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कोहरा

20 जुलाई 2022

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पियरे की बात मुझे बार-बार याद आ रही थी-पैसे से उजाला नहीं होता ! अगर होता, तो हमारा देश सूरज को खरीद लेता ! लेकिन तुम सूरज नहीं खरीद सकते !

उस वक्त हम एक छोटी-सी घाटी में खड़े हुए थे। रीथ भी साथ थी। तभी उस घाटी में एकाएक सूरज ऐसे निकला, जैसे किसी ने आसमान से तेज रोशनी जलाकर हमें देखा हो....फिर वह रोशनी एक मिनट में ही धीरे-धीरे बुझने लगी थी। मौसम फिर धुँधला और उदास हो गया था।

रीथ ने बड़ी कोमलता से पियरे को देखते हुए पूछा था-तुम अपने ही देश से इतने नाराज़ क्यों हो ?

हर नौजवान अपने देश से नाराज़ है ! पियरे ने तीखा-सा जवाब दिया तो रीथ उसी तरह चुप हो गई जैसे हिंदुस्तानी लड़कियाँ लगभग चुप हो जाती हैं....प्रश्न उसी तरह से आधे-अधूरे लटके रह जाते हैं।

हवा तीखी थी। खुली घाटी में उस तीखी हवा को सहना अब मुश्किल हो रहा था। रीथ के खुले बाल उड़ रहे थे। उनसे हल्की-हल्की गरमाहट और महक की छोटी-छोटी लहरें आतीं और सर्द हवा की बड़ी लहरों में खो जातीं। चारों तरफ कोहरा गिरने लगा था।...हमें पतझड़ से भरे जंगलों में से होते हुए वापस लौटना था। आखिर खुली घाटी में कोई कब तक रुक सकता है...कुछ ऐसी ही बात पियरे ने भी कही थी जो मेरे अवचेतन में ठहरी हुई थी। रीथ के पास से कभी- कभी ओस भीगी घास की गंध फूटती थी, कभी पतझड़ के सूखे पत्तों की कोसी-कोसी महक। मुझे लगता था कि उसकी इस गंध का कुछ हिस्सा मेरा भी था, पर वह बात वहीं रुकी थी...महाबलेश्वर की उस चट्टान पर जहाँ खडे़ होकर दोनों ने सूर्यास्त देखा था। कोयना घाटी में पूरे दिन घूमकर और थककर हम दोनों लौटे थे। बात तो कुछ भी नहीं थी, पर जितनी थी, उसी से रीथ ने समझ लिया था और बिना किसी बहाने के बता दिया था। तब बिलकुल एक हिंदुस्तानी की तरह, प्रकृति और उसके मोहक मिथक को रोमानी विश्वास में बाँधते हुए उसने कहा था-मुझे लगता है कि किसी चट्टान पर खड़े होकर जो कुछ कहा जाता है....उसका कुछ अर्थ होता है...

-मैं समझा नहीं !

-यही कि मैं तुम्हें कोई वचन नहीं दे सकती।

-मैंने तो कोई वचन नहीं माँगा ! मैंने उसे आश्चर्य से देखा था।

-माँगा तो नहीं, पर तुम्हारा मन माँगने के लिए तैयार है...तो अच्छा है न कि मैंने तुम्हें पहले ही आगाह कर दिया, ताकि तुम्हें बुरा न लगे...देखो ‘डी’ ! जब मैं भारत चली थी, तो लूजान में पियरे ने कहा था...मेरा इंतजार करना। मैं...मैं उसका इंतजार करने के लिए मजबूर हूँ, क्योंकि मैंने उससे कहा था-अच्छा।

और तब से मुझे मालूम है कि रीथ और मेरे बीच कुछ भी घटित नहीं हुआ था और वह किसी का इंतजार करती रही और मेरे किसी का....महाबलेश्वर की कोयना घाटी में हम दोनों फिर आदिवासियों के बीच काम करने लौट गए थे....जीप में बैठ-बैठे रीथ ने कहा था-पता है, ऑस्कर वाइल्ड ने क्या लिखा है ?

-किस संबंध में ?

-उसी के बारे में जिसके बारे में तुम सोच रहे थे।

मैं फिर आश्चर्य में पड़ गया। रीथ हमेशा मन की बातों को रहस्यमय बना देती थी। वह खुद ही बोली-यही लिखा है कि शादी वह रोमांस है जिसमें कोई एक मुख्य पात्र पहले ही अध्याय में मर जाता है...

मैं रीथ के मन में उठ रहे ज्वार भाटे को पहचान रहा था। हालाँकि हमारे बीच इस तरह की बातों के लिए कोई बहुत गहरी इच्छा या आकांक्षा नहीं थी-पर दोस्तों की तरह हम यह बातें भी कर सकते थे।

-एक बात है न ?

-क्या ?

-यही कि एक-दूसरे को चाहने से ज़्यादा उन चीज़ों और बातों की ज़रूरत होती हैं, जिन्हें दोनों मिलकर चाह सकें !

-या कुछ बातों और हालातों से एक-सी नफरत कर सकें ! मैंने बात का रुख बदल दिया था।

-यह तुम्हारी सोच नहीं है !

-तुम मुझे कितना जानती हो ?

-तुम्हें ज़्यादा नहीं, पर तुमसे ज़्यादा भारत को जान सकी हूँ...

उसी के कुछ दिनों बात मैं कोयना से लौट आया था। रीथ का कुछ काम बाकी था, वह तीन महीने बाद लौटी, बंबई में मिली। उसने पियरे से फोन पर बात की और चौथे दिन अपने देश स्विट्जरलैंड लौट गई।

यह तो आकस्मिक ही था कि लूज़ान के जिस कम्यून में मुझे ठहरना था, रीथ और पियरे भी उसी कम्यून में रह रहे थे। हम विश्वास ही नहीं कर सके थे कि हम इस तरह, एक-दूसरे को कभी याद किए बिना, यों मिल जाएँगे। यह तो मुझे मालूम था कि रीथ लूज़ान में रहती है, उसका पता भी मेरे पास था, पर नए वर्ष का एक कार्ड उस पते से लौट आया था। बस, मेरे और रीथ के बीच का ही वही अंतिम एहसास था। मैंने तो फिर भी कार्ड भेजा था, रीथ ने अपने देश पहुँचकर एक लाइन का पत्र तक नहीं लिखा था। मन में न कोई नाराजगी थी न उदासी। पर इस तरह एक घटना के रूप में मिलकर मुझे ख़ुशी बहुत हुई थी...यह तो कभी सोचा ही नहीं था। इतना नाटकीय था यह मिलना कि हम अवाक्-से रह गए। फिर रीथ ने पियरे से मेरा परिचय करवाया था। मुझे अच्छा यह भी लगा था कि रीथ अब पियरे के साथ थी। यानी महाबलेश्वर की उस चट्टान पर खड़ी रीथ ने जो कुछ कहा था, उसमें सचमुच कुछ अर्थ था शादी उन्होंने अभी नहीं की थी...पर वे इस कम्यून के दो सदस्यों की तरह अलग-अलग कमरों में रह रहे थे...साथ होने का यह नितांत निःसंग सुख था।

रीथ मुझे चाय पिलाने अपने कमरे में ले गई थी। बाहर शुरू सर्दी की पैनी हवा चल रही थी। खिड़की से दिखाई देती पहाड़ियाँ कोहरे में डूबी हुई थीं। लगता था वे सफेद मफलर लपेटे थीं।

-यह कितना अजीब है !

-क्या ?

-इस तरह मिलना। कहते हुए रीथ मेंथल की चाय बनाती रही।

-हाँ ! कहकर मैं दीवार पर चिपके एक पोस्टर को देखता रहा-वह एक व्यंग्य पोस्टर था। तमाम भेड़ें सिर झुकाए एक साथ चली जा रही थीं, झुंड की झुंड !

-हम सेठों के सेठ हैं। चाय रखते हुए रीथ बोली।

-मतलब ?

-यानी हम स्विट्जरलैंड वाले....हम सेठ मुल्कों का पैसा अपने यहाँ रखते हैं...हम पैसे से पैसा उगाते हैं।

-और गरीब मुल्कों को तुम्हारा देश हथियारों के स्पेयर पार्ट्स बेचता है।

-ताकि गरीब देशों में उन्नति न हो ! यह पियरे की आवाज़ थी। वह दरवाज़े पर दस्तक देकर अंदर आ गया था। रीथ ने चाय तीन हिस्सों में बाँट दी। हम चाय पीने लगे।

-यह व्यंग्य पोस्टर क्या है ?

-यह स्विस मज़दूरों की विफल हड़ताल पर एक टिप्पणी है। सारी भेड़ें सिर झुकाए वापस लौट रही हैं...

-यह लिखा क्या है...रेतो अला नारमेल...

-यानी सब सामान्य हो गया है। रीथ ने अंग्रेज़ी में बताया। चाय के घूँट से उसके होंठ भीगकर बड़े मोहक हो गए थे। पर इस भारतीय मन में यही बात बार-बार उठती थी-यह मेरे लिए नहीं....यह मेरे लिए नहीं...अनासक्ति का भारतीय महामंत्र।

-हम दवाएँ बनाते हैं। यह पियरे का स्वर था-पूरी दुनिया को दवाएँ देते हैं, पर हमारे पास अपने रोगों की दवा नहीं है...

रीथ ने बड़ी कातर दृष्टि से पियरे को देखा था-डी ! हर वक्त अपने देश से नाराज़ रहना कोई बहुत अच्छी बात नहीं है...

और यह ‘डी’ सुनकर मेरे मन में कुछ झनकार सी उठी थी। शायद रीथ भूल गई थी। उसने भारत में कई बार इसी ‘डी’ से मुझे पुकारा था। लेकिन पियरे ने रीथ की बात की ओर कोई खास ध्यान नहीं दिया था, वह बोला था-हमारे देश की दवाई कंपनियों में सभी पड़ोसी देशों के मज़दूर रोजाना आते हैं और शाम को इंटरनेशनल ट्रेनों से अपने देशों-घरों को लौट जाते हैं...दूसरी सुबह फिर आते हैं-फिर लौट जाते हैं, फिर आते हैं...इसी में दिन पर दिन बीतते जाते हैं आजकल थोड़ी क्राइसिस है, योगोस्लाविया देश ही दुनिया के नक्शे से मिट गया, सोवियत यूनियन की तरह अब योगोस्लाव मज़दूर नहीं आते..वे दवाएँ बनाने की जगह हाथों में गिन लिए अपने ही सर्बियन या क्रोशियन या बोसनियन लोगों को मार रहे हैं।

-यह अच्छा है क्या ?

-अच्छा हो या न हो...हम हत्याओं का विरोध तब करते हैं, जब उनका असर हमारी अर्थव्यवस्था पर पड़ता है, नहीं तो हम खुद हत्याओं के लिए हथियारों का सौदा करते और मुनाफा कमाते हैं।

-डी, तुम बहुत नाराज़ हो। कहते हुए रीथ ने उसके बालों को लहरा दिया।

-चलो ! इन्हें घुमा लाएँ। पियरे ने चाय के प्याले उठाते हुए प्रस्ताव रखा था।

और हम तीनों लेमॉन के तट से होते हुए, चिनार के दरख्तों के झड़ते पीले और लाल पत्तों के कालीन पर से गुज़रकर इस खूबसूरत छोटी सी घाटी में आ गए थे। पठार पर बसा है लूज़ान पठार भी समतल नहीं, ऊँचा नीचा।

पियरे का मन, लगता था कि कभी-कभी एकदम उचट जाता था। वह बातें करते-करते अपने भीतर समा जाता था। बहुत खूबसूरत आदमी था पियरे....पर उसके भीतर क्या चटका हुआ था, यह मुझे तब तक पता नहीं था। मन में ज़रा-सी देर के लिए यह भी आया था कि पियरे कहीं मुझसे ही तो खीझा हुआ नहीं था ? रीथ ने उसे कुछ बताया होगा...उन थोड़े से भारतीय दिनों के बारे में, तो कहीं उसके मन में मैं तो नहीं खटक रहा था। यों बताने के लिए था भी क्या, वह तो एक नाटक भर था, जो हमने खुद लिखा और खुद ही खेला था...पर जिसके पात्रों को हमने जिया नहीं था। यूँ भी रीथ और पियरे के सघन संबंधों में कोई वर्जना या हिचक भी दिखाई नहीं दी थी।

धीरे-धीरे हम पठार और उस घाटी में उतर आए थे। पियरे रीथ का हाथ थामे हुए था।

नीचे उतरते हुए रीथ ने पियरे से पूछा था-अब तुम्हारा मन क्या कहता है ?

मैं संदर्भ नहीं समझा पाया। वह बात मेरे लिए थी भी नहीं।

पियरे ने उसे ही उत्तर दिया-सुबह तब सोचूँगा।

-तुम अपनी आत्मा को इतना मत झकझोरो।

मुझे लगा कि यह उनकी व्यक्तिगत बात थी, पर पियरे के उत्तर ने मेरे कयाम को तोड़ दिया। वह तल्खी से बोला। इन लोगों ने किसी की आत्मा को छोड़ा है क्या ?...आत्मा है कहाँ ?

रीथ फिर हिंदुस्तानी लड़की की तरह चुप हो गई थी और हम रास्ते भर लगभग चुपचाप चलते हुए कम्यून में लौट आए थे। शाम हो रही थी।

खाने का बड़ा कमरा। वहीं सूचनावाला बड़ा बोर्ड लगा था। पता चला कि एक साथ खाने के लिए सब यहीं जमा होते थे। पर कुछेक उस बोर्ड पर अपनी अनुपस्थिति का संदेश लिखकर चले गए थे। मुझे भी दस्तक देकर बुला लिया गया था।

बड़े कमरे में ग्रीक गायक थियोडोराकिस और मेक्सिकन गायिका जॉन बायेज के बड़े-बड़े चित्र लगे हुए थे। वही अमेरिकन और मेक्सिकन गायिका जॉन बायेज़ जो नीग्रो लोगों की आज़ादी के लिए गाती रही है। थियोडोराकिस को तो ग्रीस से देश निकाला मिला हुआ था...

हाँ क्योंकि यह ग्रीस के फौजी शासन से आज़ादी माँगता। गाता था और आज़ादी माँगता था। यह आवाज़ पियरे की थी। पता नहीं उसने मेरे मन का सवाल कैसे जान लिया था ? उसने जैसे छाया को पकड़ लिया था...यही तो रीथ की भी खूबी है ! वह भी मन की छायाओं को पकड़ लेती है।...

बाहर कोहरा घना होता जा रहा था। पहाड़ियाँ कालिख और कोहरे में छिपती जा रही थीं...कमरा जैसे सिकुड़ता जा रहा था...अँधेरा बड़ी चीजों को भी छोटा कर देता है।

मेज़ पर बड़ी काही रंग की बोतलों में अल्जीरिया की तबूरका वाइन रखी थी। रीथ ने मिट्टी के प्यालों में थोड़ी-थोड़ी वाइन हमें दी। हम चार ही थे। मैं रीथ, पियरे और माइकेल किसी और का इंतज़ार शायद नहीं था। रीथ ने ही बताया था कि मारियाने जिनीवा चली गई थी, अपनी किताब के प्रूफ देखने, नहीं तो वह होती। डेनिश जार्ज प़ॉप म्यूजिक कन्सर्ट के लिए यूथ सेंटर चला गया था। मैं इधर-उधर देख ही रहा था कि तब तक रीथ ने मिट्टी के बड़े प्याले में उबले आड्डुओं के कतरों पर सफेद रम डालकर मोमबत्ती से उसे जला दिया था। आड्डुओं से निकलती लौ से कमरे में हल्का-हल्का नीला उजाला सा भर गया था। उजाले में मैंने वह पोस्टर देखा एक बच्चा मुँह चिढ़ाता और बड़ी शान से जिप खोले सूसू कर रहा था।

यह ठीक कर रहा है न ! फिर पियरे ने मेरे मन की छाया को पकड़ लिया था।

कोहराम मचा दिया। मैंने कुछ समझ नहीं पाया। रीथ ने मोमबत्तियाँ बुझा दीं, फिर रीथ, पियरे और माइकेल काँच की खिड़कियों के पार देखने की कोशिश करने लगे...

तुम्हें कब जाना था ? माइकेल ने कुछ घबराए स्वर में पियरे से पूछा था-कहीं वे...

नहीं ! मुझे कल सुबह-सुबह रिपोर्ट करना है। पियरे ने उसे उत्तर दिया था।

ओह, क्राइस्ट तब ठीक है। माइकेल ने राहत की साँस ली। साइरन की कोहराम मचाती आवाजें अब दूर चली गई थीं।

रीथ ने तीनों मोमबत्तियाँ फिर जला दी थीं। आड़ू के प्याले की लपटें शांत हो चुकी थीं।

किसी को रिपोर्ट करना होगा। वे उसे पकड़ने निकले हैं...बड़ी गहरी साँस लेकर पियरे बोला था और मेरे मन की छाया के सवाल को फौरन समझकर उसने मुझे बताया था-

-कल मुझे कंपलसरी मिलिटरी ट्रेनिंग के लिए रिपोर्ट करना है...नहीं करूँगा तो

ये साइरन यहाँ भी आएंगे ।...आत्मा की बात करूँगा तो पहले मेरा ट्राइल होगा ...फिर सज़ा...देखता हूँ...कल सुबह तक पता चलेगा कि मेरे पास कोई आत्मा है या नहीं...

रीथ अब बहुत उदास थी। वह पियरे के पास आकर बैठ गई थी। माइकेल ने थियोडोराकिस का गीत लगा दिया था--मैं अकेला कहाँ हूँ:...मेरे साथ हमेशा मेरा अकेलापन रहता है...सोता हूँ तो साथ सोता है, जागता हूँ तो साथ जागता है...मैं अकेला कहाँ हूं...

रीथ ने चम्मच से आड़ू काटा और जली हुई रम भरकर पियरे के मुँह से लगा दी। पियरे ने बड़े प्यार से उसे देखा और आड़ू खाते हुए उसके सुनहरे बाल सहलाता खहा। रीथ ने कई चम्मच उसे खिलाए...वह उसके गालों, गर्दन और उलझे बालों में हाथ फेरती रही ।

मोमबत्तियाँ करीब-करीब जल चुकी थीं। सारडीन मछलियों वाला पिज्जा, सिरके में भीगे खीरे और उबले हुए आड़ू खाकर पेट भर गया था। मैं मिट्टी का प्याला उठाकर देखने लगा तो पियरे ही बोला था--ये तेज़े कम्युनिटी के बने हैं...अब कुछ लोग मिट्टी को पहचानने लगे हैं। पर ज़्यादातर लोग आदमी और उसकी आत्मा को नहीं पहचानते ।

--मैं तो तुम्हें पहचानती हूँ! रीथ ने बड़ी कोमलता से कहा तो पियरे की आँखों में जैसे धुआँ-सा उमड़ आया। उसने रीथ के सुनहरे बाल सहलाए और उसके ओंठों के बिलकुल पास अपने ओंठ रख दिए

तभी एक मोमबत्ती तेज़ लौ देकर बुझ गई ।

--मोमबत्तियाँ बुझने लगीं..अब उठें ! पियरे ने कहा और वह बिना कुछ कहे अपने कमरे में चला गया । हम भी उठकर अपने-अपने कमरों में चले आए ।

कमरे में कांच की दीवार पर तेज़ सर्दीली हवा टकरा रही थी। और पियरे के कमरे से थियोडोराकिस की ग्रीक आवाज़ में फ्रेंच के वही शब्द फिर तैरते हुए आ रहे थे--मैं अकेला कहाँ हूं...मेरे साथ हमेशा मेरा अकेलापन रहता है...

कई बार मेरी नींद टूटी । काँच की दीवार पर पड़ते सर्द हवा के थपेड़े और उनकी चक्रवात जैसी आवाज़ ने कई बार मुझे जगा दिया था । जब भी जागा तो पियरे के कमरे से आती उस गीत की आवाज़ भी कई बार सुनाई दी । सुबह के करीब जब आँख लगी, तब पियरे का कमरा खामोश था।

मैं देर से उठा। माइकेल ने दस्तक देकर उठाया था। हवा अब नहीं थी पर बाहर घना कोहरा भरा हुआ था। रीथ ने प्यालों में चाय डाली। हम तीन ही थे। मैंने सोचा पियरे का इंतज़ार कर लूँ--पियरे कहाँ है ? इंतज़ार कर लें...

रीथ ने चाय का घूंट लेते हुए--तुम चाय पिओ...वह वहाँ है ।

--कहाँ ? मैंने पूछा ।

तो माइकेल ने सूचना वाले बोर्ड की ओर इशारा कर दिया--वहाँ ।

बोर्ड पर बड़ा-बड़ा लिखा था--गुडबाई ! !

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कमलेश्वर जी की हिन्दी कहानियाँ
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कमलेश्वर का जन्म ६ जनवरी १९३२ को उत्तरप्रदेश के मैनपुरी जिले में हुआ। उन्होंने १९५४ में इलाहाबाद विश्वविद्यालय से हिन्दी साहित्य में एम.ए. किया। उन्होंने फिल्मों के लिए पटकथाएँ तो लिखी ही, उनके उपन्यासों पर फिल्में भी बनी। 'आंधी', 'मौसम (फिल्म)', 'सारा आकाश', 'रजनीगंधा', 'मिस्टर नटवरलाल', 'सौतन', 'लैला', 'रामबलराम' की पटकथाएँ उनकी कलम से ही लिखी गईं थीं। हिन्दी लेखक कमलेश्वर बीसवीं शती के सबसे सशक्त लेखकों में से एक समझे जाते हैं। कहानी, उपन्यास, पत्रकारिता, स्तंभ लेखन, फिल्म पटकथा जैसी अनेक विधाओं में उन्होंने अपनी लेखन प्रतिभा का परिचय दिया। कमलेश्वर का लेखन केवल गंभीर साहित्य से ही जुड़ा नहीं रहा बल्कि उनके लेखन के कई तरह के रंग देखने को मिलते हैं। उनका उपन्यास 'कितने पाकिस्तान' हो या फिर भारतीय राजनीति का एक चेहरा दिखाती फ़िल्म 'आंधी' हो, कमलेश्वर का काम एक मानक के तौर पर देखा जाता रहा है। कमलेश्वर के कुछ ख़ास सृजन में 'काली आंधी', 'लौटे हुए मुसाफ़िर', 'कितने पाकिस्तान', 'तीसरा आदमी', 'कोहरा' और 'माँस का दरिया' शामिल हैं। हिंदी की कई पत्रिकाओं का संपादन किया लेकिन पत्रिका 'सारिका' के संपादन को आज भी मानक के तौर पर देखा जाता है। कमलेश्वर ने तीन सौ से ऊपर कहानियाँ लिखी हैं।
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बात असल में यों हुई। उन दिनों शहर में प्रदर्शनी चल रही थी। जाने की कभी तबीयत न हुई। आखिर एक दिन मेरे मित्र मुझे घर से पकड़ ले गए। शायद आखिरी दिन था उसका। चला गया, पर ऐसे जमघटों में अब मन नहीं जमता। वह

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हवा है, हवा की आवाज नहीं है

20 जुलाई 2022
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कैरीन उदास थी। उसे पता था कि सुबह हमें चले जाना है। लेकिन उदास तो वह यों भी रहती थी। उस दिन भी उदास ही थी, जब पहली बार मिली थी। हम हाल गाँव का रास्ता भूलकर एण्टवर्प के एक अनजाने उपनगर में पहुँच गये थे

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शास्त्रज्ञ मूर्ख (हितोपदेश)

20 जुलाई 2022
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किसी नगर में चार ब्राह्मण रहते थे। उनमें खासा मेल-जोल था। बचपन में ही उनके मन में आया कि कहीं चलकर पढ़ाई की जाए। अगले दिन वे पढ़ने के लिए कन्नौज नगर चले गये। वहाँ जाकर वे किसी पाठशाला में पढ़ने लगे।

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अपनी-अपनी दौलत

20 जुलाई 2022
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पुराने ज़मींदार का पसीना छूट गया, यह सुनकर कि इनकमटैक्स विभाग का कोई अफसर आया है और उनके हिसाब-किताब के रजिस्टर और बही-खाते चेक करना चाहता है। अब क्या होगा मुनीम जी ? ज़मींदार ने घबरा कर कहा-कुछ करो म

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आत्मा की आवाज़

20 जुलाई 2022
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मैं अपना काम खत्म करके वापस घर आ गया था। घर में कोई परदा करने वाला तो नहीं था, पर बड़ी झिझक लग रही थी। गोपाल दूर के रिश्ते से बड़ा भाई होता है, पर मेरे लिए वह मित्र के रूप में अधिक निकट था। आंगन में च

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इंटेलैक्च्युअल

20 जुलाई 2022
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हिन्दी के एक बड़े आदरणीय आचार्य थे। आस्था से वे घनघोर सनातनी थे। लेकिन एक दिन न जाने क्‍या हुआ कि आचार्य जी ने सनातन धर्म की धज्जियाँ निकाल दीं। आर्य समाजियों को ख़बर मिली। वे बड़े प्रसन्‍न हुए। उन्ह

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एक अश्लील कहानी

20 जुलाई 2022
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नग्नता में भयानक आकर्षण होता है, उससे आदमी की सौन्दर्यवृत्ति की कितनी सन्तुष्टि होती है और कैसे होती है, यह बात बड़े दुःखद रूप में एक दिन स्पष्ट हो ही गयी। अनावृत शरीर से न जाने कैसी किरनें फूटती हैं,

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कर्त्तव्य

20 जुलाई 2022
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शाही हरम की बेगमों की डोलियाँ बीजापुर से दिल्ली की ओर जा रही थीं : रास्ता बीहड़ और सुनसान था। रास्ते में मराठा महाराज शिवाजी का इलाका तो पड़ता ही था। सेना के अपने दुश्मन और अपनी दक्षता होती है, साथ ही

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कामरेड

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लाल हिन्द, कामरेड!--एक दूसरे कामरेड ने मुक्का दिखाते हुए कहा। लाल हिन्द--कहकर उन्होंने भी अपना मुक्का हवा में चला दिया। मैं चौंका, और वैसे भी लोग कामरेड़ों का नाम सुन कर चौंकते हैं! वास्तव में किसी ह

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कोहरा

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पियरे की बात मुझे बार-बार याद आ रही थी-पैसे से उजाला नहीं होता ! अगर होता, तो हमारा देश सूरज को खरीद लेता ! लेकिन तुम सूरज नहीं खरीद सकते ! उस वक्त हम एक छोटी-सी घाटी में खड़े हुए थे। रीथ भी साथ थी।

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खामोशी एडगर ऐलन पो

20 जुलाई 2022
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'मेरी बात सुनो,' शैतान ने मेरे सिर पर हाथ रखते हुए कहा, 'जिस जगह की मैं बात कर रहा हूँ, वह लीबिया का निर्जन इलाका है - जेअर नदी के तट के साथ-साथ, और वहाँ न तो शांति है, न खामोशी। नदी का पानी भूरा मटमै

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गार्ड आफ ऑनर

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मिली-जुली गठबन्धन सरकार के एक मन्त्री। पुलिस लाइन में उनका दौरा था। कार से उतरते ही वे प्रशंसकों-चापलूसों से घिर गए। गले में मालाएँ पड़ने लगीं। फूलों की बौछार। नारों की जय-जयकार। तब एक पुलिस अफसर भी

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चौकी-चौका -बंदर

20 जुलाई 2022
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एक पण्डित जी घर के चबूतरे पर चौकी लगाकर बैठते थे। मोहल्ले के लोग कभी धर्म पर, कभी स्वास्थ्य पर, कभी ध्यान योग पर उनके उपयोगी प्रवचन सुनते थे। उसी चौकी पर लोग दान-दक्षिणा रख देते थे। उसी से पण्डित जी

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तलाश

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उसने बहुत धीरे-से दरवाज़े को धक्का दिया। वह भीतर से बंद था। जब तक वह सोई थी, तब तक बीचवाला दरवाज़ा बंद नहीं किया गया था। भिड़े हुए दरवाज़े की फाँक से रोशनी का एक आरा-सा गिरता रहा था, रोशनी मोमिया कागज

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तीसरा संस्करण

20 जुलाई 2022
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एक बौद्ध भिक्षु था। उसने छह खण्डों में भगवान गौतम बुद्ध की जीवनी लिखी। लगभग तीन हजार पृष्ठों के उस भारी-भरकम ग्रन्थ को प्रकाशित करने के लिए कोई प्रकाशक तैयार नहीं हुआ। भिक्षु बहुत निराश हुआ। तब समाज क

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दिल्ली में एक मौत

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मैं चुपचाप खडा सब देख रहा हूँ और अब न जाने क्यों मुझे मन में लग रहा है कि दीवानचंद की शवयात्रा में कम से कम मुझे तो शामिल हो ही जाना चाहिए था। उनके लडके से मेरी खासी जान-पहचान है और ऐसे मौके पर तो दुश

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पत्थर की आँख

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यह दो दोस्तों की कहानी है। एक दोस्त अमेरिका चला गया। बीस-बाईस बरस बाद वह पैसा कमाके भारत लौट आया। दूसरा भारत में ही रहा। वह गरीब से और ज्यादा गरीब होता चला गया। अमीर ने बहुत बड़ी कोठी बनवाई। उसने अपने

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भूख

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पूस की दाँतकाटी सर्दी पड़ रही थी। बच्चा भूखा था। माँ के स्तनों में दूध नहीं था। थोड़ी दूर पर एक अलाव जल रहा था। भूखा बच्चा माँ के स्तनों को निचोड़ता पर जब दूध नहीं निकलता था तो वह बच्चे को लेकर अलाव क

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मुक़ाबला

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सभी को मालूम है कि शेर बहुत सफाई पसन्द होता है। एक बार हुआ यह कि किसी बात पर शेर और जंगली सुअर में झगड़ा हो गया। जंगल के लगभग सभी जानवर शेर से भयभीत रहते थे। उन्हें मौका मिल गया। उन्होंने सोचा, जंगली

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रावल की रेल

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तो दोस्तो, हुआ ऐसा कि मैं कच्छ के दिशाहारा रेगिस्तान की यात्रा से ध्वस्त और त्रस्त किसी तरह भुज (गुजरात) पहुँचा। स्टेशन के अलावा और कोई भरोसे की जगह नहीं थी, इसलिए वहीं चला गया। स्टेशन पर मीटर गेज की

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वीपिंग-विलो

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हैम्पटन कोर्ट पैलेस से निकलकर गरम चाय पीने की तलब सता रही थी। पुराने किलों या महलों से निकलकर जैसी व्यर्थता हमेशा भीतर भर जाती है, वैसी ही व्यर्थता मन में भरी हुई थी। एक निहायत बेकार-सी अनुभूति। उदासी

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सर्कस

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सर्कस तो आपने जरूर देखा होगा। उसमें तरह-तरह के ख़तरनाक और दिल दहलाने वाले करतब दिखाए जाते हैं। शायद आपने वह बेमिसाल खेल भी देखा हो, जिसमें लकड़ी का एक बड़ा चक्‍का घूमता हुआ आता है। उसी के साथ एक छरहरे

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सिपाही और हंस

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तो दोस्तो ! आपको एक कहानी सुनाकर मैं अपनी बात समाप्त करूँगा। हुआ यह कि अंग्रेज भारत छोड़ कर जा चुके थे। राजे-महाराजों-नवाबों की रियासतों का विलय विभाजित भारत में हो चुका था। इंदिरा गांधी ने इनके लाखो

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सुख

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यह किस्सा मुझे वरसोवा के एक मछुआरे ने सुनाया था। तब मैं अपने वीक-एण्ड घर 'पराग' में आकर रुकता था और सागर तट पर घूमता और डूबते सूरज को देखा करता था। तब मेरी जिन्दगी को अफ़वाहों का पिटारा बना दिया गया थ

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हमलावर कौन ?

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दोस्तो! यह आज के यथार्थ को पेश करती एक दारुण कहानी है। इसके लेखक हैं-मुद्राराक्षष। यह कालजयी कहानी मैं आपको सुनाता हूँ- भारत-पाकिस्तान युद्ध । भारत की सेनाएँ पाकिस्तानी इलाकों को जीतती हुई भीतर तक पा

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लघु-कथाएँ

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घूँघटवाली बहू बात वृन्दावन की है। मैं मन्दिरों में नहीं जाता। देखना हो तो जाने से परहेज भी नहीं करता। कहा गया कि बिहारी जी का मन्दिर तो देख ही लीजिए। यानी दर्शन कर लीजिए। गया। पर रास्ते और आस-पास की

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इनसान और भगवान्

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यह एक अजीब विस्मयकारी और चौंकानेवाला दृश्य था। भादों का महीना और कृष्ण जन्माष्टमी का अवसर। निर्जला व्रत किए लाखों लोगों का हुजूम, जो कृष्ण जन्माष्टमी के महोत्सव में शामिल होने आए थे। कृष्ण मंदिरों के

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अष्टावक्र का विवाह

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एक बार महर्षि, अष्टावक्र महर्षि वदान्य की कन्या के रूप पर मोहित हो गये। उन्होंने उसके पिता के पास जाकर उस कन्या के साथ विवाह करने की इच्छा प्रकट की। तब महर्षि वदान्य ने मुस्कराते हुए अष्टावक्र से कहा,

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दीर्घतमा और प्रद्वेषी

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प्राचीन काल में उतथ्य नाम के एक ऋषि थे। उनकी स्त्री का नाम ममता था। ममता अत्यन्त रूपवती थी। जब वह चलती तो आश्रम में एक बार तो उस रूप की गन्ध चारों ओर बिखर जाती। ममता के इस अनुपम रूप को देखकर उतथ्य के

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बिलाव और चूहे

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किसी विशाल घने वन में एक विशाल बरगद का वृक्ष था। उसकी जड़ों में सौ मुँह वाला बिल बनाकर पालित नाम का एक चूहा रहता था। उसी वृक्ष की डाल पर लोमश नाम का एक बिलाव रहता था। कुछ दिनों बाद एक चाण्डाल भी आकर उ

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कबूतर और बहेलिया

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प्राचीन काल में एक क्रूर और पापात्मा बहेलिया रहता था। वह सदा पक्षियों को मारने के नीच कर्म में प्रवृत्त रहता था। उस दुरात्मा का रंग कौए के समान काला था और उसकी आकृति ऐसी भयानक थी कि सभी उससे घृणा करते

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मृत्यु ही ब्रह्म है

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याज्ञवल्क्य ने जाने कितने छात्रों को, जाने कितनी बार पढ़ाया होगा यह सूक्त। कितनी बार दुहराया होगा वह अर्थ जो उन्होंने अपने गुरु से सुना था। पर आज पहला मन्त्र पढ़ना आरम्भ किया, “न असत् आसीत् न सत् आसीत

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गुरु मिले तो

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वरुण एक जमाने में सबसे बड़े देवता थे। इन्द्र से भी बड़े। जिस काम के लिए बाद में इन्द्र बदनाम हुए उसका भी कुछ सम्बन्ध वरुण से था। नतीजा यह कि अनेक ऋषियों को वरुण की सन्तान होने का सौभाग्य प्राप्त हुआ।

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कुत्ते का ब्रह्म ज्ञान

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बात बहुत पुरानी है। उस समय कुत्ते आदमी की और आदमी कुत्तों की भाषा जानते थे और कुछ कुत्ते तो सामगान करते हुए भौंकते थे। जो लोग कुत्तों की भाषा समझ लेते थे वे कुत्तों के ज्ञान पर आदमी के ज्ञान से अधिक भ

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वररुचि की कथा

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वररुचि के मुँह से बृहत्कथा सुनकर पिशाच योनि में विन्ध्य के बीहड़ में रहने वाला यक्ष काणभूति शाप से मुक्त हुआ और उसने वररुचि की प्रशंसा करते हुए कहा, आप तो शिव के अवतार प्रतीत होते हैं। शिव के अतिरिक्त

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गुणाढ्य

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गुणाढ्य राजा सातवाहन का मन्त्री था। भाग्य का ऐसा फेर कि उसने संस्कृत, प्राकृत और अपभ्रंश तीनों भाषाओं का प्रयोग न करने की प्रतिज्ञा कर ली थी और विरक्त होकर वह विन्ध्यवासिनी के दर्शन करने विन्ध्य के वन

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राजा विक्रम और दो ब्राह्मण

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संसार में प्रसिद्ध उज्जयिनी नगरी महाकाल की निवासभूमि है। उस नगरी के अमल धवल भवन इतने ऊँचे-ऊँचे हैं कि देखकर लगता है जैसे कैलास के शिखर भगवान शिव की सेवा के लिए वहाँ आ गये हों। उस नगरी में यथा नाम तथा

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शूरसेन और सुषेणा

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गोमुख ने कहा, श्रावस्ती में शूरसेन नाम का एक राजपुत्र था। वह राजा का ग्रामभुक था। राजा के लिए उसके मन में बड़ी सेवा भावना थी। उसकी पत्नी सुषेणा उसके सर्वथा अनुरूप थी और वह भी उसे अपने प्राणों की तरह च

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कैवर्तक कुमार

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राजगृह में मलयसिंह नाम के राजा राज्य करते थे। उनके मायावती नाम की अप्रतिम रूपवती एक कन्या थी। एक बार वह राजोद्यान में खेल रही थी तभी एक कैवर्तककुमार (मछुआरे के बेटे) की दृष्टि उस पर पड़ गयी। सुप्रहार

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