था, “हमने चिड़ियों के अंडे भी जमा किये हैं, तुझे नहीं बताया, नहीं तो घर से निकाल देती।”

“अब भी निकाल सकती हूँ।” पारबती कह ही रही थी कि 'दिखाऊँ' कहता हुआ महेसा उठकर गया और तरह-तरह के सफ़ेद, चितकबरे, हरियाले-से अंडे उठाकर ले आया।

“देख पारबती, यह वाक का अंडा है, यह सारस का और यह सोनापतारी का!” महेसा एक-एक अंडा उठाकर दिखाने लगा। वैसे तो पारबती नहीं छूती, पर उसने सोनापतारी का अंडा हाथ में ले ही लिया। घुमाकर देखते ही हाथ से छूटकर वह गिर पड़ा और टूट गया, तो पारबती के मुँह से चीख़ निकल गयी, “हाय दइया !!”

“टूट गया तो कया हुआ?” महेसा ने सरलता से कह दिया।

पर पारबती के चेहरे पर काले बादल-से छा गये थे, उसका दिल धक्‌-से रह गया था, बहुत धीमे स्वर में बोली, “असगुन हो गया,” और आँचल में मुँह छिपाकर रो पड़ी।

और पारबती उस दिन भविष्य के आशंकामय परिणामों को सोचकर रोयी थी “बिल्कुल वैसे ही करुणापूर्ण और असहायता से भरी उसकी आवाज़ जच्चा-बच्चा अस्पताल में थी...

महेसा को सब कुछ याद आता है। यह कैसे होता है कि आदमी हमेशा एक ही तरह से रोता है! ...पारबती की वह आवाज उसे भूलती नहीं, जब उसने अस्पताल के पलँग पर पड़े हुए महेसा को अपने पास बुलाया था, “इतने दिन चढ़ गये हैं, डॉक्टरनी कहती है कि चीरा लगाना पड़ेगा!” पारबती का रोम-रोम जैसे काँप रहा था चीरे का नाम सुनकर। आँखों में आँसू भरकर उसने महेसा की बाँह पकड़ ली थी और बड़े ही दर्द-भरे स्वर में कहा था, “अब मेरा कोई ठिकाना नहीं, पता नहीं ईश्वर को क्‍या मंजूर है!”

“दिल छोटा क्‍यों करती हो पारबती? तुम जीती-जागती घर पहुँचोगी। ...मैं मन्दिर बनवाऊँगा और मुसाफ़िरों के लिए धरमसाला!”

लेकिन पारबती जीती-जागती घर नहीं पहुँची। बच्चा पेट में मर गया था और ऑपरेशन के बाद भी उसकी बिगड़ती हालत को अकेली डॉक्टरनी संभाल नहीं पायी थी। ...सारा शरीर नीला पड़ गया था, पारबती के शरीर में ज़हर फैल गया था।

और महेसा को पारबती का हलका नीलापन लिये शरीर ठीक वैसा ही लगा था, जैसा कि उस दिन चाँदनी में उसने देखा धा। पारबती की साँसें धीमी पड़ती जा रही थीं, वह एकदम निश्चिन्त लग रही थी, और उसने महेसा को पास बुलाकर कहा था, “अब मन्दिर ज़रूर बनवा देना, पारबती मन्दिर!”

मन्दिर! सोचकर महेसा का कलेजा फट गया था। आख़िरी आस थी उसे, चीख़कर बोला था, “ऐसा मत कहो पारबती! बच्चा मर गया तो क्‍या हुआ, तू तो जीती-जागती है!”

“मुझे देख लो, अच्छी तरह देख लो!” पारबती की आँखों से आँसुओं की धार बह-बहकर कानों के पास से होते हुए नीचे गिर रही थी। ...फिर...फिर उससे नहीं देखा गया, जैसे पारबती के प्राण खिंच रहे थे और फिर पारबती के निचले होंठ सूखकर चटक गये थे।...

महेसा की दुनिया वीरान हो गयी और वीरानापन देखकर आदमी पगला जाता है।

बस्ती के आदमियों का यही कहना था कि महेसा पगला गया। जो आदमी, आदमी का ख़याल नहीं करता, वह पागल नहीं तो और क्‍या है? आदमी के दुःख-दर्द को जो नहीं समझता, उसे और क्या कहा जाये? महेसा, वह मुक्त और निश्चिन्त महेसा, एकदम बदल गया था!

उसे सिर्फ़ पैसे की फ़िक्र थी। पारबती का फैला हुआ रुपया वह बड़ी कड़ाई से वसूल कर रहा था। ...घर का अकेलापन उसे काटने दौड़ता। ...इतना प्यार पाकर अब जैसे उसकी आदत बिगड़ चुकी थी।

लोगों ने कहा, “महेसा पण्डित, दूसरी शादी कर लो। इतना रुपया-पैसा किस काम आयेगा? आस-औलाद भी तो नहीं!”

महेसा ने जवाब दे दिया, “पारबती के बराबर कोई मेरा ख़्याल करे तो सोचूँ भी...नहीं, तो भी न सोचूँ। ग़लत बात बोल गया। ...बेकार का मखौल मत किया करो! अब बूढ़ा हो चला ।”

यों पारबती से दस बरस छोटा था महेसा, पर पारबती की मौत के बाद वह उससे दस बरस बड़ा लगने लगा। कनपटियों पर तीन ही बरस में सफ़ेदी आ गयी और गरदन के नीचे की खाल झुर्रियों से भर गयी। सचमुच, आदमी बूढ़ा नहीं होता, वक़्त उसे बूढ़ा बना जाता है।

सूने घर में महेसा आठ-आठ आँसू रोता और उसे पारबती की एक-एक बात याद आती...चीज़ें देखता तो आँखों में आँसू भर आते...वह टीन का बक्सा, जिसमें उसके कपड़े रहते थे...और जिसमें पारवती अपने रुक्के और रुपये भी रखती थी...सन्दूक के ऊपर वाली कील में किनारी में बँधी चूड़ियों का लच्छा देखकर वह उस दिन रो पड़ा था। ...एक-एक चूड़ी उसने पहचानी थी...कौन-सी किस मेले में पहनायी थी उसने...और दूसरा जोड़ा पहनने के वक़्त उसने कब-कब इन चूड़ियों को उतारा था...भरी आँखों से वह देखता रहा। ...घर का सूनापन उसे अब काटने दौड़ता। ...दीवार पर सगनौती की लकीरें देखकर उसे फिर कुछ याद आया...जब एक बार वह दो दिन के लिए कहकर चार दिन बाद लौटा था, शायद तभी पारबती ने गेरू से यह सगनौती उठायी होगी...वह जो कुछ करती थी उसमें सिर्फ़ उसी के लिए तो सब कुछ था, और कौन था उसका? न पारबती का कोई था और न अब महेसा का कोई रह गया है!...

और जब वह जगन नाई के घर धरना देकर बैठ गया कि आज हिसाब मय मूल-व्याज के चुकता करके उठेगा, तो उसकी औरत ने भीतर से उकराकर कहा, “पण्डित, तुम जो इतने जालिम हो कि किसी की पत नहीं देखते! ...पारबती चाची मुँह से चाहे जितना बिगड़ें, पर आदमी की मरजाद और इज़्ज़त का तो ख़्याल करती थीं.”

“ये सब हम नहीं जानते! हम रुपया लेके उठेंगे आज! पूरा सौ रुपया है मय व्याज के!” महेसा ने कड़कती आवाज़ में कहा और चोटी की गाँठ खोल ली।

जगन नाई बहुत गिड़गिड़ाया, “महाराज, घर की नींव खुदवा लो तो भी इस बखत पच्चीस से एक पाई ज़्यादा नहीं निकलेगा। ...थोड़ी सी मोहलत और मिल जाये!”

आख़िर चार भले आदमियों ने आकर जब बहुत समझाया तो महेसा किसी तरह राम-राम करके उठा।

कुछ दिनों बाद महेसा, जो अब महेस पांडे के नाम से पुकारा जाता था, बस्ती से चला गया। सुना, चुनार-मिर्ज़ापुर की तरफ़ पत्थर की तलाश में गया है। कर्ज़दारों ने सुख की साँस ली थी, पर वह पन्द्रह दिन के भीतर-भीतर लौट आया। चौधरी के बाग़ में बैठकर बता रहा था, “पारबती मन्दिर के लिए सामान देखने गया था। सूरत-जयपुर से बनवाऊँगा ।”

लोगों का कहना था कि सोना-चाँदी मिलाकर कुल आठ-दस हज़ार की पूँजी है उसके पास। और जो दबा-दबाया हो सो अलग । इस बीच उसने काफ़ी बकाया रुपया वसूल कर लिया था।

धीरे-धीरे रुपये की उसकी तृष्णा भरती-सी लगी। हाफ़िज़जी की दुकान से गुज़रता तो आवाज़ सुनकर कह देता, “अब क्‍या करूँगा बैठके हाफ़िज़ मियाँ? -पहनने-ओढ़ने वाली तो चली गयी।”

एक दिन हाफ़िज़जी ने उसे हाथ पकड़कर बैठा लिया। बैठे-बैठे बात चल निकली, “सुना, मन्दिर बनवाने की फिकर में हो!”

“बस, यही एक काम करना है हाफिज़जी! किसी तरह मन्दिर और एक छोटी-सी धरमसाला बन जाये, तो मन को शान्ति मिले। पारबती यही कहती-कहती मरी थी।”

“यह तो धरम का काम है। बनाने खड़े होंगे तो दस आदमी हाथ बँटायेंगे। तुम शुरू तो करो ।” हाफ़िज़जी ने उसकी उदास नज़रें देखकर तसल्ली दी, “कभी ज़रूरत पड़े तो दस-बीस रुपये हमसे भी ले लेना।”

“रुपया पूरा नहीं है। लोग समझते हैं मेरे पास खत्ती खुदी है। पर सच हाफिज़जी, कुल चार हज़ार हैं, इतने में तो सीमेंट भी नहीं आयेगा ।”

ग्राहक आया देख हाफ़िज़जी भी उधर उलझ गये और महेस पांडे उठकर चल दिया । ऐसे ही एक दिन वह बस्ती की तरफ़ से घर जा रहा था कि झीलवाले रास्ते पर कुछ लोग दिखाई पड़े। उसके पैर उधर ही उठ गये। कुछ सैलानी थे, चार मर्द और दो औरतें। औरतें सुन्दर तो नहीं थीं, लेकिन फिर भी वह उनके पीछे-पीछे चल दिया। काफ़ी दिनों बाद आया था वह इधर।

नीली झील ख़ामोश थी। किनारों पर गीली आँखों की तरह नमी थी और घास की टहनियाँ हवा के साथ धीरे-धीरे पानी को सहला रही थीं। नरकुल की लम्बी पत्तियाँ, पक्षियों की कलगी की तरह काँप रही थीं और पानी में डूबी सिवार के सूतों से मछलियों के बच्चे कतरा-कतराकर निकल रहे थे। वह किनारे आकर बैठ गया। पानी के नन्‍हे-नन्‍हे बबूले नीचे से ऊपर सतह तक आये, तो लगा किसी मछली ने मोती उगल दिये हों। जलचरों की बारीक आवाजें झील के पानी में गूँज रही थीं और ऊपर पेड़ों पर पक्षियों के पंखों की सरसराहट और सीटियों की मद्धम आवाज़ें थीं।

काले सिर और श्वेत वक्ष वाली गंगाकुररी की हल्की-सी सीटी उसके कानों में पड़ी। आँखें उधर अटक गयीं। झील के ऊपर वह चक्कर काट रही थी, कुछ इस तरह, जैसे उसे चक्कर में उड़ाने वाली अदृश्य डोर किसी के हाथों में हो और वह बस घूमती ही जा रही हो। वह जानता है कि गंगाकुररी पेड़ पर नहीं बैठेगी। तभी वह तीर की तरह पानी के ऊपर गिरी और चमकदार मछली उसकी लम्बी चोंच में थी।

तभी संगीत की आवाज़ उसके कानों में पड़ी। आये हुए सैलानी लोग कुछ गा-बजा रहे थे। नीली झील के शान्त पानी पर उनके स्वर तैरते हुए दूर तक जा रहे थे। उसे बड़ी शान्ति मिली।

फिर सवनहंसों का एक झुण्ड अपने राग का स्वर मिलाता हुआ झील के दूसरे किनारे पर उतर पड़ा और दो-चार हंस गेहूँ और चने के खेत में घुसकर अंकुर खाने लगे। गरदन उठा-उठाकर वे ऐसे देख रहे थे, जैसे अजनबी हों, और सचमुच वे अजनबी ही हैं। महेस पाण्डे का मन न जाने क्यों भर आया! वे सवनहंस अब आये हैं, चार-पाँच महीने रहकर पारबती की तरह चले जायेंगे, या फिर किसी शिकारी का शिकार हो जायेंगे, जैसे पारबती हो गयी। इनके धूसर पंख ख़ून की लकीरों से रंग जायेंगे और इनके पंखों को पकड़कर शिकारी ऐसे लटका ले जायेगा जैसे मुर्दा पारवती को अस्पताल के भंगी पलँग से उठाकर उस सूने बरामदे में ले आये थे।...

तभी करकर्रा बोला, सफ़ेद कलगी की शान में वह गरदन लपकाता हुआ चला जा रहा था। शायद आरामदेह, रेतीली ज़मीन खोज रहा है करकर्रा। ...फिर एक भयंकर धड़ाके की आवाज़ से वह चौंक उठा। बायीं ओर फैले दलदल से सारसनी की तुरही-सी तेज़ चीख़ आयी और गूँजती रही। वह बार-बार चीख़ रही थी और सारस अकुलाया-सा कुछ ऊपर चक्कर काट रहा था। कभी वह दलदल में उतरकर चीख़ता, कभी लम्बे-लम्बे डग भरकर इधर-उधर लपकता और वैसी ही तेज़ आवाज़ में चीख़ने लगता। गिरी हुई सारसनी की आवाज़ फट गयी थी और उसकी गरदन कुचले हुए साँप की तरह फड़फड़ा रही थी।

सवनहंसों का झुण्ड तट से भागकर खेतों में चला गया। ...अभी-अभी कुछ क्षण पहले का स्वप्निल वातावरण एकदम भयानक हो उठा था। झील का पानी सीमा में बद्ध जैसे थर्रा रहा था और भीगे किनारों पर निर्जीव स्वर टकरा रहे थे। पेड़ों में अभी-अभी सनसनाहट भर गयी थी। दलदल में घायल पड़े सारस को उठाकर लाने की हिम्मत नहीं पड़ रही थी किसी की।

महेस पाण्डे ने पास आकर उन सैलानियों को देखा। उसे उम्मीद थी कि पारबती की तरह ऐसे क्षण में इन औरतों की आँखों में पानी डबडबा आया होगा, पर उनमें तो शिकारी के निशाने की प्रशंसा भरी थी।

यह घर लौट आया। रात-भर उस अकेले घर में उसे बार-बार वही तेज़ आवाज़ सुनाई पड़ती रही। फिर जाने कहाँ से अस्पताल में चीख़ती पारबती की आवाजें आने लगीं। ...सुबह होते ही उससे रुका नहीं गया। वह सीधा झील पहुँचा । झील के ऊपर का धुआँ धीरे-धीरे साफ़ हो रहा था। कांद का जोड़ा किनारे पर बैठा काई खा रहा था। झील के शान्त सौन्दर्य ने उसे इस क्षण बिल्कुल प्रभावित नहीं किया। उसके पैर दलदल की ओर बढ़ रहे थे। उसे सारस दिखाई दिया। वह मृत पड़ी सारसनी के पंखों में चोंच गड़ा-गड़ाकर उसे जगा रहा था शायद, और जब सारसनी नहीं जगी, तो वह विलाप करता झील की ओर चला आया।

वहीं पेड़ के नीचे बैठकर वह देखता रहा-मानसरोवर और कैलास से आये देवहंसों को, जो गन्धर्वों के देश से आये थे, प्रवास के लिए...कोमल और पवित्र पक्षी! ...हलकी किरणों में सोनापतारी के स्वर्णपंख चमचमा उठे। उसका मन उदासी से भर गया । इन परदेसी पक्षियों से क्या नाता जोड़ना! बैठे-बैठे जब वह ऊब जाता, तो बस्ती की ओर चला आता।

बस्ती में नाप-जोख होने लगी तो लोगों को विश्वास हुआ कि अब बिजली लग जायेगी। महेस पाण्डे ने भी हाँ में हाँ मिलायी, “सुना, उत्तर की तरफ़ बहुत बिजली पैदा की जा रही है, वहीं से यहाँ आ रही है।”

तभी मुनादीवाला ऐलान करता सुनाई पड़ा, “ब-हुकुम चियरमन साहब के चुंगी की कुछ ज़मीनों का नीलाम ब-तारीख चार जनवरी सोमवार को चुंगी अहाते में सवेरे आठ बजे से होगा... । ज़मीनों के नकसे दफ़्तर चुंगी में ख़रीदारों के लिए लगे हैं! ...हर ख़ास व आम को ख़बर दी जाती है कि...” और मुनादी वाले ने तबले पर बाँस की खपच्चियों से चोट की और आगे बढ़ गया।

चार जनवरी में अभी बीस दिन थे। महेस पाण्डे के दिमाग़ में चबूतरे के पास वाली ज़मीन घूमने लगी। चुंगी को बिजली के लिए रुपये की ज़रूरत है और उसे धर्मशाला के लिए उस ज़मीन की।

मन्दिर और धर्मशाला की बात को लेकर वह सभी के पास पहुँचा, “धरम का काम है। सबसे ज़्यादा रुपया हम लगायेंगे, कुछ मदद आप लोग करें। धरमसाला पंचायती कर दी जायेगी। आप लोग दस-दस, बीस-बीस रुपये से भी मदद करें तो यह कारज हो सकता है।”

मारवाड़ी मिलवालों ने एकमुश्त पचास रुपया दे दिया, लेकिन उसका खाता डाकखाने में खुलवा दिया। महेस पाण्डे ने तीन हज़ार रुपया भी उसी खाते में जमा कर दिया। इन बीस दिनों के बीच वह घर-घर घूमा। मुख़्तारों के पास गया, हलवाइयों और वैद्यों के पास गया, कपड़े के आढ़तियों से लेकर अंग्रेज़ी डॉक्टरों तक पहुँचा और कुल मिलाकर एक हज़ार रुपया और जमा हो गया।

सबकी आँखों में महेस पाण्डे का रुतबा और सम्मान एकाएक बढ़ गया था। अब सिर पर वह गेरुआ साफ़ा बाँधने लगा था और हाथ में लाठी लेकर चलता था। शरीर कुछ शिथिल हो रहा था।

लेकिन इस ढलते शरीर के साथ भी वह दिन-भर घूमता और अपने साफे में किसी चिड़िया का गिरा हुआ सुन्दर-सा पर कलगी की तरह खोंस लेता। चुंगी दफ़्तर में जाकर वह नक्शे भी देख आया था। नीलाम का दिन पास आ रहा था, और जैसे-जैसे वह दिन निकट आता जाता, महेस पाण्डे की उदासी और बढ़ती जाती।

झील पर शिकार खेलने के लिए आदमियों की बहुत-सी टोलियाँ इस बीच आयीं और गयीं, और अपने घर पर बैठे या बस्ती में घूमते हुए उसने जब-जब चीत्कारें सुनीं और साहब शिकारियों को नरम पंख वाली चिड़ियों को लटकाये ले जाते देखा, तब-तब उसे पारबती की याद आयी बेतरह। उसकी हालत भी तो उस सारस के जोड़े की तरह ही थी...

घर में लेटता तो उड़ते पक्षियों के नरम, कोमल पंखों की सरसराहट उसे महसूस होती, जैसे पारबती केलासन की धोती पहने अदृश्य रूप से गुज़र गयी हो। ...पर्वतों से आये मेहमान पक्षियों के सफेद और सेमल की रूई-से सजीले पंख और पारबती के सफ़ेद दाँत!

सुबह उठा तो मन नहीं लगा और वह शान्ति पाने के लिए झील की ओर चला।

झील पर पहुँचकर अपनी लाठी से वह काई को छितराता रहा। सिवार के सूतों को उलझाकर उसने निकाला, नन्हे-नन्हे बीज चुनकर मुँह में डाल लिए और उठकर उधर चला गया, जिस ओर जलमंजरी खिली हुई थी। जलमंजरी के पास से ही दलदल शुरू हो जाता था। नारी की बेल पानी में तारों की तरह बिछी हुई थी और गाँठों के पास नन्हे-नन्हे घोंघे चिपके हुए थे। सूत-सी सफ़ेद नन्ही-नन्ही जड़ें मछली के उजले पंखों की तरह धीरे-धीरे काँप रही थीं। दलदल में घुसकर उसने जलमंजरी के फूल तोड़े और गुच्छा बनाकर लौटने लगा।

सोनापतारी का झुण्ड रात-भर चारा खाकर उड़ने ही वाला था कि एक गोली उस पार से छूटी और उड़ते सोनापतारी के झुण्ड में से एक पक्षी बिलबिलाकर छप्प-से झील के बीचोबीच गिर पड़ा। उसके सोने से पंख पानी पर छितरा गये और नीली झील के ख़ामोश पानी पर एक हलचल हुई। एक क्षण बाद ही लाल ख़ून की एक पतली-सी लकीर पानी पर खिंची और सोनापतारी तैरती हुई उस पार जाने की कोशिश करने लगी। उसके नरम पंख फड़फड़ा रहे थे और पानी पर ख़ून की लकीर उसका पीछा कर रही थी।

झुरमुट में से शिकारी निकले। उन्होंने देखा, पर वह पक्षी, तैरता हुआ उस किनारे निकलकर किसी झाड़ी में दुबककर ख़ामोश हो गया। शिकारियों ने बहुत खोजा पर पक्षी नहीं मिला। झील पर मिटती हुई लकीर के बीच एकाध पंख पड़ा था।

उसका मन उचाट हो गया । जलमंजरी के फूलों को वहीं फेंककर वह लौट आया।

पारबती की याद उसे फिर आयी और नीलामी वाले दिन उसने तीन हज़ार की बोली लगाकर चबूतरे के पास वाली ज़मीन नहीं, दलदली नीली झील ख़रीद ली। लोगों की आँखें फट गयीं। इसका दिमाग़ तो नहीं ख़राब हो गया?

“मन्दिर का नाम लेकर इसने धोखा दिया है। रुपया हजम कर गया है।”

लेकिन उसने किसी को कुछ भी जवाब नहीं दिया, और मन में लगता कि अब तो वह पारबती को भी जवाब नहीं दे सकता । उसके पास जवाब है ही क्या?

फागुन आते-आते मेहमान पक्षी उड़ गये। सवनहंस चले गये, सफ़ेद सुरखाब अपने पुराने घरों में लौट गये। मुअर, सन्‍द, करकर्रा और सरपपच्छी भी चले गये। ...झील बहुत सूनी हो गयी थी, पर महेस पाण्डे को विश्वास था कि ये फिर हमेशा की तरह अपने झुण्डों के साथ कातिक-अगहन तक वापस आवेंगे।

महेस पाण्डे लिखना-पढ़ना तो जानता नहीं था, बस झील वाले रास्ते के पहले पेड़ पर उसने एक तख्ती टाँग दी थी, जिस पर उसने लिखा था, 'यहाँ शिकार करना मना है।' और नीचे की पंक्ति थी, 'दस्तखत नीली झील का मालिक, महेस पाण्डे!'

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रचनाएँ
कमलेश्वर जी की हिन्दी कहानियाँ
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कमलेश्वर का जन्म ६ जनवरी १९३२ को उत्तरप्रदेश के मैनपुरी जिले में हुआ। उन्होंने १९५४ में इलाहाबाद विश्वविद्यालय से हिन्दी साहित्य में एम.ए. किया। उन्होंने फिल्मों के लिए पटकथाएँ तो लिखी ही, उनके उपन्यासों पर फिल्में भी बनी। 'आंधी', 'मौसम (फिल्म)', 'सारा आकाश', 'रजनीगंधा', 'मिस्टर नटवरलाल', 'सौतन', 'लैला', 'रामबलराम' की पटकथाएँ उनकी कलम से ही लिखी गईं थीं। हिन्दी लेखक कमलेश्वर बीसवीं शती के सबसे सशक्त लेखकों में से एक समझे जाते हैं। कहानी, उपन्यास, पत्रकारिता, स्तंभ लेखन, फिल्म पटकथा जैसी अनेक विधाओं में उन्होंने अपनी लेखन प्रतिभा का परिचय दिया। कमलेश्वर का लेखन केवल गंभीर साहित्य से ही जुड़ा नहीं रहा बल्कि उनके लेखन के कई तरह के रंग देखने को मिलते हैं। उनका उपन्यास 'कितने पाकिस्तान' हो या फिर भारतीय राजनीति का एक चेहरा दिखाती फ़िल्म 'आंधी' हो, कमलेश्वर का काम एक मानक के तौर पर देखा जाता रहा है। कमलेश्वर के कुछ ख़ास सृजन में 'काली आंधी', 'लौटे हुए मुसाफ़िर', 'कितने पाकिस्तान', 'तीसरा आदमी', 'कोहरा' और 'माँस का दरिया' शामिल हैं। हिंदी की कई पत्रिकाओं का संपादन किया लेकिन पत्रिका 'सारिका' के संपादन को आज भी मानक के तौर पर देखा जाता है। कमलेश्वर ने तीन सौ से ऊपर कहानियाँ लिखी हैं।
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रात अँधेरी थी और डरावनी भी। झाड़ियों में से अँधेरा झर रहा था और पथरीली ज़मीन में जगह-जगह गढ़े हुए पत्थर मेंढ़कों की तरह बैठे हुए थे। बिजिलांते के बूटों की आवाज़ से दहशत और बढ़ जाती थी। हवा हमेशा की तर

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एक थी विमला

20 जुलाई 2022
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पहला मकान–यानी विमला का घर इस घर की ओर हर नौजवान की आँखें उठती हैं। घर के अन्दर चहारदीवारी है और उसके बाद है पटरी। फिर सड़क है, जिसे रोहतक रोड के नाम से जाना जाता है। अगर दिल्ली बस सर्विस की भाषा में

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क़सबे का आदमी

20 जुलाई 2022
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सुबह पाँच बजे गाड़ी मिली। उसने एक कंपार्टमेंट में अपना बिस्तर लगा दिया। समय पर गाड़ी ने झाँसी छोड़ा और छह बजते-बजते डिब्बे में सुबह की रोशनी और ठंडक भरने लगी। हवा ने उसे कुछ गुदगुदाया। बाहर के दृश्य स

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कितने पाकिस्तान

20 जुलाई 2022
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कितना लम्बा सफर है! और यह भी समझ नहीं आता कि यह पाकिस्तान बार-बार आड़े क्यों आता रहा है। सलीमा! मैंने कुछ बिगाड़ा तो नहीं तेरा...तब तूने क्यों अपने को बिगाड़ लिया? तू हँसती है...पर मैं जानता हूं, तेरी

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खर्चा मवेशियान

20 जुलाई 2022
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राज्य के वन-मन्त्री दौरे पर थे। रिजर्व फारेस्ट के डाक बँगले में उन्होंने डेरा डाला। उनके साथ के लश्कर वालों ने भी। उन्होंने वन अधिकारी को बुलवाया और ताकीद की-देखो रेंजर बाबू! मैं पुराने मन्त्री की तरह

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गर्मियों के दिन

20 जुलाई 2022
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चुंगी-दफ्तर खूब रँगा-चुँगा है । उसके फाटक पर इंद्रधनुषी आकार के बोर्ड लगे हुए हैं । सैयदअली पेंटर ने बड़े सधे हाथ से उन बोर्ड़ों को बनाया है । देखते-देखते शहर में बहुत-सी ऐसी दुकानें हो गई हैं, जिन पर

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चप्पल

20 जुलाई 2022
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कहानी बहुत छोटी सी है मुझे ऑल इण्डिया मेडिकल इंस्टीटयूट की सातवीं मंज़िल पर जाना था। अाई०सी०यू० में गाड़ी पार्क करके चला तो मन बहुत ही दार्शनिक हो उठा था। क़ितना दु:ख और कष्ट है इस दुनिया में...लगातार

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जार्ज पंचम की नाक

20 जुलाई 2022
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यह बात उस समय की है जब इंग्लैंण्ड की रानी ऐलिज़ाबेथ द्वितीय मय अपने पति के हिन्दुस्तान पधारने वाली थीं। अखबारों में उनके चर्चे हो रहे थे। रोज़ लन्दन के अखबारों में ख़बरें आ रही थीं कि शाही दौरे के लिए

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तस्वीर, इश्क की खूँटियाँ और जनेऊ

20 जुलाई 2022
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वे तीन वेश्याएँ थीं। वे अपना नाम और शिनाख्त छुपाना नहीं चाहती थीं। वैसे भी उनके पास छुपाने को कुछ था नहीं। वे वेश्याएँ लगती भी नहीं थीं। उनके उठने-बैठने और बात करने में सलीका था। मेक-अप भी ऐसा नहीं जो

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तुम कौन हो

20 जुलाई 2022
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रात तूफानी थी। पहले बारिश, फिर बर्फ की बारिश और बेहद घना कोहरा। अगर हवा तेज न होती तो शायद इतनी मुसीबत न उठानी पड़ती। पर हवा और हवा में फर्क होता है। यह तो तूफानी हवा थी जो तीर की तरह लगती थी। गाड़ी व

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नीली झील

20 जुलाई 2022
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बहुत दूर से ही वह नीली झील दिखाई पड़ने लगती है। सपाट मैदानों के छोर पर, पेड़ों के झुरमुट के पीछे, ऐसा मालूम पड़ता है, जैसे धरती एकदम ढालू होकर छिप गया हो, लेकिन गौर से देखने पर ऊँचे-ऊँचे पेड़ों के बीच

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पेट्रोल

20 जुलाई 2022
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मन्त्री जी लम्बे दौरे से लौट रहे थे। अरे ड्राइवर! पेट्रोल पूरा भरवा लिया था? जी साब, भरवा नहीं पाया। पर इतना है कि घर तक आराम से पहुँच जाएँगे! तभी रास्ते में उन्हें अपने चुनाव क्षेत्र के दो लोग मिल

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मांस का दरिया

20 जुलाई 2022
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जाँच करने बाली डॉक्टरनी ने इतना ही कहा था कि उसे कोई पोशीदा मर्ज नहीं है, पर तपेदिक के आसार ज़रूर हैं। उसने एक पर्चा भी लिख दिया था। खाने को गिज़ा बताई थी। कमेटी पहले ही पेशे पर रोक लगा चुकी थी। सब प

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राजा निरबंसिया

20 जुलाई 2022
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'एक राजा निरबंसिया थे', मां कहानी सुनाया करती थीं। उनके आस-पास ही चार-पांच बच्चे अपनी मुट्ठियों में फूल दबाए कहानी समाप्त होने पर गौरों पर चढ़ाने के लिए उत्सुक-से बैठ जाते थे। आटे का सुन्दर-सा चौक पुर

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लाश

20 जुलाई 2022
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सारा शहर सजा हुआ था। खास-खास सडकों पर जगह-जगह फाटक बनाए गए थे। बिजली के खम्भों पर झंडे, दीवारों पर पोस्टर। वालण्टियर कई दिनों से शहर में पर्चे बाँट रहे थे। मोर्चे की गतिविधियाँ तेज़ी पकडती जा रही थीं।

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सफेद सड़क

20 जुलाई 2022
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सुबह खिड़की के काँच पर भाप जमी थी। भीतर से साफ करना चाहा तो बाहर पानी की लकीरें नरम बर्फ की परत जमी रहीं। फिर भी कुछ-कुछ दिखाई देता था। ट्रेन किसी मोड़ पर थी। उसके कूल्हे पर खूबसूरत खम पड़ रहा था। नर्

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सवाल नंगी सास का

20 जुलाई 2022
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सुबह खिड़की के काँच पर भाप जमी थी। भीतर से साफ करना चाहा तो बाहर पानी की लकीरें नरम बर्फ की परत जमी रहीं। फिर भी कुछ-कुछ दिखाई देता था। ट्रेन किसी मोड़ पर थी। उसके कूल्हे पर खूबसूरत खम पड़ रहा था। नर्

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सीख़चे

20 जुलाई 2022
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जिन्दगी के दूसरे पहर में यदि सूरज न चमका तो दोपहरी कैसी ? बादल आते हैं, फट जाते हैं, परन्तु ये भूरे धुँधले बादल तो उसे हटते नजर ही नहीं आते। अगर उसका अपना दूसरा सूरज हो तो कैसा रहे ? इस मुहल्ले में अ

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सुबह का सपना

20 जुलाई 2022
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बात असल में यों हुई। उन दिनों शहर में प्रदर्शनी चल रही थी। जाने की कभी तबीयत न हुई। आखिर एक दिन मेरे मित्र मुझे घर से पकड़ ले गए। शायद आखिरी दिन था उसका। चला गया, पर ऐसे जमघटों में अब मन नहीं जमता। वह

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हवा है, हवा की आवाज नहीं है

20 जुलाई 2022
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कैरीन उदास थी। उसे पता था कि सुबह हमें चले जाना है। लेकिन उदास तो वह यों भी रहती थी। उस दिन भी उदास ही थी, जब पहली बार मिली थी। हम हाल गाँव का रास्ता भूलकर एण्टवर्प के एक अनजाने उपनगर में पहुँच गये थे

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शास्त्रज्ञ मूर्ख (हितोपदेश)

20 जुलाई 2022
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किसी नगर में चार ब्राह्मण रहते थे। उनमें खासा मेल-जोल था। बचपन में ही उनके मन में आया कि कहीं चलकर पढ़ाई की जाए। अगले दिन वे पढ़ने के लिए कन्नौज नगर चले गये। वहाँ जाकर वे किसी पाठशाला में पढ़ने लगे।

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अपनी-अपनी दौलत

20 जुलाई 2022
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पुराने ज़मींदार का पसीना छूट गया, यह सुनकर कि इनकमटैक्स विभाग का कोई अफसर आया है और उनके हिसाब-किताब के रजिस्टर और बही-खाते चेक करना चाहता है। अब क्या होगा मुनीम जी ? ज़मींदार ने घबरा कर कहा-कुछ करो म

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आत्मा की आवाज़

20 जुलाई 2022
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मैं अपना काम खत्म करके वापस घर आ गया था। घर में कोई परदा करने वाला तो नहीं था, पर बड़ी झिझक लग रही थी। गोपाल दूर के रिश्ते से बड़ा भाई होता है, पर मेरे लिए वह मित्र के रूप में अधिक निकट था। आंगन में च

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इंटेलैक्च्युअल

20 जुलाई 2022
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हिन्दी के एक बड़े आदरणीय आचार्य थे। आस्था से वे घनघोर सनातनी थे। लेकिन एक दिन न जाने क्‍या हुआ कि आचार्य जी ने सनातन धर्म की धज्जियाँ निकाल दीं। आर्य समाजियों को ख़बर मिली। वे बड़े प्रसन्‍न हुए। उन्ह

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एक अश्लील कहानी

20 जुलाई 2022
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नग्नता में भयानक आकर्षण होता है, उससे आदमी की सौन्दर्यवृत्ति की कितनी सन्तुष्टि होती है और कैसे होती है, यह बात बड़े दुःखद रूप में एक दिन स्पष्ट हो ही गयी। अनावृत शरीर से न जाने कैसी किरनें फूटती हैं,

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कर्त्तव्य

20 जुलाई 2022
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शाही हरम की बेगमों की डोलियाँ बीजापुर से दिल्ली की ओर जा रही थीं : रास्ता बीहड़ और सुनसान था। रास्ते में मराठा महाराज शिवाजी का इलाका तो पड़ता ही था। सेना के अपने दुश्मन और अपनी दक्षता होती है, साथ ही

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कामरेड

20 जुलाई 2022
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लाल हिन्द, कामरेड!--एक दूसरे कामरेड ने मुक्का दिखाते हुए कहा। लाल हिन्द--कहकर उन्होंने भी अपना मुक्का हवा में चला दिया। मैं चौंका, और वैसे भी लोग कामरेड़ों का नाम सुन कर चौंकते हैं! वास्तव में किसी ह

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कोहरा

20 जुलाई 2022
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पियरे की बात मुझे बार-बार याद आ रही थी-पैसे से उजाला नहीं होता ! अगर होता, तो हमारा देश सूरज को खरीद लेता ! लेकिन तुम सूरज नहीं खरीद सकते ! उस वक्त हम एक छोटी-सी घाटी में खड़े हुए थे। रीथ भी साथ थी।

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खामोशी एडगर ऐलन पो

20 जुलाई 2022
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'मेरी बात सुनो,' शैतान ने मेरे सिर पर हाथ रखते हुए कहा, 'जिस जगह की मैं बात कर रहा हूँ, वह लीबिया का निर्जन इलाका है - जेअर नदी के तट के साथ-साथ, और वहाँ न तो शांति है, न खामोशी। नदी का पानी भूरा मटमै

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गार्ड आफ ऑनर

20 जुलाई 2022
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मिली-जुली गठबन्धन सरकार के एक मन्त्री। पुलिस लाइन में उनका दौरा था। कार से उतरते ही वे प्रशंसकों-चापलूसों से घिर गए। गले में मालाएँ पड़ने लगीं। फूलों की बौछार। नारों की जय-जयकार। तब एक पुलिस अफसर भी

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चौकी-चौका -बंदर

20 जुलाई 2022
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एक पण्डित जी घर के चबूतरे पर चौकी लगाकर बैठते थे। मोहल्ले के लोग कभी धर्म पर, कभी स्वास्थ्य पर, कभी ध्यान योग पर उनके उपयोगी प्रवचन सुनते थे। उसी चौकी पर लोग दान-दक्षिणा रख देते थे। उसी से पण्डित जी

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तलाश

20 जुलाई 2022
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उसने बहुत धीरे-से दरवाज़े को धक्का दिया। वह भीतर से बंद था। जब तक वह सोई थी, तब तक बीचवाला दरवाज़ा बंद नहीं किया गया था। भिड़े हुए दरवाज़े की फाँक से रोशनी का एक आरा-सा गिरता रहा था, रोशनी मोमिया कागज

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तीसरा संस्करण

20 जुलाई 2022
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एक बौद्ध भिक्षु था। उसने छह खण्डों में भगवान गौतम बुद्ध की जीवनी लिखी। लगभग तीन हजार पृष्ठों के उस भारी-भरकम ग्रन्थ को प्रकाशित करने के लिए कोई प्रकाशक तैयार नहीं हुआ। भिक्षु बहुत निराश हुआ। तब समाज क

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दिल्ली में एक मौत

20 जुलाई 2022
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मैं चुपचाप खडा सब देख रहा हूँ और अब न जाने क्यों मुझे मन में लग रहा है कि दीवानचंद की शवयात्रा में कम से कम मुझे तो शामिल हो ही जाना चाहिए था। उनके लडके से मेरी खासी जान-पहचान है और ऐसे मौके पर तो दुश

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पत्थर की आँख

20 जुलाई 2022
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यह दो दोस्तों की कहानी है। एक दोस्त अमेरिका चला गया। बीस-बाईस बरस बाद वह पैसा कमाके भारत लौट आया। दूसरा भारत में ही रहा। वह गरीब से और ज्यादा गरीब होता चला गया। अमीर ने बहुत बड़ी कोठी बनवाई। उसने अपने

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भूख

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पूस की दाँतकाटी सर्दी पड़ रही थी। बच्चा भूखा था। माँ के स्तनों में दूध नहीं था। थोड़ी दूर पर एक अलाव जल रहा था। भूखा बच्चा माँ के स्तनों को निचोड़ता पर जब दूध नहीं निकलता था तो वह बच्चे को लेकर अलाव क

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मुक़ाबला

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सभी को मालूम है कि शेर बहुत सफाई पसन्द होता है। एक बार हुआ यह कि किसी बात पर शेर और जंगली सुअर में झगड़ा हो गया। जंगल के लगभग सभी जानवर शेर से भयभीत रहते थे। उन्हें मौका मिल गया। उन्होंने सोचा, जंगली

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रावल की रेल

20 जुलाई 2022
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तो दोस्तो, हुआ ऐसा कि मैं कच्छ के दिशाहारा रेगिस्तान की यात्रा से ध्वस्त और त्रस्त किसी तरह भुज (गुजरात) पहुँचा। स्टेशन के अलावा और कोई भरोसे की जगह नहीं थी, इसलिए वहीं चला गया। स्टेशन पर मीटर गेज की

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वीपिंग-विलो

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हैम्पटन कोर्ट पैलेस से निकलकर गरम चाय पीने की तलब सता रही थी। पुराने किलों या महलों से निकलकर जैसी व्यर्थता हमेशा भीतर भर जाती है, वैसी ही व्यर्थता मन में भरी हुई थी। एक निहायत बेकार-सी अनुभूति। उदासी

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सर्कस

20 जुलाई 2022
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सर्कस तो आपने जरूर देखा होगा। उसमें तरह-तरह के ख़तरनाक और दिल दहलाने वाले करतब दिखाए जाते हैं। शायद आपने वह बेमिसाल खेल भी देखा हो, जिसमें लकड़ी का एक बड़ा चक्‍का घूमता हुआ आता है। उसी के साथ एक छरहरे

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सिपाही और हंस

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तो दोस्तो ! आपको एक कहानी सुनाकर मैं अपनी बात समाप्त करूँगा। हुआ यह कि अंग्रेज भारत छोड़ कर जा चुके थे। राजे-महाराजों-नवाबों की रियासतों का विलय विभाजित भारत में हो चुका था। इंदिरा गांधी ने इनके लाखो

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सुख

20 जुलाई 2022
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यह किस्सा मुझे वरसोवा के एक मछुआरे ने सुनाया था। तब मैं अपने वीक-एण्ड घर 'पराग' में आकर रुकता था और सागर तट पर घूमता और डूबते सूरज को देखा करता था। तब मेरी जिन्दगी को अफ़वाहों का पिटारा बना दिया गया थ

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हमलावर कौन ?

20 जुलाई 2022
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दोस्तो! यह आज के यथार्थ को पेश करती एक दारुण कहानी है। इसके लेखक हैं-मुद्राराक्षष। यह कालजयी कहानी मैं आपको सुनाता हूँ- भारत-पाकिस्तान युद्ध । भारत की सेनाएँ पाकिस्तानी इलाकों को जीतती हुई भीतर तक पा

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लघु-कथाएँ

20 जुलाई 2022
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घूँघटवाली बहू बात वृन्दावन की है। मैं मन्दिरों में नहीं जाता। देखना हो तो जाने से परहेज भी नहीं करता। कहा गया कि बिहारी जी का मन्दिर तो देख ही लीजिए। यानी दर्शन कर लीजिए। गया। पर रास्ते और आस-पास की

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इनसान और भगवान्

20 जुलाई 2022
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यह एक अजीब विस्मयकारी और चौंकानेवाला दृश्य था। भादों का महीना और कृष्ण जन्माष्टमी का अवसर। निर्जला व्रत किए लाखों लोगों का हुजूम, जो कृष्ण जन्माष्टमी के महोत्सव में शामिल होने आए थे। कृष्ण मंदिरों के

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अष्टावक्र का विवाह

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एक बार महर्षि, अष्टावक्र महर्षि वदान्य की कन्या के रूप पर मोहित हो गये। उन्होंने उसके पिता के पास जाकर उस कन्या के साथ विवाह करने की इच्छा प्रकट की। तब महर्षि वदान्य ने मुस्कराते हुए अष्टावक्र से कहा,

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दीर्घतमा और प्रद्वेषी

20 जुलाई 2022
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प्राचीन काल में उतथ्य नाम के एक ऋषि थे। उनकी स्त्री का नाम ममता था। ममता अत्यन्त रूपवती थी। जब वह चलती तो आश्रम में एक बार तो उस रूप की गन्ध चारों ओर बिखर जाती। ममता के इस अनुपम रूप को देखकर उतथ्य के

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बिलाव और चूहे

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किसी विशाल घने वन में एक विशाल बरगद का वृक्ष था। उसकी जड़ों में सौ मुँह वाला बिल बनाकर पालित नाम का एक चूहा रहता था। उसी वृक्ष की डाल पर लोमश नाम का एक बिलाव रहता था। कुछ दिनों बाद एक चाण्डाल भी आकर उ

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कबूतर और बहेलिया

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प्राचीन काल में एक क्रूर और पापात्मा बहेलिया रहता था। वह सदा पक्षियों को मारने के नीच कर्म में प्रवृत्त रहता था। उस दुरात्मा का रंग कौए के समान काला था और उसकी आकृति ऐसी भयानक थी कि सभी उससे घृणा करते

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मृत्यु ही ब्रह्म है

20 जुलाई 2022
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याज्ञवल्क्य ने जाने कितने छात्रों को, जाने कितनी बार पढ़ाया होगा यह सूक्त। कितनी बार दुहराया होगा वह अर्थ जो उन्होंने अपने गुरु से सुना था। पर आज पहला मन्त्र पढ़ना आरम्भ किया, “न असत् आसीत् न सत् आसीत

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गुरु मिले तो

20 जुलाई 2022
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वरुण एक जमाने में सबसे बड़े देवता थे। इन्द्र से भी बड़े। जिस काम के लिए बाद में इन्द्र बदनाम हुए उसका भी कुछ सम्बन्ध वरुण से था। नतीजा यह कि अनेक ऋषियों को वरुण की सन्तान होने का सौभाग्य प्राप्त हुआ।

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कुत्ते का ब्रह्म ज्ञान

20 जुलाई 2022
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बात बहुत पुरानी है। उस समय कुत्ते आदमी की और आदमी कुत्तों की भाषा जानते थे और कुछ कुत्ते तो सामगान करते हुए भौंकते थे। जो लोग कुत्तों की भाषा समझ लेते थे वे कुत्तों के ज्ञान पर आदमी के ज्ञान से अधिक भ

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वररुचि की कथा

20 जुलाई 2022
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वररुचि के मुँह से बृहत्कथा सुनकर पिशाच योनि में विन्ध्य के बीहड़ में रहने वाला यक्ष काणभूति शाप से मुक्त हुआ और उसने वररुचि की प्रशंसा करते हुए कहा, आप तो शिव के अवतार प्रतीत होते हैं। शिव के अतिरिक्त

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गुणाढ्य

20 जुलाई 2022
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गुणाढ्य राजा सातवाहन का मन्त्री था। भाग्य का ऐसा फेर कि उसने संस्कृत, प्राकृत और अपभ्रंश तीनों भाषाओं का प्रयोग न करने की प्रतिज्ञा कर ली थी और विरक्त होकर वह विन्ध्यवासिनी के दर्शन करने विन्ध्य के वन

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राजा विक्रम और दो ब्राह्मण

20 जुलाई 2022
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संसार में प्रसिद्ध उज्जयिनी नगरी महाकाल की निवासभूमि है। उस नगरी के अमल धवल भवन इतने ऊँचे-ऊँचे हैं कि देखकर लगता है जैसे कैलास के शिखर भगवान शिव की सेवा के लिए वहाँ आ गये हों। उस नगरी में यथा नाम तथा

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शूरसेन और सुषेणा

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गोमुख ने कहा, श्रावस्ती में शूरसेन नाम का एक राजपुत्र था। वह राजा का ग्रामभुक था। राजा के लिए उसके मन में बड़ी सेवा भावना थी। उसकी पत्नी सुषेणा उसके सर्वथा अनुरूप थी और वह भी उसे अपने प्राणों की तरह च

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कैवर्तक कुमार

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राजगृह में मलयसिंह नाम के राजा राज्य करते थे। उनके मायावती नाम की अप्रतिम रूपवती एक कन्या थी। एक बार वह राजोद्यान में खेल रही थी तभी एक कैवर्तककुमार (मछुआरे के बेटे) की दृष्टि उस पर पड़ गयी। सुप्रहार

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