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मांस का दरिया

20 जुलाई 2022

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जाँच करने बाली डॉक्टरनी ने इतना ही कहा था कि उसे कोई पोशीदा मर्ज नहीं है, पर तपेदिक के आसार ज़रूर हैं। उसने एक पर्चा भी लिख दिया था। खाने को गिज़ा बताई थी।

कमेटी पहले ही पेशे पर रोक लगा चुकी थी। सब परेशान थीं। समझ में नहीं आ रहा था कि क्‍या होगा? डॉक्टरी जाँच में बहुतों का पेशा और पहले ही ठप्प हो चुका था। इब्राहीम ठेकेदार ने जो चुनी थीं, वे सब 'पास' हो गई थीं। उनके नखरे बहुत बढ़ गए थे। वे बड़े ग़रूर से अपने खानदानों की चर्चा करती थीं।

इब्राहीम ने चुस्त-दुरुस्त लड़कियों को छाँट लिया था। धीरे-धीरे वे शहर के अच्छे हिस्सों में जा बसी थीं। इब्राहीम उनकी देखभाल करता था और जिस ठेके से जितनी ले गया था, उनका पैसा महीने-के-महीने चुकता कर जाता था।

एक बार जब जुगनू ज़्यादा परेशान थी, तो उसने भी इब्राहीम से कहा था कि किसी ठौर-ठिकाने पर बैठा दे, पर इब्राहीम ने दो-टूक जवाब दे दिया था, “शादी तो है नहीं कि किसी की आँख में धूल झोंककर गले मढ़ दूँ! जो आएगा, वह तो बोटी- बोटी देखेगा ।” और वह कतराकर चला गया था।

उस दिन उसके दिल पर पहली चोट लगी थी--अब बह इस लायक़ भी नहीं रही? दूसरी चोट तब लगी थी, जब साथ के बारजे से शहनाज़ ने हाथ मटकाते हुए गाली दी थी, “अरे, अल्ला तुझे वह दिन भी दिखाएगा जब गाहक तेरी सीढ़ियों पर क्रदम तक नहीं रखेगा।"

शहनाज की इस बात पर मुहल्ले में बड़ा बावेला मचा था। यह गाली तो बुरी- से-बुरी को नहीं दी जाती... सबके गाहक जीते-जागते रहें। खुदा मर्दों को रोज़ी दे... जांघ में ज़ोर दे!

और उसी दिन पहली बार झिझकता हुआ वह आया था। फत्ते उसे लाया था। उसके हाथ में बड़ा-सा थैला था। खाकी पैंट और नीली कमीज़ पहने था। दाढ़ी बढ़ी हुई थी। कानों के रोओं और भौंहों पर धूल की हलकी परत थी। कमरे में जाकर जुगनू खाट पर खुद बैठ गई थी, तो बह अचकचाया-सा खड़ा रह गया था। उसकी समझ में नहीं आ रहा था कि थैला कहाँ रख दे। तभी जुगनू ने बड़ी आसानी से थैला लेकर सिरहाने रख दिया था। वह चुपचाप खाट पर बैठ गया था। कुछ क्षणों की खामोशी के बाद जुगनू ने कहा था, “जूते उतार लो।..." उसने किरमिच के जूते उतारे थे तो बदबू का एक भभका उठा था... कुछ-कुछ वैसा ही जैसा कि बहुतों के कपड़े उतारने पर उठा करता था... खास तौर से उस मनसू किरानी के पास से फूटता था, जो रात के ग्यारह बजे के बाद ही आया करता था और निबट चुकने के बाद कमर में दर्द की वजह से शिला की तरह बैठा रह जाता था। तब जुगनू ही उसे उठाती थी और वह जांघें खुजलाता हुआ चला जाता था। या फिर कँवरजीत होटल वाले की तरह, जो बदबू तो देता ही था और उठने से पहले खाट पर बैठा हुआ 'ओं... ओं' करके डकारें लेता था।

बह भभक उससे बर्दाश्त नहीं हुई तो बोली, “जूते पहन लो!"

वह जूते पहनकर फिर बैठ गया था। तब उसे बड़ी कोफ़्त हुई थी। एक मिनट वह उसे घूरती रही थी, फिर चिढ़कर बोली थी, “यह घर की बैठक नहीं है... फारिग होके अपना रास्ता नापो!” उसने अपमानित महसूस किया था और अपने को संभालने के बाद अचकचाकर बोला था, “तुम्हारा नाम कया है?”

“जुगनू !” वह बोली थी।

“कहाँ की हो?"

“तुम अपना काम करो...." वह फिर चिढ़ गई थी।

और तब उसने उसकी तरह ही पूछा था, “तुम्हें यह पेशा पसंद है?"

"हाँ !... तुम्हें नहीं है?” कहते हुए वह लेट गई थी। उसने साड़ी जांघों तक खिसका ली थी। वह भी लेट गया था और उसने ब्लाउज़ के भीतर हाथ डालने की झिझकभरी कोशिश की थी।

“परेशान न करो तो अच्छा है..." वह बोली थी, “क्यों खोलते हो...?"

उसके लिए कुछ भी कर सकना मुमकिन नहीं रह गया था। जुगन्‌ के चेहरे पर सस्ते पाउडर की परत थी... गर्दन में पाउडर ककी डोरियाँ-सी बन गई थीं। होठों पर खून सूखकर चिपक गया था। कानों के टॉप्स मेंढक की आँखों की तरह उभरे हुए थे। बाल तेल से भीगे थे। तकिया निहायत गंदा था और चादर कुचले हुए चमेली के फूल की तरह मैली थी।

सँकरी कोठरी में अजीब-सी बदबू भरी हुई थी। एक कोने में पानी का घड़ा रखा था और तामचीनी का एक डिब्बा। कोने में ही कुछ चिथड़े भी पड़े थे।

वह पड़ा-पड़ा इधर-उधर देखता रहा। जुगनू के सिरहाने ही छोटी-सी अलमारी थी। उसका पत्थर तेल के चिकने चकत्तों से भरा हुआ था। वह टूटा हुआ कंघा, सस्ती नेलपॉलिस की शीशी और जूड़े के कुछ पिन उसमें पड़े थे। अलमारी की दीवार पर पेंसिल से कुछ नाम और पते लिखे हुए थे। सिनेमा के गीतों की कुछ किताबें एक कोने में रखी थीं, उन्हीं के पास मरे साँपों की तरह चुटीले पड़े थे। देखते-देखते उसके मन में गिजगिजाहट भर गई थी। आसरे के लिए उसने जुगनू की जाँघ पर हाथ रख लिया था। जाँघ बासी मछली की तरह पुली-पुली और खद्दर की तरह खुरदरी थी। जुगनू के खुले हुए आधे तन से मावे की महक आ रही थी। उसने हाथ हटाया तो जाँघों के नीचे चादर पर आ गया था। उसे लगा जैसे चादर भीगी हुई हो...

“यही कमाई का वक्‍त होता है...इतने में तो चार खुश हो गए होते !' जुगनू ने कहा और दोनों बाँहों में कसकर उसे भींच लिया था।

और जब वह उठकर बैठा तो जुगनू ने मज़ाक-मज़ाक में उसका थैला खोल लिया था, “बहुत रुपया भरकर चलते हो !' उसे लगा कि शायद वह मजाक में एकाध रुपया और हथियाना चाहती है। तब उसने जुगनू को पहली बार गौर से देखा था और चुपचाप चला गया था।

जब भी जुगनू बाज़ार से निकलती, तो सिर पर पल्‍ला डालकर। वह इतनी छिछोरी भी नहीं थी कि कोई फबती कसता। सब उसे ऐसे देखते थे, जैसे उस पर उनका समान अधिकार हो। वह रास्ता चलते कनखियों से उन लोगों को ज़रूर देख लेती थी, जिन्हें वह अच्छी तरह पहचानती थी और जो उसके मर्दों की तरह उसके पास आते-जाते थे। तभी एक दिन वह दिखाई पड़ा था--वही थैलेवाला आदमी। एक इमारत की पहली मंजिल के बारजे पर कोहनियाँ टेके वह बीड़ी पी रहा था। वही कमीज पहने था। इमारत पर लाल झण्डा लगा हुआ था, जिसकी छाया उसके कन्धों पर काँप रही थी।

टूटी हुई चप्पल जुड़वाने के लिए वह वहीं रुक गई थी। वह शायद भीतर चला गया था।

रात को वह आया था। उसको आँखों में पहचान थी। इस बार वह सकुचा नहीं रहा था। खाट पर बैठे-बैठे जुगनू ने उससे पूछा था, 'तुम क्या काम करते हो?'

“कुछ नहीं !" वह बोला था, 'मज़दूरों में काम करता हूँ...'

“हमारा भी कुछ काम कर दिया करो...हम भी मजदूर हैं !" जुगनू ने मजाक किया था।

“तुम्हें देर तो नहीं हो रही है !' उसने कहा था

“आज तबीयत ठीक नहीं है।' जुगनू अलसाते हुए बोली थी।

“क्या हुआ?"

'कमर बहुत दुःख रही है। सारे बदन में हड़फूटन है... जुगनू बोली थी, 'पता नहीं क्या हो गया है...तारा को बुला दूँ?...बहुत शराफत से पेश आएगी...समझदार औरत है...'

उसने मना कर दिया था। कुछेक मिनट बैठकर वह चलने लगा था, तो सिर्फ इतना ही बोला था, “मैं ऐसे ही चला आया था।' और वह चुपचाप अँधेरी सीढ़ियों में उतर गया था। जुगनू ख़ामोशी से आकर खिड़की पर खड़ी हो गई थी। उसे लगा था कि वह किसी और जीने में चढ़ जाएगा। गली में ज़्यादा आमदरफ्त नहीं थी। थोड़ी-थोड़ी दूर पर आदमियों के तीन-चार गोल खड़े हुए थे। उनमें से फूटकर कभी-कभी कोई किसी जीने में चढ़ जाता था। नानबाई की चिमनी में से धुआं निकल रहा था...वह उसे देखती रही थी। वह कहीं रुका नहीं। धीरे-धीरे गली पारकर सड़क की तरफ मुड़ गया था- उसी सड़क पर, जिस पर वह इमारत थी, जिसमें वह रहता था।

जुगनू को उसका यूँ लौट जाना बहुत अच्छा लगा था। हल्की-सी खुशी हुई थी। कोठरी के पलंग पर आकर वह लेट रही थी।

कोठरी में बहुत सीलन थी और घुटी-घुटी-सी बदबू। दरवाज़ा उसने बन्द कर लिया था और सिनेमा के गीतों की किताब उठाकर मन ही मन पढ़ती रही थी।

तभी किवाडों पर दस्तक हुई थी और अम्मा की आवाज़ आई थी, 'जुगनू बेटे ! मुआ बेहोश तो नहीं हो गया !'

'यहाँ कोई नहीं है, अम्मा !'

'तो बारजे पर निकल आ, बेटे...बड़ी अच्छी हवा चल रही है...गली में रौनक भी है...' कहते हुए अम्मा ने दरवाज़ा खोल दिया था, 'तबीयत तो ठीक है !'

'कुछ गड़बड़ है, अम्मा !'

'तो एक गिलास दूध पी ले, बेटा...अभी तो वक्त है, कोई आ ही गया तो...'

और वह उठ आई थी। उसकी गर्दन पर उल्टा हाथ रखते हुए अम्मा ने बुखार देखा था और कमर के ऊपर पीठ के माँस की लौटती सलवटें देखकर बोली थी, 'सेहत का खयाल छोड़ दिया है तूने...कमर पर कितनी मोटी पर्तें गिरने लगी हैं...थोड़ी-सी वर्जिश कर लिया कर... ' कहती हुई वह दूसरी कोठरी की ओर चली गई थी। दूसरी कोठरी से कुछ तेज़-तेज्ञ आवाजें आ रही थीं। और अम्मा बड़बड़ाती हुई भीतर चली गई थी, 'यह चुडैल बिना लड़े लगाम नहीं डालने देती...किसी दिन इस कोठरी में कतल होगा...!'

यह रोज़ की बात थी...बिलकीस को अम्मा यों ही कोसती थी। खुद बिलकीस का कहना था कि उसके पास से कोई बिना अपनी कमर पकड़े वापस नहीं जा सकता। बिलकीस को इसमें मज़ा भी आता था। आदमी को छोड़ते ही वह दरवाज़े पर आकर खड़ी हो जाती थी और उसे हारकर जाते हुए देखकर तालियाँ चटकाकर बड़ी ऊंची हंसी में हँसती थी, 'अरी, ओ मरी जुबेदा ! ज़री देख...रुस्तम जारिया है ! बड़ा आया था पैलवान का बच्चा ! ये मरदुआ सोएगा औरत के साथ !'

एक दिन आदमी बिगड़ गया था, 'क्या बक रही है?'

“अरे, जा-जा भिश्ती की औलाद...ले, ये चवन्‍नी ले जा, छटांक-भर मलाई खा लीजे...'

और वह आदमी बहुत अपमानित-सा सीढ़ियाँ उतर गया था। पूरे कोठे में बिलकीस को लेकर दहशत छाई रहती थी। पता नहीं कब झगड़ा हो जाए! और वह हाथ नचा-नचाकर बड़े फख्र से हमेशा कहा करती थी, 'अपने तो बरम्मचारी की औरत हैं... '

जुगनू को देखकर बिलकीस हमेशा ताना देती थी, 'तू तो किसी घर बैठ जा... ' पर जुगनू किसी से लड़ी नहीं। वह जानती थी कि बिलकीस बहुत मुँहफट है। अम्मा तक को नहीं धर गाँठती। और अम्मा थी कि सबके तन- बदन का खयाल रखती थी। बदन चुस्त दरुस्त रखने के लिए वह हमेशा चीखती ही रहती थी। ' भैंस की तरह फैलती ही जा रही है। साटन की पेटीकोट पहना कर। आलू खाना बन्द कर कलमुंही !'

पेट पर ढलान आते ही वह जुबेदा के लिए भीतर बक्से में से पेटी निकाल लाई थी, “दिन. में इसे बाँधा कर ! चाय पीना कम कर...” और उसने जीन की हर नाप की अँगियाँ लाकर रख दी थीं। उसे बस एक ही फिक्र रहती थी-' मेरा बस चले तो उमर रोक दूँ तुम लोगों के लिए...'

दोपहर में अम्मा बड़े प्यार से कभी किसी के बाल साफ करने बैठ जाती, कभी शाम के लिए साड़ियों पर इस्त्री करती और बसन्‍त के दिन तो वह सबके लिए बसन्ती जोड़ा रंगती थी। फत्ते के लिए रूमाल रँगना भी न भूलती। ईद-बकरीद, होली-दीवाली बड़े हौसले से मनाती और कभी-कभी कमला की याद करके डबडबाई आँखों से कहती, 'उस जैसी लड़की तो हज़ार कोखें नहीं जनम पाएंगी...खुदा ने क्या खूबसूरती बख्शी थी, हाथ लगाते मैली होती थी...उसे तो पैसों वालों का डाह खा गया। ज़हर दे दिया कुत्तों ने...बहुत छटपटाई थी बेचारी। हाय, मैं अस्पताल तक न ले जा पाई...।"

...जुगनू बारजे में आकर बैठ गई थी। आते-जातों को देख रही थी। भीड़ धीरे- धीरे हलकी हो रही थो। फूल-गजरेवाले उठकर जा रहे थे और उसने देखा था--रोज की तरह मन्नन माली ने जाते हुए एक गजरा कलावती की खिड़की में फेंका था और कलावती ने रोज़ की तरह मुस्कराकर गालियाँ दी थीं। बन्ने कलईवाला धुला हुआ तहमद और जालीदार बनियान पहने आया था और सीधे शहनाज के कोठे पर चढ़ गया था।

शंकर पनवाड़ी के सामने चबूतरे पर नीम-पागल चुन्नीलाल ने अपना बोरा बिछा दिया था और तामचीनी के मग्गे में चाय पीते हुए बड़बड़ा रहा था, “अरे ज़ालिम, उसी दिन हाथ कलम करवा ले जिस दिन ग़लत सुर निकल जाए! अरे ज़ालिम... यहीं उतरकर आएगी... इसी बोरे पर सुहागरात होगी... ज़ालिम !”

और तभी एक क्षण के लिए गली के मोड़ पर जुगनू को उसी नीली कमीज वाले का शक हुआ था। शायद वह फिर लौटकर आया है और चुपके से कहीं चढ़ जाएगा। पर वह उसका भ्रम था। वह नहीं था, कोई और आदमी था।

फिर बहुत दिन बाद वह लौटा था। और जुगनू की कोठरी में आते ही घर की तरह खाट पर पसर गया था। लेकिन जूते उतारने की फिर भी उसकी हिम्मत नहीं हुई थी।

“तुम अपना नाम तो बता दो?" जुगनू ने बगल में लेटते हुए पूछा था।

“म्रदनलाल... क्‍यों?"

“ऐसा ही... यहाँ नहीं थे?"

“जेल में था... गिरफ्तारियाँ हो गई थीं, उसी में चला गया था..."

“हड़ताल चल रही थी न... मालिकों ने बंद करवा दिया था। बड़ी मुश्किल से रिहाई हुई..."

“इस हड़ताल-वड़ताल से कुछ होता भी है? काहे को की थी?"

“बगैर नोटिस छँटनी हुई थी... तुम्हारी समझ में नहीं आएगा। और भी बहुत- से मसले थे... जूते उतार लूँ?” मदनलाल ने बहुत सकुचाते हुए कहा था।

“उतार लो।”

और किरमिच के जूतों और पसीने से सने हुए पैरों से जो भभक निकली थी, उससे जुगनू को कोई खास परेशानी नहीं हुई थी, धीरे-धीरे जैसे बू ही उसके चारों ओर समा गई थी... और फिर उसके बदन में भर गई थी।

मदनलाल तो चला गया था, पर उसकी वह गंध रह गई थी। और उन्हीं दिनों सब पेशेवालियों को डॉक्टरी जाँच के लिए हाज़िर होना पड़ा था और डॉक्टरनी ने इतना ही कहा था कि कोई पेशोदा मर्ज नहीं है, पर तपेदिक के आसार ज़रूर हैं...

देखते-देखते उसकी खाँसी बढ़ गई थी। बुखार रहने लगा था। अम्मा अस्पताल ले जाकर दिखा आई थी पर रोग थमने में नहीं आ रहा था। धीरे-धीरे वह काम लायक नहीं रह गई थी। एक दिन खून थूका था तो बिलकीस ने आसमान सिर पर उठा लिया था, “अरे, इसे डलवाओ कहीं बाहर ! हमें मरना है?" तो अम्मा ने उसे डाँटा था, पर भीतर से वह भी बदल गई थी। तरह-तरह से उसने जुगनू को समझाया था कि वह अपनी सेहत की खातिर कहीं और चली जाए। ज़रूरत के लिए सौ-पचास रुपए भी ले जाए, इस तरह लापरवाही न करे...

पर जुगनू की समझ में नहीं आता था कि वह कहाँ चली जाए। पैसा भी पास नहीं था और सौ-दो-सौ से कितने दिन कट सकते थे। आखिर हारकर वह तपेदिक़- अस्पताल में भरती हो गई थी। धीरे-धीरे अम्मा का दिया और अपने पास का सारा रुपया खत्म हो गया था। चार महीने लगातार उसे सेनेटोरियम में रहना पड़ा था। उसके बाद भी छुट्टी नहीं मिली थी। हाँ, कहीं थोड़ी-बहुत देर के लिए आने-जाने पर रोक नहीं थी। वहाँ से निकलकर वह दो-चार बार अम्मा के पास आई थी तो अम्मा ने कहा था, “किसी को बताना मत बेटे कि कहाँ थी... मैंने तो यही कहा है कि रामपुर चली गई है अपनी बहन के पास, कुछ दिनों में वापस आ जाएगी... पर मुआ दारोगा बहुत परेशान करता था... उसे शक है कि यहीं-कहीं बैठने लगी है..."

अम्मा की आँखों में अपनापन पाकर उसे बड़ा सहारा-सा मिला था। और अम्मा उसकी हालत देख-देखकर दुखी होती रही थी। सचमुच जुगनू का बदन झुलस- सा गया था... बाल बहुत-झीने हो गए थे और चेहरे की सुर्खी ग़ायब हो गई थी।

जुगनू जब भी शीशे में अपने को देखती, तो घबरा उठती थी। अब क्या होगा ? कैसे बीतेगी यह पहाड़-सी बीमार ज़िंदगी! सहारा... कोई और सहारा भी तो नहीं, कोई हुनर भी नहीं...

पेशे पर रोक लग जाने के बावजूद कई नयी लड़कियाँ लखनऊ-बनारस से आ गईं थीं और उन्होंने बाज़ार बिगाड़ रखा था। सुना था, शहनाज़ की हालत भी खराब हो गई थी और कलावती भूखों मरने की हालत में पहुँच गई थी।

यह सब सुन-जानकर जुगनू का दिल घबराने लगा था।

चलने से पहले उसने अम्मा से कुछ रुपए माँगे थे, तो वह अपना रोना रोने लगी और तंगहाली का बयान करने लगी थी। उसकी हालत भी खस्ता थी।

और वहाँ से सेनेटोरियम लौटते हुए उसने उन सबकी ओर आसरे से भरी नजरें डाली थीं, जिन्हें वह जानती थी, जो उफनती जवानी के दिनों में उसके पास आते- जाते रहे थे।

मनसू किरानी को दुकान पर बैठा देखकर जुगनू के मन में नफ़रत-सी भर आई थी।... उसका कमर पकड़ बैठ जाना और फिर जाँघें खुजलाते हुए कोठरी से जैसे- तैसे जाना...

कँवरजीत होटलवाला मैला पाजामा पहने नोट गिन रहा था-उठने से पहले हमेशा 'ओं... ओं...' की डकारें लेता था, तो जुगनू का मन मिचलाने लगता था...

जुगनू ने औरों को भी देखा था... जिनसे थोड़ी-बहुत भी मेल-मुलाकात रही थी।

सेनेटोरियम में और बहुत दिन रुकना नहीं हुआ। आखिर आना तो था ही। पर वह सभी की शुक्रगुज़ार थी कि उन्होंने मुसीबत और तकलीफ के दिनों में आँखें नहीं पलटी थीं।

और जो कुछ उसने जिससे लिया था, उसे नुस्ख़े के पीछे ही नोट कर लिया था। इतने दिनों में काफ़ी कर्ज़ा चढ़ गया था। कँवरजीत होटल वाले ने बड़ा एहसान जताकर सैंतालिस रुपए दिए थे। मनसू ने उतना एहसान तो नहीं जताया था, पर रुपए जल्दी-से-जल्दी लौटा देने की बात ले ली थी-सैंतालीस रुपए से जैसे उसका कारबार ठप्प हुआ जा रहा था।

संतराम फ़िटर ने बीस दिए थे और चलते-चलते बड़ा गंदा मज़ाक किया था, “सूद में एक रात... ठीक है न..." पर उस गंदे मजाक से उसे लगा था कि आदमी की आँख अभी उस पर टिकती है। बदन गया-बीता नहीं हुआ है, जितना शायद वह समझ रही थी।

तंगी के उन दिनों में उसने एक रोज़ मदनलाल से मिलकर भी तीस रुपए ले लिए थे। उसने बस यही कहा था, “ये चंदे के रुपए हैं, जल्दी दे दोगी तो ठीक रहेगा, मेरे पास भी इतना नहीं होता कि भर सकूँ !” पर उस बात में निहायत बेचारगी थी। बहुत मज़बूरी में उसने कहा था और साथ ही यह भी कहा था कि उसे जुगनू गलत न समझे... उसकी उतनी औक़ात नहीं। और वह बिना कुछ और बोले पार्टी के दफ़्तर में चला गया था।

ज़रूरत की वजह से दिल पर पत्थर रखकर जुगनू ने रुपए ले लिए थे, पर तकलीफ भी हुई थी।

और अब, जब से वह सेनेटोरियम से लौटी थी, तो पुलिसवाले अलग परेशान कर रहे थे। सात महीने का पैसा उन्हें नहीं मिला था। इस कोठे पर उन्होंने सबसे अलग-अलग रकम बाँध रखी थी।

लौटकर आने के बाद वह भीतर-ही-भीतर बड़ी कमज़ोरी-सी महसूस करती थी। बदन अब उतना झेल नहीं पाता था। कोई ज्यादा छेड़ता-छाड़ता तो हलकी खाँसी आने लगती थी... और पाँच-पाँच, सात-सात मिनट के भीतर ही दम फूलने लगता... और लोग थे कि सीने पर ही सारा वजन रख देते थे...

रह-रहकर अब वैसी ही उलझन होती थी जैसी कि शुरू-शुरू में हुआ करती थी और उसे लगता था कि उसने यह सब जैसे अब पहली बार ही शुरू किया हो।

बालों की एक पुरानी चोटी वह सात रुपए में कलावती से खरीद लाई थी और छातियों पर भी कप्स लगाने लगी थी। हर बार उन्हें निकालने और लगाने में बड़ी उलझन भी होती थी। कलफ़-लगी धोतियाँ पहनने से उसे हमेशा चिढ़ रही थी, पर अब कलफ़ लगी ही पहनती थी। बदन गुदाज़ लगता था।

इतना सब करने के बावजूद आमदनी काफी नहीं थी, कोई-कोई रात तो खाली ही चली जाती थी। और अपनी कोठरी में अकेले लेटे हुए वह बहुत घबराती थी... यह पहाड़-सी ज़िंदगी... दिन-दिन टूटता हुआ शरीर... !"

नपुंसक लोगों से उसे बेहद परेशानी होती थी। वे हद से ज्यादा परेशान करते थे... बोटी-बोटी टटोलते रहते थे और जोश आने के इंतज़ार में बहुत सताते थे। चट- औचट हाथ डालते थे और तरह-तरह की गंदी फ़रमाइशें करते थे।

इससे अच्छे तो वे थे, भरी बंदूक की तरह आते थे... और अपना काम करके चलते बनते थे। न बकवास करते, न ज्यादा सताते थे। पर आमदनी इतनी भी नहीं थी कि गुज़ारा हो जाए। क़र्ज़ा उतरने में नहीं आता था।

नुस्खे के पीछे सबके रुपए नोट कर रखे थे... पर उन्हें चुकाने लायक पैसा कभी हाथ में नहीं आता था।

आखिर और कोई तरीका नहीं रह गया था। जाँघ के जोड़ पर निकला फोड़ा दिखाने के लिए जुगनू जब जर्राह के पास जा रही थी, तो रास्ते में मनसू ने टोक दिया था--“बहुत दिन हो गए... अब तो धंधा भी चल रहा है!”

चलते-चलते वे एक तरफ को आ गए थे। तब बहुत मजबूरी में उसने मनसू से कहा था, “एक पैसा नहीं बचता, क्या करूँ... तुमने तो आना जाना भी छोड़ दिया है..."

“हमने तो गंगाजली उठा ली है... रंडीबाज़ी नहीं करेंगे। तुलसी की कंठी पहन ली है, यह देखो!” मनसू बोला तो जुगनू को हलकी-सी हँसी आ गई थी और वह आँखें फाड़े देखता रह गया था।

जाँघ के जोड़ पर निकले फोड़े के कारण चलने में जुगनू को काफ़ी तकलीफ हो रही थी। वह टाँगें फैला-फैलाकर चल रही थी... मनसू का मन डोल रहा था। गली के मोड़ पर आकर मनसू ने धीरे-से कहा था, “तो फिर... बताया नहीं तुमने... कब तक इंतज़ार करोगी?”

“क़ुव्वत हो तो वसूल कर ले जाओ !" जुगनू ने अपनी मजबूरी को पीते हुए बनावटी शोखी से कहा था और गली में मुड़ गई थी। अपनी ही बात पर उसे बड़ी शरम आई थी... फिर लगा था कि ठीक ही तो कहा उसने... ख़ामख़्वाह की इज्जत का क्‍या मतलब? और फिर किसी का क़र्ज़ा लेकर क्यों मरे ? जो उतर जाए सो अच्छा ही है।

जर्राह ने बताया था कि अभी फोड़ा पकने में दिन लगेंगे। बाँधने के लिए पूल्टिस दे दी थी। जब वह लौटी तो दोपहर हो रही थी। सब अपने-अपने चबूतरों पर बैठी मिसकौट कर रही थीं। यही वक्‍त होता है, जब सब जागकर उठ जाती हैं और शाम की तैयारी से पहले मिल-बैठ लेती हैं। गली में से कच्ची उमर के लौंडों का गोल गुज़र रहा था। वे गंदे इशारे कर-करके औरतों को चिढ़ा रहे थे और बापों को दी जानेवाली गालियों का मजा ले रहे थे। आवारा लौंडे रोज गुज़रते थे... और उनका रोज़ का यही शगल था। ढलती उमर की औरतें गंदे इशारे देख-देखकर उनके बापों को गालियां देती थीं और जवान औरतें मुस्कराती रहती थीं। कभी-कभी हसन, बनवारी या लँगड़ा मातादीन उन लौंडों को दौड़ा भी देता था, तब वे गली के मुहाने पर पहुँचकर गालियाँ देते थे और नेकर या घुटना उठा-उठाकर अश्लील हरकतें करते थे। लौंडों का यह गोल मस्जिद के पीछे वाली बस्ती से आया करता था...

दोपहर में ही दुख-सुख की बातें हुआ करती थीं। और चुगली-चबाव भी। ज़्यादातर चुगली उनकी हुआ करती थी, जो इस मुहल्ले से उठकर शरीफ़ों की बस्तियों में चली गई थीं... जिन्हें छाँट-छाँटकर इब्राहीम ले गया था।

शाम होते ही गली गरमाने लगती थी। फूल-हारवाले आ जाते थे। पनवाड़ियों की दूकानें सज जाती और गफूर की दूकान पर आकर एक पुलिसवाला बैठ जाता था... उसके बैठते ही गफ़ूर खुलेआम बोतलें बेचना शुरू कर देता था।

जुगनू शाम को पुल्टिस हटा देती थी और बड़े बेमन से सिंगार करके बैठ जाती थी। फोड़ा गाँठ बनकर रह गया था, दर्द बहुत करता था। फिर भी वह जैसे-तैसे एकाध को खुश कर ही देती थी।

बारजे पर बैठे-बैठे जब वह सोच में डूब जाती और बेसहारा पहाड़-सी ज़िंदगी सामने फैल जाती, तब बहुत घबराती थी। आखिर क्या होगा? वह तो दाने-दाने को मोहताज हो जाएगी। लँगड़ी घोड़ी की जिंदगी वह कैसे जी पाएगी ?... क्या उसे भी मस्जिद की सीढ़ियों पर बुर्क़ा पहनकर बैठना होगा और अल्लाह के नाम पर हाथ फैलाना होगा? अख़्तरी की तरह... बिहब्बो और चम्पा की तरह... जी जब बहुत घबराता तो बह ज़हर खाने की बात सोचती... या डूब मरने की।

सैकड़ों मरद आए और गए... पर कोई एक ऐसा नहीं, जिसकी परछाईं तले उम्र कट जाए।

ज़रा ज्यादा जान-पहचान तो उन्हीं से थी, जिनसे रुपए लिए थे। पर आसरा वहाँ भी नहीं था। किसका क्‍या भरोसा... कौन कहाँ चला जाए! उम्र के साथ सब लौट जाते हैं। जहाँ बाल-बच्चे बड़े हुए कि उनका आना-जाना बंद। जहाँ उम्र ढली कि आदमी ने दूसरा शौक़ और शगल खोजा... तब कौन आएगा? पुरानी पहचानी शक्लें भी नहीं दिखाई देंगी। तब कितना अजीब और अकेला लगेगा !... बीते हुए वक्‍त में बैठकर जीना कितना तकलीफ़देह होगा... !

पिछले दिनों में उसे बस यही एक तस्कीन मिली है कि सभी क़र्ज़दार अपना पैसा वसूलने के लिए उसके पास आते रहे हैं... उसे उम्मीद थी कि मनसू जरूर आएगा, वह अपना पैसा ज़रूर वसूल करेगा... और बस आया था।

मनसू के बदन से वैसा ही भभका उठा था और वह आया भी ग्यारह के बाद ही था और निबट जाने के बाद कमर पकड़कर बैठ गया था। जुगनू भी मस्त पड़ी हुई थी। फोड़े पर दबाव पड़ने की वजह से वह बिल-बिला उठी थी। और उसकी हिम्मत नहीं हो रही थी कि मनसू को उठाकर दरवाज़े तक पहुँचा आए ताकि वह हमेशा की तरह जांघें खुजलाता हुआ चला जाए।

मनसू की अकड़ी कमर जब कुछ ढीली पड़ी, तो बोला था, “याद रखना...” -

जुगनू ने 'अच्छा' कहा था और मनसू को सहारा देकर उठा दिया था।

रात काफी हो गई थी। वह वहीं पड़ी-पड़ी कोठरी की दीवारों को देखती रही थी। पर उनमें देखने को कुछ भी नहीं था। मटमैली भद्दी दीवारें जिन पर कभी उसने रद्‌दी रिसालों से काट-काटकर फ़िल्मी सितारों की तस्वीरें चिपकाई थीं। कोने में कील पर एक डोरी में पुरानी चूड़ियों का लच्छा लटक रहा था और दीवार की किनारी के सहारे नेलपॉलिश की खाली शीशी पड़ी थी...

खाट के नीचे गूदड़ था और टीन का बक्सा--बकसे में बारह बरस पहले का एक पर्चा पड़ा हुआ है, जिसके हरुफ़ भी उड़ गए हैं... अब उस पर्चे का कोई मतलब नहीं रह गया है। मसविदा मुर्दा हो चुका है। और अब कौन जाता है वापस... और कौन बुलाता है वापस... ज़िंदगियों के बीच से वक्‍त का दरिया किनारे काटता हुआ निकल गया है... कहीं कोई नहीं है... कोई कहीं नहीं है।

सुबह उठी तो बदन टूट रहा था। फोड़े में बहुत दर्द था। जाँघ का जोड़ फटा जा-रहा था। उसने फिर पुल्टिस बाँध ली थी। और शाम को जैसे-तैसे तैयार हो गई थी। कोठरी में जाकर सबका हिसाब जोड़ने लगी थी। अलमारी की दीवार पर उसने निशान लगा रखे थे कि कौन कितनी मर्तबा आया था और कितने रुपए पट गए थे। संतराम फ़िटर सचमुच बहुत बदतमीज़ी से पेश आया था। बीस रुपए के बदले में वह चार बार हो गया था और पाँचवीं बार जब जाने लगा था, तो जुगनू ने बहुत आहिस्ता से कहा था, “यूँ ही जा रहे हो ?"

“क्यों ?” संतराम की निगाहों में शैतानी थी।

“रुपया तो पिछली बार ही पट गया था!" उसने बहुत झिझकते हुए पर साफ़- साफ़ कहा था।

“एक बारी सूद की ?” संतराम ने बड़े गंदे लहज़े में कहा था, “फोकट का पैसा नहीं आता, समझी?” और कोठरी से निकलकर सीढ़ियाँ उतर गया था।

जुगनू हताश-सी देखती रह गई थी। और हमजोलियों की तरह वह झगड़ा भी नहीं कर पाती थी। चीख-चिल्ला भी नहीं पाती थी और आदमी को बेइज्ज़त करके भेजते नहीं बनता था।

कँवरजीत होटलवाले के सबसे ज्यादा पैसे चढ़े हुए थे। वह सिर्फ़ तीन बार आया था। कुल पंद्रह रुपए पटे थे। मनसू के भी बीस उतर गए थे... हलकी राहत मिली थी उसे कि तभी फोड़ा टीस उठा था। वह टाँगें फैलाकर वहां बिस्तर पर लेट गई थी।

दरवाज़े पर आहट हुई तो देखा मदनलाल था। उसे देखते ही एक क्षण को वह भीतर-ही-भीतर झल्ला उठी थी। जैसे एक और सूदखोर पठान सामने आकर खड़ा हो गया हो... अपनी वसूलयाबी के लिए।

मदनलाल इस बीच नहीं आया था। इस वक्त उसका आना जुगनू को खल गया था। फिर भी बेचारगी में उसने उसे भीतर बुला लिया था... मदनलाल खाट पर बैठ गया था। अपना थैला उसने सिरहाने सरका दिया था। जुगनू खामोशी से थैले को टटोलने लगी थो। उसमें कुछ पोस्टर थे और तह किया हुआ एक झंडा । एकाध पुराने- से रजिस्टर भी थे। उसका दिल धड़क उठा था कि कहीं वह नक़द पैसे की माँग न कर दे। फोड़ा अलग टीस रहा था।

मदनलाल वही पुराने कपड़े पहने हुए था और वही जूते। पसीने की गंध पूरी कोठरी में भर गई थी।

“बहुत दिनों बाद आना हुआ!” जैसे-तैसे जुगनू ने कहा।

“जूते उतार लूँ!” मदनलाल ने हलकेपन से कहा था।

“उतार लो..."

“दरवाजा बंद कर दूँ ?"

“आज बहुत तकलीफ़ है... जाँघ के जोड़ पर फोड़ा निकला हुआ है। सीधी तो लेट भी जाऊँ पर जाँघ मोड़ते जान निकलती है..." जुगनू ने कहा था तो मदनलाल तस्मे खोलते-खोलते ठिठक गया था। मन-ही-मन वह शरमा भी गया था। जुगनू भी बहुत अटपटा महसूस कर रही थी। पर मदनलाल ने उसे उबार लिया था। इधर-उधर की बातें करता रहा था, पर हर क्षण जुगनू को डर लगा रहता था कि घृम-फिर कर बात रुपयों पर न आ जाए...

“अच्छा तो चलता हूँ...” मदनलाल थैला लेकर खड़ा हो गया था। उसने बहुत भरी-भरी नजरों से जुगनू को देखा था... जैसे आज लौटते हुए उसे तकलीफ हो रही थी।

और सारी बातों के बावजूद जुगनु अब दुबारा उससे रुकने को कह भी नहीं सकती थी। बहुत संकोच से उसने कहा था, “वह तुम्हारे रुपए..."

“उनके लिए नहीं...” मदनलाल ने कहा, “तुम्हारे लिए आया था!"

उसकी बगलों के नीचे भरा हुआ पसीना स्याही के धब्बे की तरह चमक रहा था। बाहों की उभरी हुई नसें पसीजी हुईं थी। उसने पसीजे हाथ से जुगन्‌ का हाथ पकड़ा था, तो लगा था जैसे हथेली में गृदारी रोटी की हलकी-सी तपिश आ गई हो।

“मैं फिर आऊँगा..." कहकर मदनलाल चला गया था। जुगनू सीधी बारजे पर आ गई थी। मन में कहीं अफ़सोस भी था कि उसे ऐसे ही लौट जाना पड़ा। मदनलाल को वह देखती रही थी... वह गली में तीन-चार घर पार करके खड़ा हो गया था। उसका गली में रुकना जैसे उससे सहा नहीं जा रहा था। फिर वह ऊपर बारजे पर एक नजर डालकर पाँचवें कोठे की सीढ़ियाँ चढ़ गया था। पता नहीं, कैसी तिलमिलाहट उसे हुई थी। फोड़ा और जोर से टीस उठा था !... फिर धीरे-धीरे जलन शांत हो गई थी। अगर उसने रोका होता तो वह शायद नहीं जाता... आखिर उसे भी तो जलन बर्दाश्त होने लगी थी। वह तो सिर्फ़ उसकी तकलीफ़ का खयाल करके लौट गया था, उसके पसीजे हाथ की गरमाहट में किसी तरह का धोखा नहीं था...

तभी कँवरजीत आ गया था। एकाएक लगा था जैसे कोई पराया घर में घुस आया हो। पर अपने को सँभालते हुए उसने मुस्कराकर उसे देखा था।

बिलकीस उधर कोने में खड़ी किसी पहलवान से बात कर रही थी। जुगनू चुपचाप कँवरजीत को लेकर कोठरी में चली गई थी। दरवाजे भेड़ लिए थे। कँवरजीत ने कुंडी चढ़ा दी थी।

“आज बहुत तकलीफ़ है... फोड़ा पक गया है।” जुगनू ने जैसे आजिज़ी से उसे समझाया था।

“अभी तक ठीक नहीं हुआ?” कँवरजीत ने पूछा था।

“हूँ, शायद दो-तीन दिन में फट जाए!" जुगनू ने जैसे माफ़ी माँगी थी।

“बिल्कुल तकलीफ़ नहीं होने दूँगा... बहुत आसानी से..." कहते हुए कँवरजीत खाट पर लेट गया था।

“आज... जुगनू ने कहा, तो उसने बहुत नरमी से उसे अपनी बग़ल में लिटा लिया था और बोला था, “जरा-सी भी तकलीफ़ नहीं होने दूँगा..."

जुगनू बहुत बेबस हो गई थी। समझ में नहीं आ रहा था कि उसे कैसे समझाए, तभी उसने उसकी छातियों पर हाथ रख लिया था। धीरे-से करवट लेकर जुगनू ने लाइट बुझा दी थी और ब्लाउज में हाथ डालकर कप्स निकाले और खाट के नीचे सरका दिए थे।

बहुत बार उसने कराह दबाई और कँवरजीत को रोका। आँखों के सामने अंधेरा छा-छा जाता था और जोर पड़ते ही जाँघ फटने लगती थी। कँवरजीत तीन- चार बार रुका, फिर जैसे उस पर शैतान सवार हो गया था...

“अरे, रुक तो...” वह चीख़ा था और जुगनू की टाँगें दबाकर वह हावी हो गया था।

“अरी, अम्मा रे... मार डाला... !” वह पूरी आवाज़ से चीखी थी जैसे किसी ने क़त्ल कर दिया हो और छटपटाकर बेहोश-सी हो गई थी।

“साली !" हाँफते हुए कँवरजीत बोला और उसे छोड़कर निढाल-सा बैठ गया था।

कुछेक मिनट बाद जुगनू को होश आया था। दर्द कुछ थमा था तो उसके हाथ- पैर हिले थे। तकिए के नीचे से कपड़ा निकालकर उसने लाइट जलाई थी, तो पूरी जाँघ फटे हुए फोड़े के मवाद से भरी हुई थी और कँवरजीत उससे बिल्कुल अलग बैठा 'ओं... ओं...' करके डकारें ले रहा था।

“फूट गया न..." वह खड़ा होता हुआ बोला था, तो उसने जाँघ पर साड़ी खिसका ली थी।

“ध्यान रखना, चौथी बारी हुई !” कँवरजीत ने कहा और कुंडी खोलकर कोठरी से बाहर निकल गया था।

साड़ी खिसकाकर वह मवाद पोंछने लगी थी। एकाएक मन बहुत घबरा उठा था। उसने धीरे-से फत्ते को आवाज दी थी। फत्ते आया था, तो उसने घड़े से पानी निकलवाया था और कपड़ा भिगोकर मवाद पोंछते हुए बोली थी, “देख, फत्ते... उधर विमला के घर एक आदमी गया है... चला न गया हो तो ज़रा बुला ला। नीली कमीज़ पहने है, थैला है उसके पास।”

“गाहक आदमी है?" फत्ते बोला था।

“नहीं, आपसी का आदमी है!” जुगनू ने कहा, “जरा-सा पानी और दे दे...”

फत्ते घड़े से पानी निकाल कर लाया, तो फिर सोचते हुए बोली, “रहने दे... तू अपना काम कर। वह कह गया है, आ जाएगा कभी...” कहते-कहते उसने फोड़े को हलके-से दाबा, तो कुछ और मवाद निकल पड़ा था; और दर्द से फिर चेहरे पर पसीना छलछला आया था।

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रचनाएँ
कमलेश्वर जी की हिन्दी कहानियाँ
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कमलेश्वर का जन्म ६ जनवरी १९३२ को उत्तरप्रदेश के मैनपुरी जिले में हुआ। उन्होंने १९५४ में इलाहाबाद विश्वविद्यालय से हिन्दी साहित्य में एम.ए. किया। उन्होंने फिल्मों के लिए पटकथाएँ तो लिखी ही, उनके उपन्यासों पर फिल्में भी बनी। 'आंधी', 'मौसम (फिल्म)', 'सारा आकाश', 'रजनीगंधा', 'मिस्टर नटवरलाल', 'सौतन', 'लैला', 'रामबलराम' की पटकथाएँ उनकी कलम से ही लिखी गईं थीं। हिन्दी लेखक कमलेश्वर बीसवीं शती के सबसे सशक्त लेखकों में से एक समझे जाते हैं। कहानी, उपन्यास, पत्रकारिता, स्तंभ लेखन, फिल्म पटकथा जैसी अनेक विधाओं में उन्होंने अपनी लेखन प्रतिभा का परिचय दिया। कमलेश्वर का लेखन केवल गंभीर साहित्य से ही जुड़ा नहीं रहा बल्कि उनके लेखन के कई तरह के रंग देखने को मिलते हैं। उनका उपन्यास 'कितने पाकिस्तान' हो या फिर भारतीय राजनीति का एक चेहरा दिखाती फ़िल्म 'आंधी' हो, कमलेश्वर का काम एक मानक के तौर पर देखा जाता रहा है। कमलेश्वर के कुछ ख़ास सृजन में 'काली आंधी', 'लौटे हुए मुसाफ़िर', 'कितने पाकिस्तान', 'तीसरा आदमी', 'कोहरा' और 'माँस का दरिया' शामिल हैं। हिंदी की कई पत्रिकाओं का संपादन किया लेकिन पत्रिका 'सारिका' के संपादन को आज भी मानक के तौर पर देखा जाता है। कमलेश्वर ने तीन सौ से ऊपर कहानियाँ लिखी हैं।
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अदालती फ़ैसला

20 जुलाई 2022
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अदालत में एक संगीन फ़ौजदारी मुकद्दमे के फ़ैसले का दिन। मुकद्दमा हत्या की कोशिश का था क्योंकि जिसे मारने की साजिश की गई थी वह गहरे जख्म खाकर भी अस्पताल की मुस्तैद देखभाल और इलाज की बदौलत जिन्दा बच गया

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अपने ही दोस्तों ने

20 जुलाई 2022
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हुआ यह कि भारत में विकास कार्यक्रम चल रहा था। एक सड़क निकाली गई जिसने घने जंगल को दो हिस्सों में बाँट दिया। उत्तरी हिस्से में शेर रह गए और दक्षिणी हिस्से में गीदड़ रह गए। तो एक दिन गीदड़ों के मुसाहिब

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आधी दुनिया

20 जुलाई 2022
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जहाज छूटने में कुछ देर थी। जेटी के कगार पर बैठे हुए पक्षी अजनबियों की तरह इधर-उधर देख रहे थे। जैसे वे उड़ने के लिए कतई तैयार न हों। खौलते पानी के बुलबुलों की तरह उनमें से एक-दो धीरे-से कुदकते थे और फि

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इंतज़ार

20 जुलाई 2022
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रात अँधेरी थी और डरावनी भी। झाड़ियों में से अँधेरा झर रहा था और पथरीली ज़मीन में जगह-जगह गढ़े हुए पत्थर मेंढ़कों की तरह बैठे हुए थे। बिजिलांते के बूटों की आवाज़ से दहशत और बढ़ जाती थी। हवा हमेशा की तर

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एक थी विमला

20 जुलाई 2022
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पहला मकान–यानी विमला का घर इस घर की ओर हर नौजवान की आँखें उठती हैं। घर के अन्दर चहारदीवारी है और उसके बाद है पटरी। फिर सड़क है, जिसे रोहतक रोड के नाम से जाना जाता है। अगर दिल्ली बस सर्विस की भाषा में

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क़सबे का आदमी

20 जुलाई 2022
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सुबह पाँच बजे गाड़ी मिली। उसने एक कंपार्टमेंट में अपना बिस्तर लगा दिया। समय पर गाड़ी ने झाँसी छोड़ा और छह बजते-बजते डिब्बे में सुबह की रोशनी और ठंडक भरने लगी। हवा ने उसे कुछ गुदगुदाया। बाहर के दृश्य स

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कितने पाकिस्तान

20 जुलाई 2022
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कितना लम्बा सफर है! और यह भी समझ नहीं आता कि यह पाकिस्तान बार-बार आड़े क्यों आता रहा है। सलीमा! मैंने कुछ बिगाड़ा तो नहीं तेरा...तब तूने क्यों अपने को बिगाड़ लिया? तू हँसती है...पर मैं जानता हूं, तेरी

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खर्चा मवेशियान

20 जुलाई 2022
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राज्य के वन-मन्त्री दौरे पर थे। रिजर्व फारेस्ट के डाक बँगले में उन्होंने डेरा डाला। उनके साथ के लश्कर वालों ने भी। उन्होंने वन अधिकारी को बुलवाया और ताकीद की-देखो रेंजर बाबू! मैं पुराने मन्त्री की तरह

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गर्मियों के दिन

20 जुलाई 2022
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चुंगी-दफ्तर खूब रँगा-चुँगा है । उसके फाटक पर इंद्रधनुषी आकार के बोर्ड लगे हुए हैं । सैयदअली पेंटर ने बड़े सधे हाथ से उन बोर्ड़ों को बनाया है । देखते-देखते शहर में बहुत-सी ऐसी दुकानें हो गई हैं, जिन पर

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चप्पल

20 जुलाई 2022
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कहानी बहुत छोटी सी है मुझे ऑल इण्डिया मेडिकल इंस्टीटयूट की सातवीं मंज़िल पर जाना था। अाई०सी०यू० में गाड़ी पार्क करके चला तो मन बहुत ही दार्शनिक हो उठा था। क़ितना दु:ख और कष्ट है इस दुनिया में...लगातार

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जार्ज पंचम की नाक

20 जुलाई 2022
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यह बात उस समय की है जब इंग्लैंण्ड की रानी ऐलिज़ाबेथ द्वितीय मय अपने पति के हिन्दुस्तान पधारने वाली थीं। अखबारों में उनके चर्चे हो रहे थे। रोज़ लन्दन के अखबारों में ख़बरें आ रही थीं कि शाही दौरे के लिए

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तस्वीर, इश्क की खूँटियाँ और जनेऊ

20 जुलाई 2022
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वे तीन वेश्याएँ थीं। वे अपना नाम और शिनाख्त छुपाना नहीं चाहती थीं। वैसे भी उनके पास छुपाने को कुछ था नहीं। वे वेश्याएँ लगती भी नहीं थीं। उनके उठने-बैठने और बात करने में सलीका था। मेक-अप भी ऐसा नहीं जो

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तुम कौन हो

20 जुलाई 2022
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रात तूफानी थी। पहले बारिश, फिर बर्फ की बारिश और बेहद घना कोहरा। अगर हवा तेज न होती तो शायद इतनी मुसीबत न उठानी पड़ती। पर हवा और हवा में फर्क होता है। यह तो तूफानी हवा थी जो तीर की तरह लगती थी। गाड़ी व

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नीली झील

20 जुलाई 2022
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बहुत दूर से ही वह नीली झील दिखाई पड़ने लगती है। सपाट मैदानों के छोर पर, पेड़ों के झुरमुट के पीछे, ऐसा मालूम पड़ता है, जैसे धरती एकदम ढालू होकर छिप गया हो, लेकिन गौर से देखने पर ऊँचे-ऊँचे पेड़ों के बीच

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पेट्रोल

20 जुलाई 2022
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मन्त्री जी लम्बे दौरे से लौट रहे थे। अरे ड्राइवर! पेट्रोल पूरा भरवा लिया था? जी साब, भरवा नहीं पाया। पर इतना है कि घर तक आराम से पहुँच जाएँगे! तभी रास्ते में उन्हें अपने चुनाव क्षेत्र के दो लोग मिल

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मांस का दरिया

20 जुलाई 2022
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जाँच करने बाली डॉक्टरनी ने इतना ही कहा था कि उसे कोई पोशीदा मर्ज नहीं है, पर तपेदिक के आसार ज़रूर हैं। उसने एक पर्चा भी लिख दिया था। खाने को गिज़ा बताई थी। कमेटी पहले ही पेशे पर रोक लगा चुकी थी। सब प

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राजा निरबंसिया

20 जुलाई 2022
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'एक राजा निरबंसिया थे', मां कहानी सुनाया करती थीं। उनके आस-पास ही चार-पांच बच्चे अपनी मुट्ठियों में फूल दबाए कहानी समाप्त होने पर गौरों पर चढ़ाने के लिए उत्सुक-से बैठ जाते थे। आटे का सुन्दर-सा चौक पुर

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लाश

20 जुलाई 2022
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सारा शहर सजा हुआ था। खास-खास सडकों पर जगह-जगह फाटक बनाए गए थे। बिजली के खम्भों पर झंडे, दीवारों पर पोस्टर। वालण्टियर कई दिनों से शहर में पर्चे बाँट रहे थे। मोर्चे की गतिविधियाँ तेज़ी पकडती जा रही थीं।

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सफेद सड़क

20 जुलाई 2022
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सुबह खिड़की के काँच पर भाप जमी थी। भीतर से साफ करना चाहा तो बाहर पानी की लकीरें नरम बर्फ की परत जमी रहीं। फिर भी कुछ-कुछ दिखाई देता था। ट्रेन किसी मोड़ पर थी। उसके कूल्हे पर खूबसूरत खम पड़ रहा था। नर्

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सवाल नंगी सास का

20 जुलाई 2022
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सुबह खिड़की के काँच पर भाप जमी थी। भीतर से साफ करना चाहा तो बाहर पानी की लकीरें नरम बर्फ की परत जमी रहीं। फिर भी कुछ-कुछ दिखाई देता था। ट्रेन किसी मोड़ पर थी। उसके कूल्हे पर खूबसूरत खम पड़ रहा था। नर्

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सीख़चे

20 जुलाई 2022
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जिन्दगी के दूसरे पहर में यदि सूरज न चमका तो दोपहरी कैसी ? बादल आते हैं, फट जाते हैं, परन्तु ये भूरे धुँधले बादल तो उसे हटते नजर ही नहीं आते। अगर उसका अपना दूसरा सूरज हो तो कैसा रहे ? इस मुहल्ले में अ

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सुबह का सपना

20 जुलाई 2022
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बात असल में यों हुई। उन दिनों शहर में प्रदर्शनी चल रही थी। जाने की कभी तबीयत न हुई। आखिर एक दिन मेरे मित्र मुझे घर से पकड़ ले गए। शायद आखिरी दिन था उसका। चला गया, पर ऐसे जमघटों में अब मन नहीं जमता। वह

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हवा है, हवा की आवाज नहीं है

20 जुलाई 2022
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कैरीन उदास थी। उसे पता था कि सुबह हमें चले जाना है। लेकिन उदास तो वह यों भी रहती थी। उस दिन भी उदास ही थी, जब पहली बार मिली थी। हम हाल गाँव का रास्ता भूलकर एण्टवर्प के एक अनजाने उपनगर में पहुँच गये थे

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शास्त्रज्ञ मूर्ख (हितोपदेश)

20 जुलाई 2022
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किसी नगर में चार ब्राह्मण रहते थे। उनमें खासा मेल-जोल था। बचपन में ही उनके मन में आया कि कहीं चलकर पढ़ाई की जाए। अगले दिन वे पढ़ने के लिए कन्नौज नगर चले गये। वहाँ जाकर वे किसी पाठशाला में पढ़ने लगे।

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अपनी-अपनी दौलत

20 जुलाई 2022
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पुराने ज़मींदार का पसीना छूट गया, यह सुनकर कि इनकमटैक्स विभाग का कोई अफसर आया है और उनके हिसाब-किताब के रजिस्टर और बही-खाते चेक करना चाहता है। अब क्या होगा मुनीम जी ? ज़मींदार ने घबरा कर कहा-कुछ करो म

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आत्मा की आवाज़

20 जुलाई 2022
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मैं अपना काम खत्म करके वापस घर आ गया था। घर में कोई परदा करने वाला तो नहीं था, पर बड़ी झिझक लग रही थी। गोपाल दूर के रिश्ते से बड़ा भाई होता है, पर मेरे लिए वह मित्र के रूप में अधिक निकट था। आंगन में च

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इंटेलैक्च्युअल

20 जुलाई 2022
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हिन्दी के एक बड़े आदरणीय आचार्य थे। आस्था से वे घनघोर सनातनी थे। लेकिन एक दिन न जाने क्‍या हुआ कि आचार्य जी ने सनातन धर्म की धज्जियाँ निकाल दीं। आर्य समाजियों को ख़बर मिली। वे बड़े प्रसन्‍न हुए। उन्ह

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एक अश्लील कहानी

20 जुलाई 2022
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नग्नता में भयानक आकर्षण होता है, उससे आदमी की सौन्दर्यवृत्ति की कितनी सन्तुष्टि होती है और कैसे होती है, यह बात बड़े दुःखद रूप में एक दिन स्पष्ट हो ही गयी। अनावृत शरीर से न जाने कैसी किरनें फूटती हैं,

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कर्त्तव्य

20 जुलाई 2022
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शाही हरम की बेगमों की डोलियाँ बीजापुर से दिल्ली की ओर जा रही थीं : रास्ता बीहड़ और सुनसान था। रास्ते में मराठा महाराज शिवाजी का इलाका तो पड़ता ही था। सेना के अपने दुश्मन और अपनी दक्षता होती है, साथ ही

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कामरेड

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लाल हिन्द, कामरेड!--एक दूसरे कामरेड ने मुक्का दिखाते हुए कहा। लाल हिन्द--कहकर उन्होंने भी अपना मुक्का हवा में चला दिया। मैं चौंका, और वैसे भी लोग कामरेड़ों का नाम सुन कर चौंकते हैं! वास्तव में किसी ह

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कोहरा

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पियरे की बात मुझे बार-बार याद आ रही थी-पैसे से उजाला नहीं होता ! अगर होता, तो हमारा देश सूरज को खरीद लेता ! लेकिन तुम सूरज नहीं खरीद सकते ! उस वक्त हम एक छोटी-सी घाटी में खड़े हुए थे। रीथ भी साथ थी।

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खामोशी एडगर ऐलन पो

20 जुलाई 2022
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'मेरी बात सुनो,' शैतान ने मेरे सिर पर हाथ रखते हुए कहा, 'जिस जगह की मैं बात कर रहा हूँ, वह लीबिया का निर्जन इलाका है - जेअर नदी के तट के साथ-साथ, और वहाँ न तो शांति है, न खामोशी। नदी का पानी भूरा मटमै

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गार्ड आफ ऑनर

20 जुलाई 2022
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मिली-जुली गठबन्धन सरकार के एक मन्त्री। पुलिस लाइन में उनका दौरा था। कार से उतरते ही वे प्रशंसकों-चापलूसों से घिर गए। गले में मालाएँ पड़ने लगीं। फूलों की बौछार। नारों की जय-जयकार। तब एक पुलिस अफसर भी

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चौकी-चौका -बंदर

20 जुलाई 2022
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एक पण्डित जी घर के चबूतरे पर चौकी लगाकर बैठते थे। मोहल्ले के लोग कभी धर्म पर, कभी स्वास्थ्य पर, कभी ध्यान योग पर उनके उपयोगी प्रवचन सुनते थे। उसी चौकी पर लोग दान-दक्षिणा रख देते थे। उसी से पण्डित जी

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तलाश

20 जुलाई 2022
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उसने बहुत धीरे-से दरवाज़े को धक्का दिया। वह भीतर से बंद था। जब तक वह सोई थी, तब तक बीचवाला दरवाज़ा बंद नहीं किया गया था। भिड़े हुए दरवाज़े की फाँक से रोशनी का एक आरा-सा गिरता रहा था, रोशनी मोमिया कागज

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तीसरा संस्करण

20 जुलाई 2022
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एक बौद्ध भिक्षु था। उसने छह खण्डों में भगवान गौतम बुद्ध की जीवनी लिखी। लगभग तीन हजार पृष्ठों के उस भारी-भरकम ग्रन्थ को प्रकाशित करने के लिए कोई प्रकाशक तैयार नहीं हुआ। भिक्षु बहुत निराश हुआ। तब समाज क

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दिल्ली में एक मौत

20 जुलाई 2022
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मैं चुपचाप खडा सब देख रहा हूँ और अब न जाने क्यों मुझे मन में लग रहा है कि दीवानचंद की शवयात्रा में कम से कम मुझे तो शामिल हो ही जाना चाहिए था। उनके लडके से मेरी खासी जान-पहचान है और ऐसे मौके पर तो दुश

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पत्थर की आँख

20 जुलाई 2022
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यह दो दोस्तों की कहानी है। एक दोस्त अमेरिका चला गया। बीस-बाईस बरस बाद वह पैसा कमाके भारत लौट आया। दूसरा भारत में ही रहा। वह गरीब से और ज्यादा गरीब होता चला गया। अमीर ने बहुत बड़ी कोठी बनवाई। उसने अपने

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भूख

20 जुलाई 2022
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पूस की दाँतकाटी सर्दी पड़ रही थी। बच्चा भूखा था। माँ के स्तनों में दूध नहीं था। थोड़ी दूर पर एक अलाव जल रहा था। भूखा बच्चा माँ के स्तनों को निचोड़ता पर जब दूध नहीं निकलता था तो वह बच्चे को लेकर अलाव क

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मुक़ाबला

20 जुलाई 2022
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सभी को मालूम है कि शेर बहुत सफाई पसन्द होता है। एक बार हुआ यह कि किसी बात पर शेर और जंगली सुअर में झगड़ा हो गया। जंगल के लगभग सभी जानवर शेर से भयभीत रहते थे। उन्हें मौका मिल गया। उन्होंने सोचा, जंगली

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रावल की रेल

20 जुलाई 2022
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तो दोस्तो, हुआ ऐसा कि मैं कच्छ के दिशाहारा रेगिस्तान की यात्रा से ध्वस्त और त्रस्त किसी तरह भुज (गुजरात) पहुँचा। स्टेशन के अलावा और कोई भरोसे की जगह नहीं थी, इसलिए वहीं चला गया। स्टेशन पर मीटर गेज की

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वीपिंग-विलो

20 जुलाई 2022
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हैम्पटन कोर्ट पैलेस से निकलकर गरम चाय पीने की तलब सता रही थी। पुराने किलों या महलों से निकलकर जैसी व्यर्थता हमेशा भीतर भर जाती है, वैसी ही व्यर्थता मन में भरी हुई थी। एक निहायत बेकार-सी अनुभूति। उदासी

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सर्कस

20 जुलाई 2022
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सर्कस तो आपने जरूर देखा होगा। उसमें तरह-तरह के ख़तरनाक और दिल दहलाने वाले करतब दिखाए जाते हैं। शायद आपने वह बेमिसाल खेल भी देखा हो, जिसमें लकड़ी का एक बड़ा चक्‍का घूमता हुआ आता है। उसी के साथ एक छरहरे

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सिपाही और हंस

20 जुलाई 2022
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तो दोस्तो ! आपको एक कहानी सुनाकर मैं अपनी बात समाप्त करूँगा। हुआ यह कि अंग्रेज भारत छोड़ कर जा चुके थे। राजे-महाराजों-नवाबों की रियासतों का विलय विभाजित भारत में हो चुका था। इंदिरा गांधी ने इनके लाखो

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सुख

20 जुलाई 2022
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यह किस्सा मुझे वरसोवा के एक मछुआरे ने सुनाया था। तब मैं अपने वीक-एण्ड घर 'पराग' में आकर रुकता था और सागर तट पर घूमता और डूबते सूरज को देखा करता था। तब मेरी जिन्दगी को अफ़वाहों का पिटारा बना दिया गया थ

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हमलावर कौन ?

20 जुलाई 2022
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दोस्तो! यह आज के यथार्थ को पेश करती एक दारुण कहानी है। इसके लेखक हैं-मुद्राराक्षष। यह कालजयी कहानी मैं आपको सुनाता हूँ- भारत-पाकिस्तान युद्ध । भारत की सेनाएँ पाकिस्तानी इलाकों को जीतती हुई भीतर तक पा

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लघु-कथाएँ

20 जुलाई 2022
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घूँघटवाली बहू बात वृन्दावन की है। मैं मन्दिरों में नहीं जाता। देखना हो तो जाने से परहेज भी नहीं करता। कहा गया कि बिहारी जी का मन्दिर तो देख ही लीजिए। यानी दर्शन कर लीजिए। गया। पर रास्ते और आस-पास की

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इनसान और भगवान्

20 जुलाई 2022
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यह एक अजीब विस्मयकारी और चौंकानेवाला दृश्य था। भादों का महीना और कृष्ण जन्माष्टमी का अवसर। निर्जला व्रत किए लाखों लोगों का हुजूम, जो कृष्ण जन्माष्टमी के महोत्सव में शामिल होने आए थे। कृष्ण मंदिरों के

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अष्टावक्र का विवाह

20 जुलाई 2022
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एक बार महर्षि, अष्टावक्र महर्षि वदान्य की कन्या के रूप पर मोहित हो गये। उन्होंने उसके पिता के पास जाकर उस कन्या के साथ विवाह करने की इच्छा प्रकट की। तब महर्षि वदान्य ने मुस्कराते हुए अष्टावक्र से कहा,

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दीर्घतमा और प्रद्वेषी

20 जुलाई 2022
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प्राचीन काल में उतथ्य नाम के एक ऋषि थे। उनकी स्त्री का नाम ममता था। ममता अत्यन्त रूपवती थी। जब वह चलती तो आश्रम में एक बार तो उस रूप की गन्ध चारों ओर बिखर जाती। ममता के इस अनुपम रूप को देखकर उतथ्य के

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बिलाव और चूहे

20 जुलाई 2022
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किसी विशाल घने वन में एक विशाल बरगद का वृक्ष था। उसकी जड़ों में सौ मुँह वाला बिल बनाकर पालित नाम का एक चूहा रहता था। उसी वृक्ष की डाल पर लोमश नाम का एक बिलाव रहता था। कुछ दिनों बाद एक चाण्डाल भी आकर उ

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कबूतर और बहेलिया

20 जुलाई 2022
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प्राचीन काल में एक क्रूर और पापात्मा बहेलिया रहता था। वह सदा पक्षियों को मारने के नीच कर्म में प्रवृत्त रहता था। उस दुरात्मा का रंग कौए के समान काला था और उसकी आकृति ऐसी भयानक थी कि सभी उससे घृणा करते

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मृत्यु ही ब्रह्म है

20 जुलाई 2022
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याज्ञवल्क्य ने जाने कितने छात्रों को, जाने कितनी बार पढ़ाया होगा यह सूक्त। कितनी बार दुहराया होगा वह अर्थ जो उन्होंने अपने गुरु से सुना था। पर आज पहला मन्त्र पढ़ना आरम्भ किया, “न असत् आसीत् न सत् आसीत

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गुरु मिले तो

20 जुलाई 2022
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वरुण एक जमाने में सबसे बड़े देवता थे। इन्द्र से भी बड़े। जिस काम के लिए बाद में इन्द्र बदनाम हुए उसका भी कुछ सम्बन्ध वरुण से था। नतीजा यह कि अनेक ऋषियों को वरुण की सन्तान होने का सौभाग्य प्राप्त हुआ।

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कुत्ते का ब्रह्म ज्ञान

20 जुलाई 2022
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बात बहुत पुरानी है। उस समय कुत्ते आदमी की और आदमी कुत्तों की भाषा जानते थे और कुछ कुत्ते तो सामगान करते हुए भौंकते थे। जो लोग कुत्तों की भाषा समझ लेते थे वे कुत्तों के ज्ञान पर आदमी के ज्ञान से अधिक भ

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वररुचि की कथा

20 जुलाई 2022
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वररुचि के मुँह से बृहत्कथा सुनकर पिशाच योनि में विन्ध्य के बीहड़ में रहने वाला यक्ष काणभूति शाप से मुक्त हुआ और उसने वररुचि की प्रशंसा करते हुए कहा, आप तो शिव के अवतार प्रतीत होते हैं। शिव के अतिरिक्त

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गुणाढ्य

20 जुलाई 2022
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गुणाढ्य राजा सातवाहन का मन्त्री था। भाग्य का ऐसा फेर कि उसने संस्कृत, प्राकृत और अपभ्रंश तीनों भाषाओं का प्रयोग न करने की प्रतिज्ञा कर ली थी और विरक्त होकर वह विन्ध्यवासिनी के दर्शन करने विन्ध्य के वन

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राजा विक्रम और दो ब्राह्मण

20 जुलाई 2022
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संसार में प्रसिद्ध उज्जयिनी नगरी महाकाल की निवासभूमि है। उस नगरी के अमल धवल भवन इतने ऊँचे-ऊँचे हैं कि देखकर लगता है जैसे कैलास के शिखर भगवान शिव की सेवा के लिए वहाँ आ गये हों। उस नगरी में यथा नाम तथा

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शूरसेन और सुषेणा

20 जुलाई 2022
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गोमुख ने कहा, श्रावस्ती में शूरसेन नाम का एक राजपुत्र था। वह राजा का ग्रामभुक था। राजा के लिए उसके मन में बड़ी सेवा भावना थी। उसकी पत्नी सुषेणा उसके सर्वथा अनुरूप थी और वह भी उसे अपने प्राणों की तरह च

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कैवर्तक कुमार

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राजगृह में मलयसिंह नाम के राजा राज्य करते थे। उनके मायावती नाम की अप्रतिम रूपवती एक कन्या थी। एक बार वह राजोद्यान में खेल रही थी तभी एक कैवर्तककुमार (मछुआरे के बेटे) की दृष्टि उस पर पड़ गयी। सुप्रहार

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